इंडिया का सबसे बड़ा अंधविश्वास और मानसिक विकृति

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बिना सोचे समझे जिस पर बिलीव या भरोसा/विश्वास किया जाता है उसे हम ब्लाइंडबिलीव यानी अंध विश्वास कहते हैं. अगर हम ये जानते हैं जिस पर हम बिलीव या भरोसा/विश्वास कर रहे हैं वह एक ब्लाइंडबिलीव यानी अंध विश्वास है या झूठ और भ्रम है; और अभ्यास के कारण एक लम्बे समय तक करते आ रहे हैं, वह एक मानसिक विकार यानी मानसिक विकृति है. ऐसा ही इंडियन भूखंड में वैदिक सामाजिक वर्ण व्यवस्था है जो की एक अंध विश्वास यानी मानसिक विकृति है.

इंडियन भूखंड कभी की एक भाषीय या एक राजा की अखंड राज्य सदियों नहीं रहा. यहाँ का भूखंड हजारों भाषीय सभ्यता से भरा रहा और इस भाषीय सभ्यताओं को तरह तरह की राजा राज किये. राजाओं के धर्म के अनुसार उनके प्रजाओं की भी धर्म हुआ करता था. बहुत सारे राजाओं धर्म की छूट यानी आजादी भी दी थी और कुछ राजाओं ने खुद की अपनायी हुई धर्म ही अपने प्रजा पर प्रेम से प्रसार किया जैसे बौद्ध धर्म राजा अशोक के द्वारा; तो, कोई जबरदस्ती थोपा, जैसे वैदिक वर्ण धर्म राजा पुष्यामित्र सुंग के द्वारा और इस्लाम; मुसलमान राजाओं के द्वारा. इंडिया की भूखंड में २०११ सेंसस की गणना की अनुसार १२२ प्रमुख भाषा और अन्य १५९९ भाषाएं देखने मिलते हैं । जितना भाषा, ये हम मान सकते हैं उतनी तरह की सभ्यता । अगर एक सभ्यता एक भाषीय भूखंड होता तो दूसारे भाषा की प्रयोजन ही क्या है? ज्यादातर राजाओं अपना अपनाई गयी धर्म को उसकी राज्य में फैलाते थे, ताकि एक सोच वाली नागरिकों  से मत भेद कम हो और राज्य में शांति बनाया रहे । क्यों की इस भूखंड में तरह तरह की भाषीय सभ्यता थे उनके जीवन सैली भी अलग अलग थे । यहां कई बुद्धिजीवी और महापुरुष पैदा हुए और उनके बनाई गयी दर्शन भी अलग अलग थी । उनके दर्शन या धर्म भी एक दूसरे की विरोधी भी थे ।  कुछ राजा धर्म और दर्शन की आजादी भी दी और कुछ प्रचारक और प्रसारक विरोधी धर्म को विनाश और अपभ्रंश भी किया । इस भूखंड में दो तरह की दर्शन और उससे बनी धर्म बने; एक तर्कसंगत(Rational) और दूसरा तर्कहीन(Irrational); आजीवक, चारुवाक/लोकायत, योग, बौद्ध, जैन और आलेख इत्यादि बिना भगवान और बिना मूर्ति पूजा की तर्कयुक्त धर्म और दूसरा बहुदेबबाद, मूर्ति पूजन, अंधविश्वास, तर्कविहीन, हिंसा, छल कपट और भेदभाव फैलाने वाला वैदिक जैसे धर्म । वैदिक धर्म को सनातन और हिन्दू धर्म भी कहा जाता है, जो वैदिक वर्ण व्यवस्था के ऊपर आधारित है । क्यों के आज की “हिन्दू” पहचान वाले अनुगामी चार वर्ण से बंटे हुए हैं; ये दरअसल चार वर्ण के वारे में जो धर्म या दर्शन बोलता है उसके अनुगामी हैं. चार वर्ण केवल एक ही दर्शन में मिलता है वह है संस्कृत में रचना की गयी रिग वेद में. यानी ये इस बात का पुष्टि करता है वर्ण व्यवस्था वैदिक सोच में में पैदा हुआ और जिन लोगों की प्रिय या मातृभाषा संस्कृत था उन्होंने ही इस सोच को दुषरे गैर संस्कृत भाषाई सभ्यता पर थोपा. वर्ण व्यवस्था रिग वेद की “पुरुष सूक्त १०.९०” में विस्तार रूप से व्याख्या की गयी है.

