सोसिओपैथ

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सोसिओपैथ शब्द के वारे में बहुत कम लोग जानते होंगे लेकिन आप की जिंदगी में और आपके आसपास वह हमेशा होते हैं । ऐसे भी होसकता आपके फैमिली मेंबर भी में कोई सोसिओपैथ हो । आपने बहुत सारे चैनल में हिट सीरियल देखी होंगी जैसे “सास भी कभी बहु थी” इत्यादि सोप इसीलिए हिट हो जाते हैं क्यों के मुख्य कलाकार या चरित्र घर में या सगी संबद्ध, दोस्त, या समाज के सोसिओपैथ्स यानी दुष्ट चरित्रोंसे फाइट करके स्थितिओं को ठीक करने की कोशिश करता है । उसमें छल, कपट, चतुराई, शातिरपन, ईर्ष्या, गुस्सा, बेवफ़ाई इत्यादि जैसे इमोशन्स (emotions)  को आकर्षक चरित्रोंसे प्रेजेंट किया जाता है जिससे मुख्य कलाकार अपने विवेकी गुणों के द्वारा स्थतिओं को नर्मालाइज़ या समाधान करने को कोशिश करता है । दरअसल हमारे पूर्वज भी पुराणोंसे, ग्रंथों, महाकाव्यों इत्यादियों से वही चीज या मनोरंजन पाया करते थे जिसमें नैतिक सिक्ष्याकी एक बड़ा पार्ट होता था । रियल टाइम में भी आप कोई भी न्यूज चैनल खोल दो उस में तो सोसिओपैथों का लाइव सीरियल चलता रहता ही है जैसे कोई पोलिटिकल पार्टी का लीडर ही ले लो या बेईमान बिजनेसमैन जो देश का पैसा ले के भाग गया है या देश की पैसा लूट करके सीनाजोरी दिखारहा है इत्यादि इत्यादि ।  आप को सोसिओपैथ्स हर जगह और हर प्रोफेसन्स में मिलजाएँगे । साधुसंत से लेकर, गरीब और धनी कोई ऐसे वर्ग नहीं जहाँ सोसिओपैथ आपको नहीं मिलेंगे । तो दोस्तों चलिए जानते हैं सोसिओपैथ है क्या?

सोसिओपैथ या विवेकबिकृत लोग हमेशा अविवेकी वाले लोग होते हैं । उनकी लंबे समय की अनजान प्रवृत्तियां, जो की बाद में उनकी विकृत विशेषताओं को परिभाषित के तौर विकसित होती है, जब तक कि एक कठोर एपिसोड(घटना) नहीं होता है तब तक पता नहीं चलता ।

अमेरिकन साइकोट्रिक एसोसिएशन के डायग्नोस्टिक एंड स्टैटिस्टिकल मैनुअल के मुताबिक, एक सोसिओपैथ को “बचपन या प्रारंभिक किशोरावस्था में शुरू होने वाले अन्य लोगों के अधिकारों के उल्लंघन, और उल्लंघन के व्यापक पैटर्न” के साथ एक व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है और जो वयस्कता में भी जारी रहता है।

सोसिओपैथिक प्रवृत्तियों में स्वार्थीता, सतही आकर्षण और स्वयं में अत्यधिक गर्व की भावना जैसे कुछ महत्वपूर्ण लक्षण शामिल हैं । हालांकि, इन प्रवृत्तियों के साथ सोसिओपैथ पैदा नहीं होते हैं, वे इन लक्षण को बचपनों से विकसित करते हैं क्योंकि वे अपने बचपन या प्रारंभिक किशोरावस्था में कई पर्यावरणीय कारकों का सामना करते हैं। यद्यपि सोसिओपैथ लक्षणों  की शुरुआत शुरुआती उम्र में होती है, लेकिन ये लंबे समय तक ध्यान नहीं दिया जाता की बच्चा बड़ा हो जाएगा और खुद ही सीखेंगे । कभी-कभी, सोसिओपैथ को साइकोपैथ के रूप में जाना जाता है क्योंकि दोनों मामलों में कम या ज्यादा एक ही तरह की लक्षण या व्यवहार  देखने को मिलते हैं । लेकिन सोसिओपैथ साइकोपैथ नहीं  है । जबकि सोसिओपैथ पर्यावरणीय कारकों के परिणामस्वरूप विकृत लक्षण को पैदा करता है, जब की साइकोपैथ अन्तर्जात विकृतियां से संबधित है ।

