आचार्य चाणक्य एक ऐसी महान विभूति थे, जिन्होंने अपनी विद्वत्ता, बुद्धिमता और क्षमता के बल पर इंडियन इतिहास की धारा को बदल दिया । जब इस विशाल भूखंड कई भाषीय सभ्यता और अनेक राजा, महाराजाओं का भूखंड था उन्होंने अखंड राज्य की परिकल्पना की. मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चाणक्य कुशल राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, प्रकांड अर्थशास्त्री के रूप में भी विश्वविख्यात हुए. मौर्य साम्राज्य गैरवैदिक साम्राज्य था, लोग वैदिक वर्ण व्यवस्था में विभाजित नहीं थे; यानी मौर्य सम्राज्य एक हिन्दू साम्राज्य नहीं था. उस समय में हिन्दू शब्द का इस्तेमाल भी नहीं था. हिन्दू शब्द का इस्तेमाल इसलाम आक्रमणकारियों के बाद इस भूखंड में इस्तेमाल में आया यानी 700AD के बाद हिन्दू शब्द इस्तेमाल में आया. चाणक्य नीति में भी आप को हिन्दू, हिंदी, अल-हिन्द, हिंदुस्तान या इन्दूस्तान शब्द का ब्यबहार देखने को नहीं मिलेंगे. चाणक्य आजीविका, चारुवाक/लोकायत, बुद्धिज़्म जैसे तार्किक दर्शनों का अनुगामी थे ना की अंधविश्वासी छुआ छूत वाला वैदिक वर्णवादी धर्म. गुरु जैसा होता है राजा भी उसी तरह उनके राजा को बनाता है और राजा अपने प्रजा को. मौर्य साम्राज्य राजा अशोक के राज में मौर्य साम्राज्य सम्पूर्ण बौद्धिक राज्य बन गया था. मौर्य सम्राज्य को धोखेबाज ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने धोखे से हतिया लिया और वैदिक धर्म तलवार की धार और मृत्यु की भय पर लागू किया. वैदिक ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य साम्राज्य की बौद्ध धर्म को विलुप्त करने की कोई कसर नहीं छोड़ी और बाद की समय में संगठित पुजारीवाद यानी ब्राह्मणबाद फैल के ज्यादातर राज्य वर्णवादी सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तित हो गए. संगठित पुजारीबाद इतिहास और बौद्धिक ज्ञान सम्पदा को ब्राह्मणीकरण की, जो उनके अनुकूल नहीं थी उस को नष्ट और अपभ्रंश किया इसीलिए चाणक्य को भी उनलोगोंने आपने संगठित पुजारीवाद का प्रचार के लिए उनकी ज्ञानसम्पदा और उनकी पहचान को भी ब्राह्मणवादी बनादाला. उनकी रचनाओं को भी इनलोगोंने अपभ्रंश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उनके पहचान को आज तक पीढ़ीओं को ब्राह्मण बताया जब की वह कभी ब्राह्मण ही नहीं हो सकते. अगर वह ब्राह्मण होते अशोक और चन्द्रगुप्त मौर्य उनके राज में वैदिक धर्म फैलाते ना की बौद्धिक. चाणक्य की असली रचनाओं पाली में होगी जिसको ब्राह्मणवादी संस्कृतिकरण की होगी. अगर चाणक्य ब्राह्मणवादी होते तो क्या 263BC में राजा अशोक की मौर्य साम्राज्य को तार्कित बौद्धिक राज्य बनने देते जब की वह 283/275 BC तक पाटलिपुत्र में ही जिए? चाणक्य ब्राह्मण हैं और ब्राह्मणों का जैसे दीखते हैं ये सब धूर्त ब्राह्मण लेखकों का द्वारा फैलाई गयी झूठ है. आप को ये कहीं भी नहीं मिलेगा चाणक्य शिव का उपासक थे. लेकिन ब्राह्मणवादी प्रचारकों ने उनके माथे पर शिव भक्त और उनके अनुगामियाँ जैसे उन लोगों के माथे पर तीन पारालेल लाइन्स का एम्ब्लिम यानी तिलक लगाते हैं वैसे ही चाणक्य के माथे पर इस्तेमाल करके उनको