पुरुष सूक्त के अनुसार: एक प्राचीन विशाल व्यक्ति था जो पुरुष ही था ना की नारी और जिसका एक हजार सिर और एक हजार पैर था, जिसे देवताओं (पुरूषमेध यानी पुरुष की बलि) के द्वारा बलिदान किया गया और वली के बाद उसकी सरीर की टुकड़ों से ही विश्व और वर्ण (जाति) का निर्माण हुआ, जिससे ये दुनिया बन गई । पुरूष के वली से, वैदिक मंत्र निकले । घोड़ों और गायों का जन्म हुआ, ब्राह्मण पुरूष के मुंह से पैदा हुए, क्षत्रियों उसकी बाहों से, वैश्य उसकी जांघों से, और शूद्र उसकी पैरों से । चंद्रमा उसकी आत्मा से पैदा हुआ और उसकी आँखों से सूर्य, उसकी खोपड़ी से आकाश बना ।  इंद्र और अग्नि उसके मुंह से उभरे ।

कोई भी मनुष्य श्रेणी पुरुष की मुख, भुजाओं, जांघ और पैर से उत्पन्न नहीं हो सकती ना कोई कभी बिना जैविक पद्धति से पैदा हुआ है? मुख, बाहें, जांघ और पैरों से कभी भी इंसान पैदा हो नहीं सकते है, जो की अवैज्ञानिक और एक अंध  विश्वास है. साधारण ज्ञान के अनुसार, कोई भी जीबित  पुरुष को अगर मार दिया जाता है वह मर जाता है, ना की उससे कई तरह की जीवित प्राणियां पैदा हो जाते हैं. पुरुष  की बली से और उसकी सरीर की टुकड़े से इंसान पैदा होने का सोच ना केवल एक अंध विश्वाश है, ये झूठ, भ्रम और मुर्ख सोच भी है. पुरुष बलि की टुकड़ों से वैदिक मंत्र निकलना, घोड़ों और गायों का जन्म होना; आकाश, चंद्रमा और  सूर्य, उसकी शरीर की टुकड़ों से बनना ये एक मुर्ख सोच ही नहीं बल्कि उससे भी घटिया सोच है जो हमारे सभ्यता को अज्ञानता और अंधविश्वास की खाई में धकेलता है. दुःख की बात है जो इस सोच को फैलाते हैं हम उनको पंडित कहते हैं. ये सोच एक तरह से मानसिक विकृति है. इस सोच को ज्ञान की चोला पेहेनाके इंसान को बांटना और उन में फूट दाल के उन पर राज करना ना केवल मूर्खता है बल्कि शातिराना भी है; वर्ण की उत्पत्ति को हम वैदिक ज्ञान की बेवकूफी बोल सकते हैं. आप खुद ही अपनी तर्क से सोचो ये कैसा अंध विश्वाश और मूर्खता है? जिस मूर्खता और अंध विश्वास को सदियों ज्ञान और धर्म का चोला पहनाया गया और फैलाया गया? ये क्या मूर्ख सोच और अंध विश्वास का गुंडा गर्दी नहीं तो क्या है?