बातें सावधानी का

आप इन सोसिओपैथ लक्षणों को अपने अनुचित मित्रों, परिवार और अन्य परिचितों से जोड़ने के लिए प्रेरित हो सकते हैं; हालांकि, केवल एक विशेषज्ञ ही सोसिओपैथ को ठीकसे पहचान और उसकी निदान कर सकता है । इसलिए, किसी भी विशेषज्ञ राय के बिना किसी भी व्यक्ति को सोसिओपैथ के रूप में टैग करना नहीं चाहिए।

एक सोसिओपैथ की लक्षण

सोसिओपैथ का मानना है कि दूसरोंकी जिंदगी को छल, चतुराई या ठगी से छेड़ छाड़ करके बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है । उस दिशा में, वे अपने दुर्भावनापूर्ण विचारों को कामियाब करवाने केलिए दूसरों को विश्वास दिलाने में कोई समय बर्बाद नहीं करते हैं । वे अपने आकर्षक चतुर वर्डप्ले (चालाकी मीठी बातों का जादू) का उपयोग करके ऐसा करते हैं । वे दूसरे व्यक्ति को ऐसे पीड़ित करते हैं जैसे कि वे अपनी योजनाओं का बस एक वस्तु है ।

सोसिओपैथ में सच्ची सामान्य बोध या भावनाएं नहीं होती हैं । वे केवल अपनी भावनाओं का छल या छद्म प्रदर्शन करते हैं । भले ही वे हंसते हैं, रोते हैं, क्रोधित हो जाते हैं और क्षणिक रूप से उदास हो जाते हो; वजह उनके अंतर्निहित कारण है जिस अपनी दुनिया में वह रहते हैं और अपने स्वयं के बनाया सेट ऑफ़ नैतिकता पर चलते हैं । वे अक्सर इस धारणा से अनुसाशित होते हैं कि उनके कार्यों का कोई गलत परिणाम नहीं होता है, और वे किसी के लिए उत्तरदायी नहीं हैं । सच्ची भाव और बोध के अक्षमता के कारण सोसिओपैथ अपने जिम्मेदारीयों की नाकामियावी केलिए दूसरों को आरोपी ठहराते हैं ।

सोसिओपैथयों के पास झूठ बोलने की असीम क्षमता है । यह सब तब शुरू होता है जब वे कुछ छिपाने के लिए झूठ बोलते हैं और फिर झूठ के अपने वेब (जाल) को कवर करने के लिए झूठ बोलते रहते हैं । चूंकि वे सच्ची भाव और बोध से वंचित हैं, इसलिए वे अनिवार्य झूठ के प्रभाव को नहीं समझते हैं । यदि वे झूठ बोलते हुए पकडे जाते हैं, तो सोसिओपैथ विषय बदलने में माहिर होते हैं; वे किसी और को दोष देकर स्थिति से बचाओ करने के विषय में चतुर हैं । वास्तव में, अधिकांश सोसिओपैथ झूठ बोलने में इतने चतुर हैं कि वे झूठ डिटेक्टर परीक्षण भी पास करलेते हैं । यही कारण है कि, अपराधियों जो सोसिओपैथ हैं शायद ही कभी कानून के द्वारा जेलों तक पहुँच पाते हैं ।

एक सोसिओपैथ में ऊपरी उथली भावनाएं होती हैं । ऊपरी भावनाओं (shallow emotions) का अर्थ है दूसरों के प्रति झूठी गर्मजोशी, खुशी, प्रशंसा और प्रेरणा को किसी का गुप्त या परोक्ष उद्देश्यों को पूरा करने के लिए होता है । हालांकि इन लक्षणों से वे भावनात्मक रूप से मजबूत लगते है, लेकिन वे उत्तेजनाहीन (cold) रहते हैं और सामान्य व्यक्ति की तरह भावनाओं को प्रदर्शित नहीं करते हैं । वे दूसरों को अपना काम पूरा करने की वादे करने के लिए जाने जाते हैं । हालांकि, एक बार उनकी काम पूरी होने के बाद, वे लगभग किए गए वादों को पूरा नहीं करते हैं ।