वैदिक ब्राह्मणवादी छतरी के नीचे लाया और उनको ब्राह्मणवादी बताया जिससे ये पता चलता है ये लोग कितने झूठे और शातिर के साथ साथ बेईमान हैं. इस वेबसाइट में चाणक्य की असली पहचान चित्र और उनकी सठिक लेख को प्रतिपादित करने की कोशिश की गयी है. ये जरूर आपको अजीब लगे लेकिन आप अपनी तार्किक आधार पर जो सही लगे उससे अपना सकते हैं. इतनी सदियाँ गुजरने के बाद आज भी यदि चाणक्य के द्वारा बताए गए सिद्धांत और नीतियाँ प्रासंगिक हैं तो मात्र इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने गहन अध्ययन, चिंतन और जीवानानुभवों से अर्जित अमूल्य ज्ञान को, पूरी तरह नि:स्वार्थ होकर मानवीय कल्याण के उद्देश्य से अभिव्यक्त किया।
चाणक्य का कलात्मक चित्रण क्यों की ब्राह्मणवादी विचारधाराओं के लोगों के द्वारा बनायी गई थी वह ब्राह्मण जैसे दिखते हैं. निचे दिए गए चाणक्य का कलात्मक चित्रण उनके इतिहास की चरित्र वर्णन पर आधारित है नाकि सांप्रदायिक सोच के ऊपर. चाणक्य को ना हमने देखा है ना जो चित्र अब दुनिया में घूम रहा है उन्होंने; जिन्होंने चाणक्य की कलात्मक चित्रण की बस अपनी सांप्रदायिक फ़ायदा केलिए उनकी छबि ऐसे बनाई जो की इतिहास की चरित्र वर्णन से मेल नहीं खाते. क्यों की नन्द बंस की राजा धनानंद उनकी काले कुरूप रूप का अपमान किया था ना की गोरा धूर्त्त ब्राह्मण जैसे दिखनेवाला रूप और चरित्र को. नीचे दिया गया चाणक्य चित्र को ज्यादा से ज्यादा फैलाएं.
“चाणक्य नीति” आचार्य चाणक्य की नीतियों का अद्भुत संग्रह है, जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना वह दो हजार दो सौ साल पहले था, जब इसे लिखा गया था । चाणक्य नीति द्वारा मित्र-भेद से लेकर दुश्मन तक की पहचान, पति-परायण तथा चरित्र हीन स्त्रियों में विभेद, राजा का कर्तव्य और जनता के अधिकारों तथा वर्ण व्यवस्था का उचित निदान हो जाता है। आचार्य चाणक्य की ‘चाणक्य नीति’ में कुल सत्रह अध्याय है, जिन्हे आप नीचे दिए गए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं !
चाणक्य नीति : प्रथम अध्याय
चाणक्य नीति : द्वितीय अध्याय
चाणक्य नीति : तीसरा अध्याय
चाणक्य नीति : चौथा अध्याय
चाणक्य नीति : पांचवा अध्याय
चाणक्य नीति : छठवां अध्याय
चाणक्य नीति : सातवां ध्याय
चाणक्य नीति : आठवां अध्याय
चाणक्य नीति : नवां अध्याय
चाणक्य नीति : दसवां अध्याय
चाणक्य नीति : ग्यारहवां अध्याय
चाणक्य नीति : बारहवां अध्याय
चाणक्य नीति : तेरहवां अध्याय
चाणक्य नीति : चौदहवां अध्याय
चाणक्य नीति : पन्द्रहवां अध्याय
चाणक्य नीति : सोलहवां अध्याय
चाणक्य नीति : सत्रहवां अध्याय
चाणक्य की जीवनी
चाणक्य को इंडिया के एक महान राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री के रूप में जाना जाता है। उनके पिता चणक एक शिक्षक थे । कहां जाता है कि चाणक्य का जन्म तक्षशिला या दक्षिण इंडिया में, या ये भी हो सकता है तबक़ा मगध राज्य में 350 ईसापूर्व के आसपास हुआ था। उनकी मृत्यु का अनुमानित वर्ष ईसापूर्व 283/275 बताया गया है। तक्षशिला (पालि : तक्कसिला) प्राचीन इंडिया में गांधार देश की राजधानी और बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था । यहाँ का विश्वविद्यालय विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों में शामिल था। चाणक्य यहाँ पर आचार्य थे। ईसापूर्व ४०५ में फाह्यान यहाँ आये थे।