इस जातिबाद वैदिक पुरुष सूक्त फैलाने का क्या मतलब? मतलब साफ़ है गंदी सोच रखने वाले गुंडई सोच कपटी लोमड़ी सोच बुद्धि जीवी लोग अपनी और अपनी जैसी कुछ लोगों की संगठित लाभ के लिए बनाई सामाजिक शासन व्यवस्था जिसको हम वैदिक सामाजिक शासन व्यवस्था बोलते हैं जो की इंडिया सभ्यता की सबसे बड़ा मुर्ख और घटिया दर्शन है जिसको छल और बल से इसको इंडियन लोगों के ऊपर अपने संगठित लाभ के लिए  थोपा गया है  । हर भाषीय सभ्यता को ब्राह्मणबाद अगड़ी और पिछड़ी श्रेणी में बांटा; धूर्त, बाहुबली और बईमानों को अगड़ी यानी शासक वर्ग बनाने की मदद की और श्रम श्रेणी को हमेशा श्रम श्रेणी बने रहना और अगड़ी बनने से रोकने के लिए वर्ण व्यवस्था को धूर्त, बाहुबली और बईमानोंने अपनाया । रिग वेद का पुरुष सूक्त जो वर्ण व्यवस्था का वर्णन करता है एक मूर्खता और अज्ञानता का परिभाषा है; और क्योंकि ये संस्कृत भाषा में रचना की गयी हैं और अन्य १७०० भी ज्यादा अलग भाषी बोलने वाले सभ्यता जिन को संस्कृत बोलना नहीं आता उनके ऊपर  ये सोच जबरदस्ती थोपा गया है । यानी जिनलोगों की माँ बोली संस्कृत नहीं उनकी भाषीय प्रजाती में वर्ण व्यवस्था ही नहीं थी; इसलिये ये सोच उनके ऊपर छल और बल से थोपा गया है । संस्कृत भाषा सब भाषा की जननी है ये एक सफ़ेद झूठ है; जिसको मुर्ख और धूर्त वैदिक प्रचारकोंने फैलाई है । अगर संस्कृत भाषा इतनी पुरानी है, तो आज तक उसकी बोलने वाले १५ हजार से भी कम लोग क्यों हैं? ईश भाषा को कोई भी ख़तम करने को कोशिश नहीं किया; ईश को स्वाधीन इंडिया में भी संरक्षण मिला; उसके बावजूद ये कभी भी जन प्रिय भाषा बन नहीं पाया; इसका मतलब ये है की ये भाषा कभी भी  इस भूखंड का लोकप्रिय भाषा ही नहीं रहा । लेकिन दिलचस्पी की बात ये है की, हर वैदिक भगवान बस संस्कृत में ही समझता है । अगर भगवान हमेशा संस्कृत में समझते हैं, तो जिन लोगों का मातृभाषा संस्कृत नहीं हैं तो उनकी भगवान कैसा बना? क्या हम अरबी समझने वाले अल्ला; या इंग्लिश या अरामिक समझने वाला जिसु को अपना भगवान मानते हैं? तो संस्कृत समझने वाला भगवान हमारा भगवान है ये कितना तार्किक और मानने योग्य है?

३००० साल पहले इस भूखंड में कोई प्रमुख धर्म नहीं था; तो हमारा सब पूर्वज धर्महीन/धर्मबिहीन/गैरधर्मी ही थे; और किसी भी प्रमुख धर्म को नहीं मानते थे, तब क्या वह सब पापी और जानवर थे? प्रकृति की जैविक पहचान बड़ा है या कुछ इंसानों की बनाई गयी धार्मिक सामाजिक पहचान बड़ा? क्या हम पापी और जानवर के संतान हैं कहलवाना पसंद करेंगे? ये हम क्यों मानने को तैयार नहीं के हमारे पूर्वज इंसान थे; हो सकता है उन में से कुछ अच्छा होंगे और कुछ बुरा, और हम उन इंसानोकी ही संतान है ना की हिन्दू, मुसलमान, क्रिस्टिआन, बौद्ध, जैन इत्यादि इत्यादिओं का संतान? ये ज़रुरी नहीं है की हर अच्छा इंसान की संतान अच्छा इंसान ही हो और एक बुरा इंसान की संतान हमेशा बुरा. लेकिन एक तरह की सोच जो अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी जो की साइंनोने ही बनाया है, और उनकी पीढ़ीओं को वही सोच विरासत में देकर जाते हैं वह है धर्म. ज्ञान और धर्म दो अलग चीज है. कोई भी धर्म को अच्छे ज्ञान और बुरे ज्ञान के तौर पर लिया जा सकता है लेकिन कोई भी एक सोच या ज्ञान को अपना ज्ञान मानना, जो की बुरा भी हो उस को सही ठहरना क्यों की उस को उसकी पूर्वज और वह मानता है, वह कितना सही और तार्किक है? उसीको रिपिटेडली अपने पीढ़ियों को ट्रांसफर करना ज्ञान की आजादी को रोकना होता है.