कुछ सोसिओपैथ, कुछ करने या कहने से पहले दो बार सोचने का तर्क उनके दिमाग में गायब होता है । वे एक निश्चित विचार से इतने अभिभूत हो जाते हैं कि वे इसके लिए आवेगपूर्ण प्रतिक्रिया देते हैं । ये क्रियाएं हमेशा धोखाधड़ी, चोरी और झूठ बोलने जैसे एक कुटिल कौशल से प्रेरित होती हैं । वास्तव में, इस क्रियाएं को पूरा करने का उत्साह उन में इतना गहरा होता है कि वे कभी भी परिणामों के बारे में नहीं सोचते हैं कि क्या यह क्रियाएं सही है या गलत है।

एक सोसिओपैथ की किए गए सभी कार्यों में बेहद स्पष्ट प्रकृति उनके परजीवी प्रकृति है । वे लीच की तरह कार्य करते हैं जो दूसरों से अपने फायदे के लिए चिपकते रहते हैं । वे उन लोगों का आपने शिकार करते हैं जो उनके सबसे नज़दीक हैं या जो उन्हें पूरा विश्वास करते हैं । एक बार उनकी योजना सफलतापूर्वक हो जाने के बाद, अगर पकड़ा जाएं वे आसानी से अपनी साजिश से बाहर निकल के दूसरे पर दोष डालते हैं ।

सोसिओपैथ्स में एक बेहद आकर्षक व्यक्तित्व होता है और वे जानते हैं कि अपने सभी कुशल तरीके से कवर करने के लिए इसे पूरी तरह से कैसे उपयोग किया जाए। वे बहुत मनोरंजक, लापरवाह, निस्संदेह और जीवंत हो सकते हैं जब वे बनना चाहते हैं, और यह उन लक्षणों से है जो लोगों को आकर्षित करते हैं । एक बार जब लोग उनसे आकर्षित हो जाते हैं उसके बाद वे उन्हें आसानीसे प्रभावित करते हैं, वे विभिन्न कार्यों के लिए इन ‘दोस्तों’ का उपयोग करते हैं।

सोसिओपैथ्स खुद के बारे में डींग मारने में व्यस्त होते हैं जैसे कल नहीं है । वे दृढ़ता से मानते हैं कि वे जो कर रहे हैं वह बिल्कुल सही है और उनका की गयी  कोई भी काम गलत नहीं हो सकता है । वे अत्यधिक आत्मविश्वास वाले होते हैं और इससे उन्हें जीवन, विवाह, पैसे कमाने और सामान्य जीवन के बारे में बेहद निराशाजनक और अवास्तविक योजनाएं मिलती हैं । सोसिओपैथ्स को यह समझने में कठिनाइ होता है कि उनके आसपास के लोग उनके खिलाफ क्यों हैं।

चाहे वह एक हत्या, लूट, झूठ, या कोई अन्य आपराधिक कृत्य है, सोसिओपैथ्स को ये सब अपराध नहीं लगता है । वे अपने आप की एक अनौपचारिक दुनिया में रहते हैं जहां वे कभी दूसरों के साथ सहानुभूति नहीं दे सकते हैं और न ही वे दूसरों को दोष देने के लिए अपराध महसूस करते हैं । वे बुनियादी झूठे होने के लिए जाने जाते हैं और वे उस  हद तक झूठ बोलते हैं जहां अपराध को छुपाने केलिए वे स्व-निर्मित वास्तविकता बना डालते है । वे अक्सर ये मानते हैं कि दूसरे व्यक्ति को दिए गए दर्द उनके पाने का लायक है । कई आपराधिक सोसिओपैथ्स को अक्सर उनके अपराध पकड़े जाने पे इस तरह के स्पष्टीकरण देने को देखा जाता है।