राजा निर्माता चाणक्य
चाणक्य को विष्णुगुप्त, वात्सायन, मल्लनाग, अंगल, द्रमिल और कौटिल्य के नाम पे भी जाना जाता है । चाणक्य ने जन्मजात नेतृत्वकर्ता के गुण मौजूद थे । वे अपने हम उम्र साथियों से अधिक बुद्धिमान और तार्किक थे। चाणक्य कटु सत्य को कहने से भी कभी नहीं चूकते थे । इसी कारण पाटलिपुत्र के राजा धनानंद ने उन्हें अपने दरबार से बाहर निकाल दिया था। तभी चाणक्य ने प्रतिज्ञा ली थी कि वे नंद वंश को जड़ से उखाड़ फेंकेंगे। चाणक्य का झुकाव राजनीति की ओर था। जल्दी ही वह राजनीति की बारीकियों को समझने लगे थे । वे समझ गये थे कि विरोधियों के खेमे में अपने आदमी कैसे शामिल किए जाते हैं और दुश्मनों की जासूसी कैसे की जाती है । इसके अलावा उन्होंने अर्थशास्त्र एवं तार्किक शास्त्रों का अध्ययन किया और बाद में उन्होंने चाणक्य नीति नीतिशास्त्र ,अर्थशास्त्र जैसे महान कालजयी ग्रंथों की रचना की। तक्षशिला में शिक्षा समाप्त करके चाणक्य वही शिक्षक के रूप में कार्य करने लगे। वह विद्यार्थियों के आदर्श थे । उनके दो शिष्यों— भद्रभट्ट और पुरुष दत्त का उल्लेख अनेक स्थानों पर आया है। चाणक्य के लक्ष्य को प्राप्त करने में उनका हम योगदान बताया गया है। यह भी कहा जाता है कि वह दोनों चाणक्य के जासूस थे और उनके शत्रुओं के बारे में जानकारियां जुटा कर उन तक पहुंचाया करते थे।
इसी दौरानअपने सूत्रों से चाणक्य को ज्ञात हुआ कि यूनान का महान सम्राट सेल्युकस इंडिया के कमजोर शासकों पर आक्रमण करने वाला है । इस प्रकार इंडिया की एकता पर खतरा मंडरा रहा था । इस आराजक स्थिति का लाभ उठाते हुए पाटलिपुत्र के कुटिल शासक धनानंद ने अपनी प्रजा का शोषण करना आरंभ कर दिया । विदेशी आक्रमण से लोहा लेने की आड़ में उसने जनता पर तरह तरह के कर थोप दिए । एक ओर विदेशी हमलावर कमजोर राज्यों पर टकटकी लगाए थे तो दूसरी और पड़ोसी देश अपने कमजोर पड़ोसियों को हथियाने के फिराक में थे। चाणक्य विदेशी और भीतरी— दोनों खतरों पर नजर रखे थे। इस उथल पुथल ने उनकी रातों की नींद छीन ली और उन्होंने तक्षशिला को त्यागकर पाटलिपुत्र लौटने का इरादा कर लिया।
चाणक्य की शपथ
पाटलिपुत्र के राजा घनानंद एक अनैतिक और क्रूर स्वभाव का राजा था। उसका बस एक ही उद्देश्य था— किसी भी तरह धन संचय करना। वह धन के मामले में पूरी तरह असंतुष्ट था । प्रजा को वह कांटे की तरह खटकता था; लेकिन कोई उसके खिलाफ बोलने का दूसरा हक नहीं कर पाता था । प्रजा तरह-तरह के करो से दबी हुई थी। कर वसूली का उद्देश्य केवल राजा की स्वार्थ पूर्ति करना था । चमड़े, लकड़ी और पत्थरों पर भी कर वसूली करता था । घनानंद का खजाना पूरी तरह भरा था, फिर भी उसके लालच का अंत नहीं था। जब चाणक्य पाटलिपुत्र पहुंचे तो राजा घनानंद के व्यवहार में थोड़ी नरमी आई । वह गरीबों की मदद करने लगा । उसने गरीबों की मदद के लिए एक समिति का गठन किया। इस समिति में विद्वान और समाज के प्रभावशाली लोग शामिल थे। चाणक्य भी क्योंकि तक्षशिला