चार्वाक

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चार्वाक दर्शन एक भौतिकवादी तार्किक दर्शन है। यह मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है तथा पारलौकिक सत्ताओं को यह सिद्धांत स्वीकार नहीं करता है। चार्वाक दर्शन को मानने वाले  प्राचीन इंडिया में अनीश्वरवादी और तार्किक थे; ये तार्किक मत के प्रवर्तक बृहस्पति के शिष्य माने जाते थे । बृहस्पति और चार्वाक कब हुए इसका कुछ भी पता नहीं है। बृहस्पति को चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र ग्रन्थ में अर्थशास्त्र का एक प्रधान आचार्य माना है। अगर ये दर्शन चाणक्य के समयमे था तो ये निश्चित रूप से राजा चंद्रगुप्त और अशोका का राज में अपनी छाप छोड़ा होगा और ईशा पूर्व १८५  के बाद पुष्यामित्र शुंग की वैदिक धर्म की विस्तार और बौद्धिक धर्म की पतन की बाद, जब ब्राह्मणबाद फैला तब संगठनीय पुजारी बाद इस दर्शन की हत्या कर दिया होगा। वैदिक यानी ब्राह्मणवाद झूठ, अंध विश्वास और भ्रम फैला के लोगों को मुर्ख बना के उन पे छल और बल पर लोगों को वैदिक वर्ण व्यवस्था के आधार पर अपने बृत्तिके अनुसार बांट के उनकी जिंदगी पर धर्म और भगवान के नाम पे राज करना चाहा जब की आजीविका, चार्वाक/लोकायत और बौद्ध धर्म लोगों को तार्किक और बुद्धिमान बना के इन सब धूर्त्तों से बचाना चाहा । इसलिए चार्वाक वेद, वैदिक अनुष्ठान, और अलौकिकता को भांड, झूठ और अंधा विश्वास मानता है । इंडिया में चार्वाक दर्शन का होना ये गर्व की बात है; इसका मतलब ये है इंडिया विज्ञान की सोच दूसरे सभ्यता से पहले कर दिया था लेकिन यहाँ के स्वार्थी  धूर्त्तों के कारण तार्किक और विज्ञान की सभ्यता की बिलुप्ति हो गया। जहां जहां इंडिया से बौद्ध धर्म (बुद्धि यानी तार्किक ज्ञान की धर्म) गया अन का सभ्यता अब भौतिकवादी तार्किक दर्शन में आगे हैं ; उनकी विज्ञान और तकनीक इंडिया से कही आगे है । जापान, चीन, साउथ कोरिआ इत्यादि देश जिन्होंने इंडिया से बौद्ध धर्म अपनाया था वह आज विज्ञान और तकनीक में अमेरिका से भी आगे हे ।