अन्य सामान्य लक्षण

1 । प्रारंभिक व्यवहार की समस्याएं जिन्हें किशोर अपराध के रूप में जाना जाता है।

2 । निंदा, बदनामी, अपवाद, अपमानवचन, अफवाह के अपराध में शामिल होना।

3 । विचित्र व्यवहार और बेवफाई का प्रदर्शन, अक्सर प्यार के अक्षम होने के रूप में टैग किया जाता है।

4 । एक उद्यमी आपराधिक मानसिकता होने का सोच ।

5 । सत्तावादी, प्रभुत्ववादी और गुप्त होना ।

6 । तुच्छ लक्ष्य-निर्धारण प्रवृत्तियों को दिखाना – जैसे पीड़ितों को दास बनाना ।

एक सोसिओपैथ्स से निपटना कई स्तरों पर बहुत मुश्किल हो सकता है । सबसे पहले, किसी व्यक्ति में सोसिओपैथिक प्रवृत्तियों को पहचानने में काफी समय लगता है, जिसकेलिए  विक्टिम को उसकी पहचान से पहले ही पीड़ा के विभिन्न स्तरों से गुजरना पड़ता है । दूसरा, इस विकार के लिए उपचार लगभग असंभव है क्योंकि एक सोसिओपैथ विश्वास नहीं करता कि उसे कोई समस्या है । क्योंकि उनके पास कोई विवेक नहीं होता इसलिए वह सही और गलत के बीच का अंतर नहीं समझता है और न ही वह अपने कार्यों के परिणामों की परवाह करता है । क्यों के वे पैथोलोजिकल झूठे होते  है; उनके उपचार सत्रों के दौरान वह झूठ बोल के ठीक होने का छल कर सकते हैं और ये अहसास दिला सकते हैं की वह ठीक हो गये हैं इसलिए उनकी उपचार काफी हद तक व्यर्थ और कठिनाई प्रदान करता है इसलिए उनके सुधार की उपेक्ष्या की गणना कभी भी नहीं की जा सकती है । इसलिए इस बात पर सहमति हुई है कि सोसिओपैथ्स से निपटने का सबसे प्रभावी तरीका उनसे दूर रहना है या उनको अपने से दूर करदेना है जो किसी भी तरह से संभव है।

अस्वीकरण (Disclaimer)

यह मनोविज्ञान लेख केवल जानकारीपूर्ण उद्देश्यों के लिए है और एक विशेषज्ञ द्वारा प्रदान किए गए उपचार के निदान को प्रतिस्थापित करने का इरादा नहीं रखता है।

कृपया ध्यान दें:

