व्यवहार के बारे में – माओ त्से–तुङ, जुलाई 1937

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यह दार्शनिक निबंध कामरेड माओ त्से–तुङ ने “व्यवहार के बारे में” शीर्षक अपने निबंध के बाद लिखा था, और उक्त निबंध के ही समान इस निबंध का उद्देश्य भी उन गंभीर कठमुल्लावादी विचारों को दूर करना था जो उस समय पार्टी में मौजूद थे। यह सबसे पहले येनान में जापान–विरोधी सैनिक व राजनीतिक कालेज में भाषण के रूप में प्रस्तुत किया गया था। संकलित रचनाओं में शामिल करते समय लेखक ने इसमें कुछ जोड़ा, घटाया और संशोधन किया है।

वस्तुओं में अंतरविरोध का नियम, यानी विपरीत तत्वों की एकता का नियम, भौतिकवादी द्वन्द्ववाद का सबसे बुनियादी नियम है। लेनिन ने कहा था : “वास्तविक अर्थ में, पदार्थों की मूलवस्तु में निहित अंतरविरोध का अध्ययन  ही द्वन्द्ववाद है।”[1] लेनिन प्राय: इस नियम को द्वन्द्ववाद की मूलवस्तु बतलाते थे; उन्होंने  इसे द्वन्द्ववाद का केंद्र–भाग भी कहा है।[2] इसलिए इस नियम का अध्ययन करते समय, यह लाजमी है कि हम अनेक विषयों की, दर्शन की बहुत सी समस्याओं की चर्चा करें। यदि हम इन सारी समस्याओं को स्पष्ट रूप से समझ सकेंगे, तो भौतिकवादी द्वन्द्ववाद के बारे में हम एक बुनियादी समझ प्राप्त कर लेंगे। ये समस्याएं हैं : दो विश्व–दृष्टिकोण; अंतरविरोध की सार्वभौमिकता; अंतरविरोध की विशिष्टता; प्रधान अंतरविरोध और अंतरविरोध का प्रधान पहलू; अंतरविरोध के पहलुओं की एकरूपता और उनका संघर्ष; तथा अंतरविरोध में शत्रुता का स्थान ।

हाल के वर्षों में सोवियत संघ के दार्शनिक क्षेत्रों में देबोरिनपंथी आदर्शवाद की जो आलोचना हुई है, उसने हम लोगों में गहरी दिलचस्पी  पैदा कर दी है। देबोरिन के आदर्शवाद ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी पर बहुत बुरा प्रभाव डाला है, और यह नहीं कहा जा सकता कि हमारी पार्टी  में कठमुल्लावादी विचार का इस पंथ  की विचार पद्धति के साथ संबंध न रहा हो। इसलिए हमारे वर्तमान दार्शनिक अध्ययन का मुख्य उद्देश्य कठमुल्लावादी विचार को दूर करना ही होना  चाहिए।

  1. दो विश्व–दृष्टिकोण

मानव–ज्ञान के इतिहास में विश्व के विकास के नियमों के बारे में हमेशा दो धारणाएं रही हैं, अध्यात्मवादी धारणा और द्वन्द्ववादी धारणा, जिनसे दो परस्पर–विरोधी विश्व–दृष्टिकोण बन जाते हैं। लेनिन ने कहा था :

विकास (क्रमिक विकास) की दो मूल (अथवा दो संभव ? या दो इतिहास में प्रदर्शित ?) धारणाएं हैं : घटती या बढ़ती के रूप में, पुनरावृत्ति के रूप में विकास को देखना, और विपरीत तत्वों की एकता के रूप में विकास को देखना (किसी इकाई का एक दूसरे को बहिष्कृत करने वाले विपरीत तत्वों में विभाजन और उनका पारस्परिक संबंध)।[3]