चार्वाक का नाम सुनते ही आपको ‘यदा जीवेत सुखं जीवेत, ऋण कृत्वा, घृतं पीवेत’ (जब तक जीवो सुख से जीवो, उधार लो और घी पीयो) की याद आएगी। ‘चार्वाक’ नाम को ही घृणास्पद गाली की तरह बदल दिया गया है। मानों इस सिद्धांत को मानने वाले सिर्फ कर्जखोर, भोगवादी और पतित लोग थे। श्लोक ये पुष्टि नहीं करता की अगर ऋण लिए हो तो उसकी परिशोध मत करो । अगर ऋण लेना बुरा है तो आज जितने भी बैंक है वह बंद हो जाएंगे । प्रचलित धारणा यही है कि चार्वाक शब्द की उत्पति ‘चारु’+’वाक्’ (मीठी बोली बोलने वाले) से हुई है। ज़ाहिर है कि यह नामकरण इस सिद्धांत के उन विरोधियों द्वारा किया गया है कि जिनका मानना था कि यह लोग मीठी-मीठी बातों से भोले-भले लोगों को बहकाते थे। चार्वाक सिद्धांतों के लिए बौद्ध पिटकों तक में ‘लोकायत’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका मतलब ‘दर्शन की वह प्रणाली है जो जो इस लोक में विश्वास करती है और स्वर्ग, नरक अथवा मुक्ति की अवधारणा में विश्वास नहीं रखती’। चार्वाक या लोकायत दर्शन का ज़िक्र तो महाभारत में भी मिलता है लेकिन इसका कोई भी मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं। ज़ाहिर है कि चूंकि यह अपने समय की सत्ताधारी ताकतों के खिलाफ बात करता था, तो इसके ग्रंथों को नष्ट कर दिया गया और प्रचलित कथाओं में चार्वाकों को खलनायकों की तरह पेश किया गया। चार्वाक ईश्वर और परलोक नहीं मानते। परलोक न मानने के कारण ही इनके दर्शन को लोकायत भी कहते हैं। सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक के मत से सुख ही इस जीवन का प्रधान लक्ष्य है। संसार में दुःख भी है, यह समझकर जो सुख नहीं भोगना चाहते, वे मूर्ख हैं। मछली में काँटे होते हैं तो क्या इससे कोई मछली ही न खाय ? चौपाए खेत पर जायँगे, इस डर से क्या कोई खेत ही न बोवे ? इत्यादि। चार्वाक आत्मा को पृथक् कोई पदार्थ नहीं मानते। उनके मत से जिस प्रकार गुड़, तंडुल आदि के संयोग से मद्य में मादकता उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार भूतों के संयोगविशेष से चेतनता उत्पन्न हो जाती है। इनके विश्लेषण या विनाश से ‘मैं’ अर्थात् चेतनता का भी नाश हो जाता है। इस चेतन शरीर के नाम के पीछे फिर पुनरागमन आदि नहीं होता। ईश्वर, परलोक आदि विषय अनुमान के आधार पर हैं।

चार्वाक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु ये चार ही तत्त्व सृष्टि के मूल कारण हैं। जिस प्रकार बौद्ध उसी प्रकार चार्वाक का भी मत है कि आकाश नामक कोई तत्त्व नहीं है। यह शून्य मात्र है। अपनी आणविक अवस्था से स्थूल अवस्था में आने पर उपर्युक्त चार तत्त्व ही बाह्य जगत, इन्द्रिय अथवा देह के रूप में दृष्ट होते हैं। आकाश की वस्त्वात्मक सत्ता न मानने के पीछे इनकी प्रमाण व्यवस्था कारण है। जिस प्रकार हम गन्ध, रस, रूप और स्पर्श का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए उनके समवायियों का भी तत्तत इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष करते हैं। आकाश तत्त्व का वैसा प्रत्यक्ष नहीं होता। अत: उनके मत में आकाश नामक तत्त्व है ही नहीं। चार महाभूतों का मूलकारण क्या है? इस प्रश्न का उत्तर चार्वाकों के पास नहीं है। यह विश्व अकस्मात भिन्न-भिन्न रूपों एवं भिन्न-भिन्न मात्राओं में मिलने वाले चार महाभूतों का संग्रह या संघट्ट मात्र है।