हमारे विशाल भूखंड की ही कुछ स्वार्थीवादी असामाजिक संकीर्ण सोच के शातिर बुद्धिजीवियों ने इस भूखंड को  सोसिओपैथ वर्ग(ruling caste/upper caste/sabarn/dwija) और पीड़ित वर्ग (slaves/shudra/working class/labor class/ekaja/asabarn) में तोड़ा जिसके वजह से इस भूखंड का हर भाषीय सभ्यता ये दो वर्ग में बंट गए। ये वर्ग रिग वेद की पुरुष सूक्त १०.९० है जिसको वर्ण व्यवस्था कहते हैं।  इस वर्ण व्यवस्था के कारण सोसिओपैथको उच्च वर्ण या उच्च वर्ग के रूप में अप लिफ्ट किया गया और पीड़ितों को गुलाम यानी शूद्र वर्ग में हमेशा सोसिओपैथ के द्वार उत्पीड़ित कियागया । हालाँकि ये सोच इंडिया को छोड़ के आप को कहीं और नहीं मिलेगा । यहाँ की लोग सदियों इतनी तर्क अंध से ग्रसित रहे की कभी वर्ण व्यवस्था क्या है? कौन पैदा किया? क्यों पैदा किया, किसने इम्प्लीमेंट किया, कैसे इम्प्लीमेंट किया और क्यों इम्प्लीमेंट किया कभी जानने की कोशिश नहीं की । वर्ण व्यवस्था कैसे पैदा हुआ अगर आप जान लें अगर आपकी दिमाग सही काम करता हो तो उसी समय ही इस व्यवस्था के ऊपर थूकेंगे । और ताज्जुब की बात ये है की कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति आज तक इसकी खोज और इसकी सामाजिक हानि और अनुगामियों की मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल क्यों नहीं किया? आपको जानकर बहुत ही दुख होगा आपकी वर्ण व्यवस्था एक सामाजिक बुराई के साथ साथ एक अंधविश्वास और मानसिक विकृति है । आप को ये पता होना जरूरी है की वर्ण व्यवस्था पीढ़ी-गत सोसिओपैथ (soft, moderate and orthodox) पैदा करता है और इस सोच के साथ ही मानसिक विकृतियां एक पिढीसे दूसरे पीढी तक सोच के माध्यमसे हस्तांतरण (transfer) होता है। बस कोई सामाजिक पहचान की प्रमाणपत्र दिया और बिना सोच समझ के उस प्रमाण पत्र को बिना जाँच किये अपना ली; ये मूर्खता और अज्ञानता नहीं है तो क्या है? आप को जानके ये दुःख जरूर होगा की ये सोच इस भूखंड के ज्यादातर मूलनिवासियों के ऊपर जबरदस्ती थोपा गया है ना कि लोग इस सोच को अपने मर्जी से अपनाया है । बिना मर्जी का कोई भी सोच दूसरों के ऊपर थोपना एक अपराध है ना कि धर्म । अगर हम हमारा देश को समृद्ध देखना चाहते हैं तो पहले जो सामाजिक और मानसिक विकृतियां या गंदगी है उसकी सफाई पहले करनी होगी । हमारे विशाल भूखंड की ही कुछ स्वार्थीवादी असामाजिक संकीर्ण सोच के शातिर बुद्धिजीवियों ने खुद की सामूहिक और संगठित वर्ग की लाभ की लोभ से भूखंड के आज की मुलमिवासियों के पूर्वजों को जो की अब १०० करोड़ से भी ज्यादा वैदिक अनुगामियों (हिन्दू) के जिंदगी और मन के साथ खेला और उनके अनुगामियों और उनके नस्लों को मानसिक विकृत्तिया धर्म के नाम पे दी और अपने ही लोगों को अपने स्वार्थ के ख़ातिर बाँट डाला । अगर आप वर्ण कैसे पैदा हुए नहीं जानते तो ये आज जान लें और अपनी तार्किक सोच को खोले । अगर आप सही माने में इंसान होंगे तो आपको हिन्दू होने में गर्व नहीं शर्म महसूस होगी क्योंकि पुरुष सूक्त ज्ञान की नहीं मूर्खता और अज्ञानता की परिभाषा है ।  इस वर्ण व्यवस्था को धर्म और ज्ञान के नाम से फैलाने वाले हर व्यक्ति असामाजिक और अपराधी है । पुरुष शुक्त ना केवल अंधविश्वास है बल्कि हर मानवीय अधिकार की उल्लंघन भी करता है ।