के महान विद्वान थे, इसलिए उन्हें भी इस समिति में शामिल कर लिया गया। बाद में चाणक्य इस समिति के प्रमुख भी बनाए गए। समिति के प्रमुख अक्सर राजा से मिलते रहते थे। इसी क्रम में चाणक्य जब पहली बार धनानंद से मिले तो उनकी कुरूपता के कारण उन्हें अपमान झेलना पड़ा समय के साथ चाणक्य के प्रति घनानंद की घृणा बढ़ती ही गई चाणक्य के कठोर किंतु सत्य शब्द भी धनानंद को चुभते थे। इसी प्रकार धनानंद और चाणक्य के बीच शत्रुता बढ़ती गई। राजा को चाणक्य का या व्यवहार बड़ा अरुचिपूर्ण लगता था । इसलिए एक दिन उसने चाणक्य को उनके पद से अपमान देकर हटा दिया। इस अपमान से चाणक्य तिलमिला उठे और उन्होंने शपथ ली कि वे तब तक अपनी केश नहीं बांधेंगे (जैसे बुद्ध, राम, शिव अपने केश बांधते है ना की ब्राह्मणोकि सीखा वाली चोटी) जब तक कि घनानंद को सिंहासन से ना उखाड़ फेंकेंगे ।
चंद्रगुप्त से भेंट
राजा से अपमानित होकर चाणक्य पाटलिपुत्र की गलियों में दनदनाते हुए आगे बढ़ रहे थे। एका एक काटे ने उनका पैर बैघ दिया वह लड़खड़ाकर तेजी से संभले। विद्वान चाणक्य का परिस्थितियों से निपटने का अपना अलग ही तरीका था। उन्होंने कांटे के उस पौधे को देखा, जिसका कांटा उन्हें लगा था । उस समय क्योंकि वह क्रोध में थे, इसलिए उसे अनियंत्रित नहीं होने देना चाहते थे। इसलिए शांतिपूर्वक चिलचिलाती धूप में बैठ गए और कांटेदार पौधे की जड़ से उखाड़ने लगे। थोड़ी देर बाद जब जड़ सहित पूरा पौधा उखाड़ कर बाहर आ गया तो उसे एक और फेंक कर उन्होंने फिर से अपनी राह पकड़ ली।
चाणक्य कांटेदार पौधे को उखाड़ रहे थे तो उनकी तन्मयता को एक युवक गौर से देख रहा था वह चंद्रगुप्त था— मौर्य साम्राज्य का भावी शासक। उसका चेहरा तेजपूर्ण था । चाणक्य की दृढ़ता देखकर वह प्रभावित था और उस ज्ञानी पुरुष से बात करना चाहता था। वह चाणक्य के निकट पहुंचा और उनसे आदरपूर्वक बात करने लगा। चाणक्य ने उसकी परिवारिक प्रश्न करते हुए पूछा तुम कौन हो? कुछ चिंतित दिखाई पड़ते हो? युवक चंद्रगुप्त ने आदरपूर्वक आगे झुकते हुए कहा” श्रीमान आपका अनुमान ठीक है। मैं बहुत मुसीबत में हूं। लेकिन अपनी परेशानी बता कर मैं आपको परेशान नहीं करना चाहता चाणक्य ने उसे दिलासा देते हुए कहा” तुम निसंकोच अपनी परेशानी मुझे बता सकते हो। यदि मेरे बस में हुआ तो मैं तुम्हारी सहायता अवश्य करूंगा।
मैं राजा सर्वार्थसिद्धि का पौत्र हूं। उनकी दो पत्नियां थी— सुनंदा देवी एवं मुरा देवी। सुनंदा के 9 पुत्र हुए, जो नव् नंद कहलाए। मुरा के एक पुत्र था, जो मेरे पिता थे। ईर्ष्या बस नवनंद हम सभी की जान लेने पर तुले हुए थे। किसी तरह से मैं बचा रहा, पर मेरा पूरा जीवन बर्बाद हो गया है। मैं नंद से प्रतिशोध लेना चाहता हूं, जो इस समय देश पर शासन कर रहे हैं; दुश्मन का दुश्मन दोस्त घाव खाए चाणक्य को नंद के विरुद्ध एक साथी मिल गया था। चंद्रगुप्त की कहानी सुनकर चाणक्य को गहरा धक्का लगा। भावना से भर कर उन्होंने प्रतिज्ञा की वे नंद वंश का नाश करके चंद्रगुप्त को उसकी सही जगह पाटलिपुत्र के राज सिंहासन पर आरूढ़ करने तक चैन से नहीं बैठेंगे।
चाणक्य ने कहा” मैं तुम्हें राजपद तक पहुंचाऊंगा, चंद्रगुप्त!