चार्वाकों के अनुसार चार महाभूतों से अतिरिक्त आत्मा नामक कोई अन्य पदार्थ नहीं है। चैतन्य आत्मा का गुण है। चूँकि आत्मा नामक कोई वस्तु है ही नहीं अत: चैतन्य शरीर का ही गुण या धर्म सिद्ध होता है। अर्थात यह शरीर ही आत्मा है। इसकी सिद्धि के तीन प्रकार है- तर्क, अनुभव और जड़ीबूटी विज्ञान/आयुबीज्ञान शास्त्र। तर्क से आत्मा की सिद्धि के लिये चार्वाक लोग कहते हैं कि शरीर के रहने पर चैतन्य रहता है और शरीर के न रहने पर चैतन्य नहीं रहता। इस अन्वय व्यतिरेक से शरीर ही चैतन्य का आधार अर्थात आत्मा सिद्ध होता है। अनुभव ‘मैं स्थूल हूँ’, ‘मैं दुर्बल हूँ’, ‘मैं गोरा हूँ’, ‘मैं निष्क्रिय हूँ’ इत्यादि अनुभव हमें पग-पग पर होता है। स्थूलता दुर्बलता इत्यादि शरीर के धर्म हैं और ‘मैं’ भी वही है। अत: शरीर ही आत्मा है। जड़ीबूटी बिज्ञान /आयुबीज्ञान जिस प्रकार गुड, जौ, महुआ आदि को मिला देने से काल क्रम के अनुसार उस मिश्रण में मदशक्त उत्पन्न होती है, अथवा दही पीली मिट्टी और गोबर के परस्पर मिश्रण से उसमें बिच्छू पैदा हो जाता है अथवा पान, कत्था, सुपारी और चूना में लाल रंग न रहने पर भी उनके मिश्रण से मुँह में लालिमा उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार चतुर्भूतों के विशिष्ट सम्मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। चार्वाक लोक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। विषय तथा इन्द्रिय के सन्निकार्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। हमारी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ने वाला संसार ही प्रमेय है। इसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ असत है। आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा के द्वारा रूप शब्द गन्ध रस एवं स्पर्श का प्रत्यक्ष हम सबको होता है। जो वस्तु अनुभवगम्य नहीं होती उसके लिये किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं होती । उनका कहना है कि समस्त प्रमेय पदार्थों की सत्ता केवल प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं की जा सकती। परन्तु चार्वाक का कथन है कि अनुमान से केवल सम्भावना पैदा की जा सकती है। निश्चयात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष से ही होता हैं। दूरस्थ हरे भरे वृक्षों को देखकर वहाँ पक्षियों का कोलाहल सुनकर, उधर से आने वाली हवा के ठण्डे झोके से हम वहाँ पानी की सम्भावना मानते हैं। जल की उपलब्धि वहाँ जाकर प्रत्यक्ष देखने से ही निश्चित होती है। अत: सम्भावना उत्पन्न करने तथा लोकव्यवहार चलाने के लिये अनुमान आवश्यक होता है किन्तु वह प्रमाण नहीं हो सकता। जिस व्याप्ति के आधार पर अनुमान प्रमाण की सत्ता मानी जाती है वह व्याप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। धूम के साथ अग्नि का, पुष्प के साथ गन्ध का होना स्वभाव है। सुख और धर्म का दु:ख और अधर्म का कार्यकारण भाव स्वाभाविक है। जैसे कोकिल के शब्द में मधुरता तथा कौवे के शब्द में कर्कशता स्वाभाविक है उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये। जहाँ तक शब्द प्रमाण की बात है तो वह तो एक प्रकार से प्रत्यक्ष प्रमाण ही है। आप्त पुरुष के वचन हमको प्रत्यक्ष सुनायी देते हैं। उनको सुनने से अर्थ ज्ञान होता है। यह प्रत्यक्ष ही है। जहाँ तक वेदों का प्रश्न है उनके वाक्य अदृष्ट और अश्रुतपूर्ण विषयों का वर्णन करते हैं अत: उनकी विश्वसनीयता सन्दिग्ध है। साथ ही अधर्म आदि में अश्वलिंगग्रहण सदृश लज्जास्पद एवं मांसभक्षण सदृश घृणास्पद कार्य करने से तथा जर्भरी तुर्फरी आदि अर्थहीन शब्दों का प्रयोग करने से वेद अपनी अप्रामाणिकता स्वयं सिद्ध करते हैं । धर्म नाम की वस्तु को मानना मूर्खता है क्योंकि जब इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ग आदि है ही नहीं तो धर्म के फल को स्वर्ग में भोगने की बात अनर्गल है। पाखण्डी धूर्त्तों के द्वारा कपोलकल्पित स्वर्ग का सुख भोगने के लिये यहाँ यज्ञ आदि करना धर्म नहीं है बल्कि उसमें की जाने वाली पशु हिंसा आदि के कारण वह अधर्म ही है तथा हवन आदि करना तत्त्द वस्तुओं का दुरुपयोग तथा व्यर्थ शरीर को कष्ट देना है इसलिये जो कार्य शरीर को सुख पहुँचाये उसी को करना चाहिये। जिसमें इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आन्दित हो वही कार्य करना चाहिये। जिनसे इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आनन्दित हो उन्हीं विषयों का सेवन करना चाहिये। शरीर इन्द्रिय मन को अनन्दाप्लावित करने में जो तत्त्व बाधक होते हैं उनको दूर करना, न करना, मार देना धर्म है। शारीरिक मानसिक कष्ट सहना, विषयानन्द से मन और शरीर को बलात विरत करना अधर्म है। तात्पर्य यह है कि आस्तिक वैदिक एवं यहाँ तक कि अर्धवैदिक दर्शनों में, पुराणों स्मृतियों में वर्णित आचार का पालन यदि शरीर सुख का साधक है तो उनका अनुसरण करना चाहिये और यदि वे उसके बाधक होते हैं तो उनका सर्वथा सर्वदा त्याग कर देना चाहिये।