जितने भी आज की प्रमुख धर्म है जैसे ईसाई, इस्लाम, हिन्दू ये सब धर्म इन ३००० साल की अंदर ही बने हैं. ३००० साल पहले हमारे पूर्वज इस मिट्टी से  जुड़े हुए थे जिस मिट्टी के साथ अब हम जुड़े हुए हैं और आने वाला पीढी भी इस  मिट्टी से जुड़ेंगे. आज हम जिस धर्म के अनुगामी हैं या जुड़े हैं हमारा पूर्वज तो जुड़े हुए नहीं थे न वह हिन्दू कहलाते थे, ना मुसलमान ना ईसाई तो क्या उनकी जिंदगी की कीमत कम हो गयी थी? जिन के वजह से हमारा वजूद है वह अगर कोई धर्म को मानते ही नहीं थे तो धर्म आज की जिंदगी में इनसानियत से ज्यादा बड़ा कैसे हो गया? आज धर्म के वजह से इंसान इंसान से घृणा करता है. कोई बोलता है अरब का भगवान अल्लाह मेरा भगवान है तो कोई बोलता है बन्दर  सर वाला मानव, हाथी सर वाला मानव, सांप, कछुआ, मछली, दस हात वाला विष्णु, चार मुंडी वाला ब्रह्मा, पुरुष जननांग (शिव लिंग) इत्यादि इत्यादि इन जैसे पहचान वाला ३३ करोड़ मेरे भगवान है; कोई बोलता है जेरुजेलम में पैदा हुआ भगवान पुत्र जो की आरामिक भाषीय पहचान यीशु ही मेरे भगवान है, तो कोई महावीर और बुद्ध को अपना भगवान मानता है. इस पीढ़ी और उनसे आगे 25 पीढ़ियां क्या कोई इन भगवान को देखा था? तो एक सोच को दूसरे पीढ़ी के दिमाग में इम्प्लांट करके उससे नफरत और हिंसा पैदा करके एक दूसरे से लड़ना क्या मानसिक विकृति नहीं है? जब की ये सब सोच या इनफार्मेशन इंसानी दिमाग का बस एक रासायनिक स्थितियां हैं जो की एक इंसानी दिमाग से दूसरे दिमाग को इंसानी कम्यूनिकेशन से जस्ट सोच की रासायनिक कॉपी एन्ड पेस्ट हुई हैं. मैमोरी के हिसाब से बायोलोजिकली  इंसानी दिमाग में रसायन अणुओँके की तहत एक पहचान की तौर पर एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को ट्रांसफ़र किया जाता है. इनका असली मौजूदगी नहीं होता लेकिन इंसान की दिमाग में साइकोलॉजिकल मौजूदगी होता है जो की भ्रम की बराबर ही है. भ्रम इसलिये जब आप कुछ आंखों से देख ते है, कानों से सुनते हैं उस को महसूस  करते हैं और  उसका साथ कुछ ऐक्शन करने की क्षमता रखते है तो वह रियलिटी है. इंसानो की दिमाग अपने मेमोरीमें से कुछ भी काल्पनिक सोच पैदा कर सकता है वह जरूरी नहीं की वह रियलिटी हो. अगर आप जिसको सोच में ही कम्यूनिकेट करते हो लेकिन कम्यूनिकेट का माध्यम रियलिटी में पत्थर, धातु या मिट्टी से बनी मूर्त्तियां या वैसे ही कुछ प्रतीकात्मक इत्यादि के साथ इंटरैक्ट कर रहे हो जो की कुछ माइने नहीं रखता क्यों के निर्जीव पदार्थों का ना कान होता है ना आँख जो की आप को सून सकते हैं ना देख सकते हैं ना आप की कम्यूनिकेशन को महसूस कर सकते हैं तो आप रियलिटी में कुछ कर है हो और सोच में कुछ इसलिये ये भ्रम है. अगर एक कल्पना जो की हकीकत नहीं है और रियलिटी को हार्म करे उसकी अभ्यासगत प्रैक्टिस करना वेकूफ़ी ही है. कुछ इंसानोने अपने चारो ओर एक्जिस्टेन्स देखी उनको किसने बनाया उसकी तार्किक चिंतन से जब हार गया तो उनको एक आलसी और सुबिधावादी सोच से एक काल्पनिक महा सक्तिमान एंटिटी की पेहेचान देकर भगवान बनादिया; जो की केवल एक इमेजिनरी साइकोलॉजिकल एंटिटी ही है.  अब जिस इंसान की सोच जैसा है उसकी एंटिटी/भगवान भी वैसे बन गया. भगवान के नाम से शातिर लोग सोसिअल कोन्फोर्मिटी का गलत इस्तेमाल करके उनके दिमाग और जीवन पर कंट्रोल करने लगे उस को हम धर्म कहते हैं. अंधविश्वास और अपराध को धर्म की छतरी के नीचे लीगालाइज़ किया और भगवान भ्रम फैलाके अनुगामिओं की शोषण की . क्राइम्स यानी अपराध और अंधविश्वास को कोई भी धर्म का चोला पहनाओ वह अपराध और अंधविश्वास ही होता है. धर्म के नाम पर अपराध और अंधविश्वास को सही का चोला पहनना या सही साबित करना भी एक व्यक्तित्व विकृति ही है. अब हर धर्म में क्रिमिनल इंटेलीजेंसिआ ज्यादा मिलेंगे और  इंटेलीजेंसिआ कम. तरह तरह की भगवान सोच से इंसान और इंसान की बिच सोच की जंग लगी और इस सोच के वजह से तरह तरह की सामाजिक बुराई पैदा हुए और यहाँ तक की इंसान इंसान को मारने लगा और इस भगवान की सोच की वजह से हमारा इंसानी दौड़ भगवान की आस्था की सम्राज्य में विभाजित हो गया जैसे की अब ह्यूमान रेस में ३१% से भी ज्यादा लोग ईसाई धर्म को मानते हैं, २४% से भी ज्यादा लोग इस्लाम को मानते हैं और १५% से ज्यादा लोग वैदिक(हिन्दू) धर्म को मानते हैं. ये लोग अपने धर्म की भगवान को ही अपना भगवान मानते जब की दूसरे धर्म की भगवान को नकारते हैं. असलियत में ये भगवान सोच से पैदा एक मानसिक विकृति है जिसको हम गॉड एडिक्शन डिसऑर्डर कहना ठीक होगा. गॉड एडिक्शन डिसऑर्डर में इंसान दूसरे इंसान को अपनी भगवान की सोच की वजह से हार्म करता है और उससे तरह तरह की असामाजिक बीमारी और दूसरे मानसिक बिकृतियाँ पैदा होते हैं. जैसे इंसान को अगर कोई रोग होता है जिससे इंसान को सामान्य जिंदगी से कठिनाइयां होती है और कभी कभी अपना जान भी गंवाना पड़ता वैसे ही अगर भगवान की सोच की वजह से इंसान को तकलीफ हो और उसी सोच के वजह से खुद की और दूसरे इंसान की जान भी जाये, खुद को अंध विश्वासी बना ले, तर्क से घृणा करे, उसके मन में लॉजिकल ब्लाइंडनेस पैदा हो जाये, निर्जीव मूर्त्तियोँ के आगे जिन्दा पशुओं की बलि दे और उसके आगे सर झुकाये, निर्जीव मूर्त्तियों को घंटी बजा के उठाये और उनको खाना भी परोसे, भगवान की नाम से कुछ भी बोलो बिना सोचे समझे उसकी विश्वास कर ले और उस को कार्य में भी पालन करे यहाँ तक की पशुओं के मल और मूत्र को बिना तर्क के चाट ले, किसी इंसान की बलि भी चढ़ा दे इत्यादि इत्यादि करे, भगवान को माइक में चिल्ला चिल्ला के ढूंढे और तू ही बड़ा एक ही भगवान बोले और ये भी स्वीकार करे ना उसका शेप, साइज और आकर है इत्यादि इत्यादि, और कभी भगवान से बच्चा भी पैदा करके उस को सन ऑफ़ गॉड बोले यानी भगवान सेक्स भी करता  जैसे मानसिकता को फैलाये ये मानसिक बिकृतियाँ नहीं तो क्या है? इस तरह की तरह तरह इल्लॉजिकल सोच और अंध विश्वास को इंसानी दिमाग में इम्प्लांट करना और उनके लाइफ और दिमाग के साथ खिलवाड़ करना क्या एक मानसिक बीमारी नहीं है? जो लोग ये जानते हुए भी ये सोच दूसरे की दिमाग में अपने फायदे के लिए इम्प्लांट कर रहे हैं वह क्या असामाजिक व्यक्तित्व विकार की शिकार नहीं है? जिस भगवान सोच की मानसिक स्थितियों के कारण इंसान इंसान को नफ़रत करता है या एक दूसरे की दुश्मन और जान ले लेता है हम उस विकृत मानसिक स्थिति को एक रोग क्यों नहीं कह सकते? क्यों के ये सब बिकृतियाँ भगवान प्रेम से पैदा हुआ है, ये एक मानसिक बीमारी “God Addiction Disorder” ही है.