उस दिन से चंद्रगुप्त और चाणक्य क्रूर व अत्याचारी नंद के कुशासन का अंत करने में जुट गए। चंद्रगुप्त के बारे में ठीक ठीक कहीं कुछ नहीं लिखा गया है। जन्म स्थान, पारिवारिक पृष्ठभूमि, और उसके जीवन से जुड़ी अन्य जानकारियां उपलब्ध नहीं है। उसके माता-पिता के बारे में अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग बातें लिखी हुई है। वास्तव में वह मोरिया समुदाय से संबंध थे। इसी के बाद संभवतः उसे ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ नाम दिया गया और उसका राजवंश ‘मौर्य वंश’ के नाम से जाना गया । कहा जाता है कि उसकी माता एक गांव की बेटी थी । उसके पिता पिपतवन नामक जंगली इलाके के थे, जो एक युद्ध के दौरान मारे गए थे। चंद्रगुप्त अपनी माता के साथ पाटलिपुत्र आया था।
सिकंदर का आक्रमण
इतने वर्षों के दौरान चंद्रगुप्त एवं चाणक्य की मैत्री खूब फली-फूली हुई थी और शत्रुओं का सामना करने के लिए उन्होंने एक बड़ी सेना संगठित कर ली थी। इस बीच चाणक्य और चंद्रगुप्त ने कई ऐतिहासिक घटनाएं देखी। दर्शकों तक इंडियन उपमहाद्वीप पर सिकंदर एवं अन्य कई हमलावारों ने आक्रमण किए। कहा जाता है कि चंद्रगुप्त और सिकंदर का आमना-सामना भी हुआ। चंद्रगुप्त के साहस और सख्त रवैया ने सिकंदरपुर को रुष्ट कर दिया था। परिणामस्वरुप सिकंदर ने चंद्रगुप्त को बंदी बना लिया। चाणक्य का प्रशिक्षण चूँकि पूरा हो चुका था, इसलिए चंद्रगुप्त के युद्ध कौशल को परखने के लिए उन्होंने उसे खुला छोड़ दिया था। सिकंदर की युद्ध-नीति का चाणक्य ने गहन अध्ययन किया था। साथ ही वे इंडियन शासकों की कमजोरियों के प्रति भी सचेत था । अपने सेनानायकों की कमजोरी के चलते सिकंदर की ताकत भी घटने लगी थी। सिकंदर के रहते ही निकोसर नामक उसका एक वीर सेनानायक मारा गया। बाद में फिलीप नामक एक अन्य सेनानायक, जिसे दुर्जेय समझा जाता था, उसकी मौत ने सिकंदर को बुरी तरह तोड़ कर रख दिया। बेबीलोन में सिकंदर की मृत्यु के बाद उसकी सभी सेनानायक या तो मारे गए या खदेड़ दिए गए। 321 ई.पू. में सिकंदर के सैन्य अधिकारियों ने उसके साम्राज्य को आपस में बांट लिया। यह तय हुआ कि सिंधु के पूर्व में उनका शासनाधिकार समाप्त हुआ। इस प्रकार उन्होंने स्वयं स्वीकार कर लिया कि इंडिया के उस हिस्से पर अब उनका अधिकार नहीं रहा।
नंद की पराजय
नंद पर आक्रमण से पहले चाणक्य ने एक सुदृढ़ रणनीति तैयार की। चाणक्य ने शुरू में आक्रमण की नीति को शहर के मध्य भाग पर आजमाकर देखा। उन्हें बार-बार पराजय का सामना करना पड़ा । अपनी रणनीति को बदलते हुए चंद्रगुप्त और चाणक्य ने इस बार मगध साम्राज्य की सीमाओं पर आक्रमण किया। लेकिन इस बार भी उन्हें निराशा हाथ लगी। चंद्रगुप्त और चाणक्य ने पिछली गलतियों से सबक लेकर रणनीति में परिवर्तन किया और निकटवर्ती राजा पर्वतक से मैत्री कर ली। उसके योग्य मंत्री, अमात्य राक्षस का सहयोग भी उसके लिए किसी वरदान से कम नहीं था। अमात्य राक्षस एक योग्य और राजा का स्वामीभक्त मंत्री था। चाणक्य एक योजना तैयार करके नंद के खेमे में अपने जासूस छोड़ दिए। थोड़े ही समय के भीतर नंद की कमजोरियां उन पर जाहिर हो गई। दूसरी ओर नंद और अमात्य राक्षस चाणक्य के हमले से बचने की योजना बनाने में जुटे थे।