जातिवाद यानी वर्ण व्यवस्था संस्कृत भाषी रचनाओं में मिलता है इसका मतलब ये हुआ जो गैर संस्कृत बोली वाले है उनके ऊपर ये सोच यानी वर्ण व्यवस्था थोपी गयी है ।  रिग वेद की पुरुष शुक्त १०.९० जो वर्ण व्यवस्था का डेफिनेशन है उस को कैसे आज की नस्ल विश्वास करते हैं ये तर्क से बहार हैं? शायद आज की पीढ़ी भी मॉडर्न अंधविश्वासी हैं । पुरुष सूक्त बोलता है: एक प्राचीन विशाल व्यक्ति था जो पुरुष ही था ना की नारी और जिसका एक हजार सिर और एक हजार पैर था, जिसे देवताओं (पुरूषमेध यानी पुरुष की बलि) के द्वारा बलिदान किया गया और वली के बाद उसकी बॉडी पार्ट्स से ही  विश्व और वर्ण (जाति) का निर्माण हुआ है और जिससे दुनिया बन गई । पुरूष के वली से, वैदिक मंत्र निकले । घोड़ों और गायों का जन्म हुआ, ब्राह्मण पुरूष के मुंह से पैदा हुए, क्षत्रियों उसकी बाहों से, वैश्य उसकी जांघों से, और शूद्र उसकी पैरों से पैदा हुए । चंद्रमा उसकी आत्मा से पैदा हुआ था, उसकी आँखों से सूर्य, उसकी खोपड़ी से आकाश ।  इंद्र और अग्नि उसके मुंह से उभरे । ये उपद्रवी वैदिक प्रचारकों को क्या इतना साधारण ज्ञान नहीं है की कोई भी मनुष्य श्रेणी पुरुष की मुख, भुजाओं, जांघ और पैर से उत्पन्न नहीं हो सकती? क्या कोई कभी बिना जैविक पद्धति से पैदा हुआ है? मुख से क्या इंसान पैदा हो सकते है? ये कैसा मूर्खता है और इस मूर्खता को ज्ञान की चोला क्यों सदियों धर्म के नाम पर पहनाया गया और फैलाया गया? ये क्या मूर्ख सोच का गुंडा गर्दी नहीं है?

इंसानों का इंसान होना क्या काफी नहीं है जो उनको किसी दूसरे की सोच का सर्टिफिकेट चाहिए? इंसानों की अशांत मन और अज्ञानता केलिए अंधविश्वास की सहारे की क्या जरूरत? हम विज्ञान, तर्क और सत्य का सहारा भी तो ले सकते हैं? नैतिकता के लिए हम को अंधविश्वास धर्म की छतरी के नीचे बैठनेकी क्या जरूरत? हम तार्किक या वैज्ञानिक नैतिकता सत्य, तर्क और विज्ञान से भी तो पा सकते हैं।  किसी संकीर्ण सोचवालों इंसानों का बनाया सामाजिक और धार्मिक पहचान सर्टिफिकेट की क्या जरूरत? जो मानवता को अपने झुण्ड यानी अपने ही बनाया हुआ भीड़ तक सीमित रखना चाहते हैं और उस भीड़ को धर्म कहते हैं; हर किसी को उस भीड़ में शामिल होने का जरूरत ही क्या है? जो जिस भीड़ में पैदा हुआ उस इंसान की नाम करण उसकी भीड़ के नाम से हो गया । एक इंसान को किसी दूसरे की सोच की पहचान जैसे ईसाई इंसान, इसलामी इंसान और हिन्दू इंसान की ब्रांड की जरूरत ही क्या है? क्या इंसानों को किसी भगवान की सोच के ऊपर आधारित सामाजिक पहचान की ब्रांड की जरूरत है? क्या ये एक तरह की मानसिक विचलन नहीं है? इन बुराई सोचों को दूर करना क्या हम सबकी जिम्मेदारी नहीं? अगर देश की सोच साफ़ और सुस्त होगी तब तो देश समृद्ध और विकासशील होगा ।