चार्वाक कि विशिष्ट बातें –

1- जो प्रत्यक्ष है वही प्रमाण है।

2- आत्मा का देह से पृथक कोई अस्तित्व नहीं है (चैतन्य विशिष्टः काय -A body with soul is consciousness)

3- मृत्य ही मोक्ष है (मरणमेव अपवर्गः -Death is salvation)

4- न स्वर्ग है, न अंतिम मोक्ष और न कोई शरीर के परे आत्मा, न चार वर्णों के कर्म व्यवस्था का कोई फल ही होता है-

न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पार्लौकिकः

नैव वर्नाश्रमादीनाम क्रियश्चफल्देयिका

5- उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को इसलिए नकारा क्योंकि उन्हें इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं दिखा -जबकि ईश्वर के नाम पर लोगों को शोषित करने का निंदनीय काम समाज में शुरू हो चुका था! लोगों को यह बताया जाता था कि इस दुनिया मे तो ठीक मगर उस दुनिया में जाओगे तो अपने किये का क्या मुंह दिखाओगे? व्याज चुकता नहीं करोगे तो कौन सा मुंह लेकर ऊपर जाओगे? वहां नरक में धकेल दिए जाओगे -इसलिए कर्ज का पूरा पैसा चुकता कर के ही मरना है -लगता है दुष्ट साहूकारों, बाहुबलियों और कथित लालची पुरोहितों का दुश्चक्र तब पूरी तरह से हावी था -जो एक ओर तो लोगों को साहूकारों से कर्ज लेने को प्रोत्साहित करते, फिर उस कर्ज की वापसी के तरह तरह के अमानवीय हथकंडे अपनाए जाते! और मिथ्याभाषी पुरोहित भी उनसे गठजोड़ कर कर्ज लिए लोगों को स्वर्ग-नरक का भेद समझाते! कहते अगर इस जन्म में कर्ज वापस नही किये तो नरक भोगोगे और दुबारा जन्म होने पर कर्ज वापस करना होगा! ऐसे ही परिदृश्य में चार्वाक अवतरित हुए-

यावत् जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पीबेत ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।

मनुष्य जब तक जीवित रहे तब तक सुखपूर्वक जिये । ऋण करके भी घी पिये । अर्थात् सुख-भोग के लिए जो भी उपाय करने पड़ें उन्हें करे । दूसरों से भी उधार लेकर भौतिक सुख-साधन जुटाने में हिचके नहीं । परलोक, पुनर्जन्म और आत्मा-परमात्मा जैसी बातों की परवाह न करे । भला जो शरीर मृत्यु पश्चात् भष्मीभूत हो जाए, यानी जो देह दाहसंस्कार में राख हो चुके, उसके पुनर्जन्म का सवाल ही कहां उठता है । जो भी है इस शरीर की सलामती तक ही है और उसके बाद कुछ भी नहीं बचता इस तथ्य को समझकर सुखभोग करे, उधार लेकर ही सही । तीनों वेदों के रचयिता धूर्त प्रवृत्ति के मसखरे निशाचर रहे हैं, जिन्होंने लोगों को मूर्ख बनाने के लिए आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य जैसी बातों का भ्रम फैलाया है । इस तरह उन्होंने लोगों को दिन-ब-दिन की चिंता से मुक्त करना चाहा।

चार्वाक का यह कथन कितना तार्किक है कि मुक्ति चाहे शरीर से हो या दुःख से पूरी तरह से मरने के बाद ही संभव है-मतलब मृत्यु ही केवल मुक्तिदाता है! चार्वाक ईश्वर की कल्पना को एक अनावश्यक कल्पना मात्र मानते थे। कर्मकांड उनके लिए व्यर्थ उपक्रम था और स्वर्ग नरक पुरोहितों का खयाली पुलाव् ! परलोक का कोई प्रमाण नहीं है, उनका कहना यही था !

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