गॉड एडिक्शन डिसऑर्डर को हम Theophlia भी कह सकते हैं. थियोफिलिया दो शब्द “थियो” और “फिलिया” का संयोजन है। आप थिओलॉजी(Theology) शब्द के बारे में जानते होंगे  जिसका मतलब है “ईश्वर का तर्क(लॉजिक ऑफ़ गड)” यानी “थियो” का अर्थ “ईश्वर” है, जहां “फिलिआ(philia)” का मतलब असामान्य प्यार है, या किसी विशिष्ट चीज़ के प्रति झुकाव है। बस थियो = ईश्वर, फिलिया = एक काल्पनिक शक्तिमान पहचान को बिना शर्त या सशर्त प्रेम करना और ये इस प्यार के लिए कोई कारण हो या ना हो ये माइने नहीं रखना और ये विश्वास करना  जो की सर्वोपरि या हर एक चीज का निर्माता, पालन कर्ता और संहार कर्ता है; जिसको अनुगामी तर्क से विश्वास करने का कोई कारण ज़रुरी नहीं है, को भी स्वीकारता है । अन्य अर्थ में अगर हम कहें थियोफिलिया का मतलब है भगवान की लत (God addiction) । थियोफिलिया एक मानसिक  विकार है और यह हमारे मानव जाति के लिए हानिकारक है । वर्तमान की हर धर्म की भगवान सोच को मानने वाला आस्तिक प्रचारक और उनकी प्रसारक उस सोच को बढ़ावा देते हैं जिन्होंने ना अपनी भगवान को देखा है ना  उनकी पूर्वजों ने देखा था ना उनके धर्म बनानेवाले धर्म  के संस्थापकों ने  देखा था । तो क्या आप इसको समान्य मानसिकता कहना पसंद करेंगे?