धर्म का अर्थ सत कर्म है; अच्छा सोचो, सत्कर्म करो उसकेलिये किसी धर्म की छतरी के नीचे बैठनेकी जरूरत क्या है? धर्म पुराने ज़माने में एक पोलिटिकल पार्टी का जैसे काम करता था जिससे एक कम्यून को अपना राइट्स और जस्टिस के साथ साथ जीने का का कला मिलता था । अब तो फ्रीडम ऑफ़ लाइफ है आप आजाद से अपनी हिसाब से जी सकते हो क्योंकि अब हमारा देश डैमोक्रेटिक है न इस्लामिक स्टेट है न हिन्दू स्टेट और यहाँ पोलिटिकल पार्टियाँ ही देश को मैनेज करते हैं ना कोई धर्म फैलाने वाला राजा; तो धर्म की लड़ाई क्यों? अगर रूढ़िवादी पोलटिकल पार्टियाँ पसंद नहीं तो हम सत्ता बदल सकते है । एक नई पोलिटिकल पार्टी बना के उससे अपना देश को समृद्ध कर सकते हैं उसकेलिये नई सोच की आवश्यकता है न की पुराने यूग के रूढ़िवादी संकीर्ण सोच की । वैसे तो देश में २००० से ज्यादा रजिस्टर्ड पोलिटिकल पार्टियां है; बात पोलटिकल पार्टियों से से ज्यादा पोलटिकल पार्टियों के सोच की और उनके पॉलिटीशन्स की नियत की है । हमरादेश में ज्यादा पोलिटिकल पार्टियां बनने से अच्छा पोलिटिकल रेफोर्मेसन (Reformation) की ज्यादा ज़रुरत है ।  उनके नीति से ज्यादा उनके नियत साफ़ होना ज्यादा जरूरी है । ऐसे लगता है आज की प्रमुख पोलिटिकल पार्टियां सोसिओपैथ्स की झुण्ड है जो अपनी संगठित लाभ केलिए काम करते हैं; जो देश केलिए कम अपने केलिए ज्यादा सोचते हैं । ऐसा नहीं की हर पोलरिटीशन बेईमान और सोसिओपैथ है जबकि ज्यादातर प्रमुख पोलिटिकल पार्टियां  प्रमुख सोसिओपैथ्स से ही संचालित होता है और अच्छे पोलरिटीशन उनके गुलाम यानी दास होते हैं जहाँ कुछ अच्छे करने का आजादी की दम घूंट दिया जाता है और अपने पार्टी के स्वार्थ को ज्यादा इम्पोर्टेंस दियाजाता है । रूढ़िवादी या सांप्रदायिक या अतिवादी  पोलिटिकल पार्टियां  अपने सोच भी बदल सकते है लेकिन जो ज्यादातर होता नहीं है । हर पोल्टीसिअन हमारे देश का मानव संसाधन होते हैं कोई एक पोलिटिकल पार्टी का दास नहीं जो उनकी कुत्ते के जैसे नमक हलाली करें । अगर ऐसे पोलटिकल पार्टियां है जिनको बस अपनी पोलिटिकल पार्टी का ज्यादा फ़िक्र है देश की नहीं वह कुत्ता पाललें पोल्टीसिअन्स नहीं ।  अगर पोलटिकल पार्टियों का प्रोटोकॉल और मोटिव गलत हो या वह उसमें सहज या गड़बड़ी महसूस करें व उससे छोड़ जो अच्छी पार्टी है उसमें जा सकते हैं या सब अच्छे पॉलिटिसिअन्स मिल के एक नइ सोच की पोलिटिकल पार्टी भी बनासकते हैं जो देश का सोचता हो अपने संगठित स्वार्थ की नहीं; ये जरूरी नहीं अगर कोई कल देश चलाता था वही सही है और उसकी हाथ में ही देश की डोर रहेगी । पार्टियों का सोच टाइम के साथ बदलना या गलत पार्टियों के विरुद्ध यानी उनके विरोध में अच्छी पार्टियां बनना एक अच्छे गणतंत्र की निशानी है । अक्सर हमको बुरा या ज्यादा बुरा और कम बुरा से एक को अपना देश की मुखिया चुनना पड़ता है; जिसको हमको बदलना होगा । देश की पोलटिक्स को उस लेवल तक लेना होगा जहाँ पर विकल्प (choice) अच्छा और उससे ज्यादा अच्छा से हम को अपना देश की मैनेजर चुनना पड़े । गणतंत्र ही हमारा बल है उसे हमें हर हाल में बचाया रखने की जरूरत है । अगर उसको बचानेकेलिए हमें हिंसा की सहारा लेने पड़े उससे पीछे हटना गलत ही होगा । क्यों की जैसे अपने जीवन का रक्षा करना एक प्राकृतिक अधिकार है वैसे ही गणतंत्र की रक्षा करना हमारा सामूहिक सामाजिक अधिकार है क्यों की गणतंत्र ही हमारा देश की जीवन है ।

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क्रमरहित सूची

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