लेनिन यहां पर इन्हीं दो भिन्न विश्व–दृष्टिकोणों का उल्लेख कर रहे थे।

चीन में अध्यात्मवाद का एक अन्य नाम है “श्वेन–श्वे”। चाहे चीन में हो अथवा यूरोप में, इतिहास के एक काफी लंबे काल तक, यह विचारधारा आदर्शवादी विश्व–दृष्टिकोण का ही एक अंग थी और मानव–चिंतन में एक प्रभुत्वशाली स्थान पर आसीन रही। यूरोप में, पूंजीपति वर्ग के शैशव काल का भौतिकवाद भी अध्यात्मिक ही था। जब अनेक यूरोपीय देशों में सामाजिक अर्थव्यवस्था अत्यंत विकसित पूंजीवाद की मंजिल पर पहुंच गई, जब उत्पादक शक्तियां, वर्ग–संघर्ष और विज्ञान इतिहास में एक अभूतपूर्व स्तर तक विकसित हो गए, और जब औद्योगिक सर्वहारा वर्ग ऐतिहासिक विकास में सबसे महान प्रेरक शक्ति बन गया, तब मार्क्सवाद के भौतिकवादी द्वन्द्ववाद के विश्व–दृष्टिकोण का उदय हुआ। तब भौतिकवादी द्वन्द्ववाद का विरोध करने के लिए, पूंजीपति वर्ग के बीच एक खुले रूप में प्रतिपादित, अत्यंत नग्न प्रतिक्रियावादी आदर्शवाद के अलावा भोंड़े विकासवाद का भी उदय हुआ।

अध्यात्मवादी विश्व–दृष्टिकोण या भोंड़े विकासवाद का विश्व–दृष्टिकोण वस्तुओं को एक अलग–थलग, स्थिर और एकांगी दृष्टि से देखता है। यह दृष्टिकोण विश्व की तमाम वस्तुओं, उनके रूपों तथा उनकी किस्मों को हमेशा के लिए एक दूसरे से अलग तथा अपरिवर्तनीय मानता है। यदि कोई परिवर्तन हो, तो उसका अर्थ केवल परिमाण में घटती या बढ़ती, अथवा स्थानांतरण है। इसके अलावा, ऐसी घटती या बढ़ती, अथवा स्थानांतरण का कारण वस्तुओं के अंदर नहीं, वरन उनके बाहर रहता है, अर्थात बाह्य शक्तियां ही उन्हें प्रेरित करती हैं। अध्यात्मवादियों का मत है कि विश्व में विभिन्न प्रकार की सभी वस्तुओं तथा उनकी विशिष्टताओं में, उनके अस्तित्व में आने के समय से कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। बाद में यदि कोई परिवर्तन हुआ है, तो वह केवल परिमाण में बढ़ती या घटती ही है। उनका यह दावा है कि कोई वस्तु हमेशा केवल खुद उसी वस्तु के रूप में बार–बार प्रजनित हो सकती है और किसी भिन्न वस्तु में नहीं बदल सकती। उनकी दृष्टि में पूँजीवादी शोषण, पूंजीवादी होड़, पूंजीवादी समाज की व्यक्तिवादी विचारधारा, आदि तमाम बातें प्राचीन काल के दास समाज में, यहां तक कि आदिम समाज में भी पाई जा सकती हैं, और बिना किसी परिवर्तन के हमेशा ही बनी रहेंगी। सामाजिक विकास के कारणों को वे समाज के बाहर की परिस्थितियों में, जैसे भूगोल और जलवायु में, ढूंढ़ते हैं। वे अत्यंत सरल ढंग से वस्तुओं के विकास के कारणों को वस्तुओं के बाहर ढूंढ़ते हैं और भौतिकवादी द्वन्द्ववाद द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धांत को ठुकरा देते हैं कि वस्तुओं के भीतर विद्यमान अंतरविरोध ही उनके विकास का कारण है। परिणामस्वरूप वे न तो वस्तुओं की गुणात्मक विविधता की व्याख्या कर पाते हैं और न ही एक गुण के दूसरे गुण में परिवर्तन की घटना की। यूरोप में, चिंतन की यह प्रणाली यांत्रिक भौतिकवाद के रूप में सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में और भोंड़े विकासवाद के रूप में उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तथा बीसवीं शताब्दी के शुरू में मौजूद थी। चीन में, अध्यात्मवादी चिंतनधारा की मिसाल इस उक्ति में देखने को मिलती है : “व्योम नहीं बदलता, इसी तरह ताओ भी नहीं बदलता”[4]। यह चिंतनधारा लंबे अरसे तक पतनोन्मुख सामंती शासक वर्ग का प्रश्रय पाती रही। गत सौ वर्षों में यूरोप से चीन में लाए गए इस यांत्रिक भौतिकवाद तथा भोंड़े विकासवाद को चीनी पूँजीपति वर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ है।

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