263BC के वाद इस भूखंड का प्रमुख धर्म बौद्ध धर्म बना क्योंकि राजा अशोक की बनाई गयी अखंड राज्य का राष्ट्र धर्म बुद्धिजीम था ना की वैदिक; तब की समय में बौद्ध धर्म एक तार्किक धर्म ही था. ईशाई धर्म 33AD के बाद पैदा हुआ और इस्लाम 610AD के बाद. 185BC में वैदिक ब्राह्मण पुष्यामित्र सुंग ने असोका राज की बौद्ध धर्म की विनाश किया और मनुस्मृति लागु करके वैदिक वर्ण धर्म को राजा अशोक की अखंड राज्य की ऊपर थोपा. क्यों के मनुस्मृति में ब्राह्मणो को तरह तरह की संरक्षण थी इससे संगठित पुजारीवाद ने इसको अपने भाषीय सभ्यता में ज्यादा फैलाया और समय के साथ कई राजाओं ने अपने आप को क्षत्रिय का वैदिक पहचान दिया और अपने तलवार की धार यानी दहशत, छल और बल, साम दाम दंड भेद के तहत 185BC से लेकर इस्लाम आक्रमण कारियों आने तक यानी 700AD तक ये धर्म को अच्छी तरह से फैलाया. इस्लाम राजाओं ने पाकिस्तान की सिंध प्रोविंस, जो की तब सिंधु सभ्यता कहा जाता था उनके नाम पर अपने राज की नाम रखा जैसे अल-हिन्द, इन्दूस्तान, हिंदुस्तान इत्यादि…और उनके राज्य में गैर मुसलमानों को हिन्दू की पहचान दी जो की तब ज्यादातर वैदिक यानि वर्ण को मानने वाले अनुगामी हो गये थे. क्यों के ज्यादातर शूद्र सबर्णों से प्रताड़ित थे, तो  ज्यादातर शूद्र इस्लाम को अपना धर्म मान लिया ताकि छुआ छूत जैसे असामाजिक तत्त्व से खुद को और अपने पीढ़ीओं को बचा सके. इस तरह से एक अंध विश्वास यानी वैदिक वर्ण व्यवस्था इस भूखंड का सबसे बड़ा प्रमुख धर्म बन गया.

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क्रमरहित सूची

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