नंद और चंद्रगुप्त एवं चाणक्य के बीच हुए युद्ध का ब्यौरा उपलब्ध नहीं है, लेकिन वह निश्चय ही एक भीषण और भयावह युद्ध था। उसमें नंद मारा गया। उसके पुत्र और संबंधी भी मारे गए। अमात्य राक्षस भी असहाय हो गया। इस प्रकार चाणक्य ने नंद वंश को उखाड़ फेंका।
चाणक्य की मूल भावना
चाणक्य का प्रतिशोधपूर्ण जीवन व्यक्तियों को प्रतिशोध लेने की भावना को प्रेरित करता है। लेकिन व्यक्तिगत प्रतिशोध अचानक का उद्देश्य नहीं था। वे चाहते थे कि राज्य सुरक्षित रहे, शासन सुचारू ढंग से चले और प्रजा सुख-शांतिपूर्वक रहें। उन्होंने लोगों की संपनता सुनिश्चित करने के लिए दो तरीके अपनाएं। पहला, अमात्य राक्षस को चंद्रगुप्त का मंत्री बना दिया गया; दूसरा, एक पुस्तक लिखी गई, जिसमें राजा के आचार व्यवहार का वर्णन किया गया कि वह शत्रुओं से अपनी और राज्य की रक्षा कैसे करें; कानून-व्यवस्था को कैसे सुनिश्चित करें आदि। चाणक्य का सपना था कि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से इंडिया विश्व में अग्रदूत बने। उनकी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ में उनकी सपनों के इंडिया के दर्शन किए जा सकते हैं। नीतिशास्त्र एवं चाणक्य नीति में उनकी विचारोतेजकता से प्रेरणा ग्रहण की जा सकती है। उनके कुछ विचारों से उनके सामाजिक दृष्टिकोण को समझा जा सकता है—
जनसामान्य की सुख-संपन्नता ही राजा की सुख-संपन्नता है। उनका कल्याणी उसका कल्याण है। राजा को अपने निजी हित या कल्याण के बारे में कभी नहीं सोचना चाहिए, बल्कि अपना सुख अपनी प्रजा के सुख में खोजना चाहिए।
राजा का गुप्त कार्य है निरंतर प्रजा के कल्याण के लिए संघर्षरत रहना। राज्य का प्रशासन सुचारू रखना उसका धर्म है। उसका सबसे बड़ा उपहार है— समान व्यवहार करना। आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था श्रेष्ठ अर्थव्यवस्था है, जो विदेश व्यापार पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। समतावादी समाज हो, जहां सबके लिए समान अवसर हों। चाणक्य के अनुसार, संसाधनों के विकास के लिए प्रभावी भू-व्यवस्था होनी आवश्यक है। शासन के लिए यह आवश्यक है कि वह जिम्मेदारों पर नजर रखें कि वे अधिक भूमि पर कब्जा न करे और भूमि का अनधिकृत इस्तेमाल न करें। राज्य का कानून सबके लिए समान होना चाहिए। नागरिकों की सुरक्षा सरकार के लिए महत्वपूर्ण होनी चाहिए, क्योंकि वही उनकी एकमात्र रक्षक है जो केवल उसकी उदासीनता के कारण ही असुरक्षित हो सकती हैं। चाणक्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे, जो भौतिक आनंद से आत्मिक आनंद को अधिक महत्व देता हो। उनका कहना था कि आंतरिक शक्ति और चारित्रिक का विकास के लिए आत्मिकता विकास आवश्यक है। देश और समाज के आत्मिक विकास की तुलना में भौतिक आनंद और उपलब्धियां हमेशा द्वितीयक हैं।
2200 वर्ष पहले लिखे गए चाणक्य के ये शब्द आज भी हमारा मार्गदर्शन करते हैं। अगर उनकी राजनीति के सिद्धांतों का थोड़ा भी पालन किया जाए तो कोई भी राष्ट्र महान, अग्रदूत और अनुकरणीय बन सकता है।