गौतम की बुद्धत्व प्राप्ति -जातक कथा

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कपिलवस्तु के शाक्यवंशीय सुद्धोदन और महामाया के पुत्र सिद्धार्थ गौतम का जन्म ५६३ ई.पू./४८० ई.पू. में वैशाख-पूर्णिमा के दिन लुम्बिनी के उपवन में स्थित एक साल-वृक्ष के नीचे हुआ था जब उनकी माता अपने माता-पिता से मिलने अपने मायके देवदह जा रही थी।

पुत्र-जन्म के तत्काल बाद महामाया वापिस कपिलवस्तु लौट आयी थी। शिशु के जन्म की सूचना पाते ही शिशु के दादा सीहहनु के गुरु तत्क्षण कपिलवस्तु पहुँचे। शिशु को अपनी गोद में उठा या जैसे ही शिशु को निकट से देखा तो उनकी आँखें पहले तो खुशी से चमक उठीं लेकिन फिर आँसुओं में डूब गयीं। राजा सुद्धोदन द्वारा कारण पूछे जाने पर उन्होंने बताया था, ” यह शिशु बुद्ध बनने वाला है इसलिए मैं प्रसन्न हूँ। किन्तु दु:ख इस बात का है कि शिशु की बुद्धत्व-प्राप्ति तक मैं जीवित नहीं रह सकूंगा।”

शिशु का नाम सिद्धार्थ गौतम रखा गया। सातवें दिन सिद्धार्थ की माता का देहांत हो गया, तब उसके लालन-पालन का दायित्व उसकी मौसी ने लिया (वह भी सुद्धोदन की एक पत्नी थी; और उनका विवाह भी सुद्धोदन के साथ उसी दिन हुआ था जिस दिन महामाया का।)

सोलह वर्ष की अवस्था में  सुधबुद्ध की कुमारी बिम्बा उनकी प्रमुख रानी बनी थी, जो बाद में राहुलमता के नाम से बौद्ध-साहित्य में विख्यात हैं। झ्र बिम्बा ही भद्दकच्छा, सुभद्दका और यशोधरा (हिन्दी-संस्कृत : यशोधरा) के नाम से जानी जाती हैं। उन्नतीस वर्षों  के बाद सिद्धार्थ संसार से विमुक्त हो संन्यास को उन्मुख हुए।

उन्होंने एक बार एक रोगी को देखा और अनुभव किया कि हर कोई जो पैदा होता है रोग और व्याधि से पीडित भी होता रहता है। फिर उन्होंने किसी वृद्ध को देखा। इससे उन्हें यह विदित हुआ कि हर कोई जो जन्म लेता है, कालान्तर में वृद्ध भी होता है तत: उसके हाथ-पैर शिथिल और जर्जर हो जाते हैं। फिर जब उन्होंने एक मृत को देखा तो यह ज्ञान पाया कि हर कोई जो जन्म लेता है एक दिन मृत हो अपने संसार और नश्वर शरीर को भी छोड़ जाता है तब सारे सुख, सुविधाओं और वैभव की वस्तुएँ निरर्थक हो जाती है । अत: संसार सारहीन है । अंतत: वैभव का त्याग कर सत्य का अन्वेषण में उन्होंने  संसारिकता का परिव्याग कर संन्यास वरण कर गृह-त्याग किया।

शाक्य कोलि और मल्ल राज्यों को पार कर संन्यासी के रुप में वे राजगीर आदि स्थानों पर भटकने लगे । इसी क्रम में उन्होंने अकार-ककाम और उद्धकराम पुत्त को अपना गुरु बनाया। किन्तु उनके दर्शन व विचार से वे संतुष्ट नहीं हुए। अत: वे उरुवेका के सेनानीगाम पहुँचे और छ: वर्षा तक पाँच भिक्षुओं के साहचर्य में कठिन तपस्या की । कठिन चरम तप दो मार्ग की अनुपभुक्तटा जान पुन: वे साधारण भोजन ग्रहण करने को प्रेरित हुए जिससे खिन्न हो उनके पाँच भिक्षु-मित्र खिन्न हो उनका साथ छोड़ सारनाथ के इसिपत मिगदाथ को प्रस्थान कर गये।

सिद्धार्थ की साधारण भोजन ग्रहण करने की इच्छा सुजाता नाम की एक कन्या ने सोने की कटोरी में खीर अर्पित कर पूरी की। वह दिन वैशाख पूर्णिमा का था। गौतम ने निरञजरा नदी में स्नान कर खीर खाई । फिर सारा दिन साल-उपवन में व्यतीत कर शाम को वे पीपल के एक पेड़ के नीचे जा बैठे। वहीं सोत्यीय नामक एक घसियारे ने उन्हें आठ-मुट्ठी घास दिये। घास को उन्होंने पूर्व दिशा की ओर रख उसकी आसनी बनायी। फिर उसपर बैठकर उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि जबतक वे बोधि नहीं प्राप्त करते तबतक वहाँ से नहीं उठेंगे।

किन्तु उनकी दृढ़ मार (मन की शैतान) ने उनपर आक्रमण किया। मार से उनकी रक्षा तब केवल दस पारमियों ने की। पारमी दस होते हैं-दान, शील, नेक्खम्म या नौकम्र्म) प्रज्ञा, वीर्य, खन्ति (या धैर्य), सत्य, अधिष्ठान, मेत्ता (या मैत्रेय) और उपेक्खा (या समभाव) अथवा अनासक्ति।

तप में लीन गौतम सम्बोधि की प्राप्ति की। ज्ञान को जिससे वे ” पच्चेक (प्रत्येक) बुद्ध बने। परिच्चसमुप्पाद के सिद्धान्त का सुखद मनन उन्होंने प्रथम सात दिनों तक उसी बोधि-वृक्ष के नीचे बैठे किया । उसके बाद उन्होंने अजपाल निग्रोध वृक्ष के नीचे बिताया जहाँ उनकी भेंट एक घमण्डी ब्राह्मण से हुई थी और जहाँ उन्होंने मार की तीनों अवस्था  तृष्णा, अरति और राग यानि क्रोध को हराया ।  उसके बाद वे राजायतन पेड़ के नीचे बैठे रहे जहाँ उन्होंने तपुस्स और भल्लिक को बिना किसी देखना सुनाये ही अपना अनुयायी बनाया।

तत्पश्चात उन्होंने पीड़ित मानव के उत्थान के लिए धम्मचक्क-पनत्तन का निश्चय किया । दूसरों के उत्थान की प्रतिज्ञा से वे सब्बञ्ञू (सर्वज्ञ) बुद्ध कहलाये। तब अपनी धम्म देशना के प्रवर्त्तन हेतु अपने पाँच तपस्वी मित्रों को योग्य पाया जो उन दिनों वाराणसी के इसिपतन मिगदाय में वास कर रहे थे। इस धम्म-चक्र प्रवर्तन की महत्ता को अशोक-कालीन सारनाथ सिंह स्तम्भ में दर्शाया गया है जो आज इंडियन गणराज्य का राष्ट्रीय चिह्म है। चार-मुख वाला वह सिंह-स्तंभ बुद्ध के धम्म या देशना का सिंह नाद आज भी हर दिशा में गुंजाता प्रतीत होता है। पुन: सिंह-स्तंभ में अंकित चक्र जो अशोक-चक्र के नाम से जाना जाता है, आज जो इंडियन राष्ट्रीय ध्वज पर बड़े गौरव से लहराता रहता है वस्तुत: धर्म-चक्र का ही प्रतीक है।

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