समाजवाद क्यों? – अल्बर्ट आइंस्टाइन (1949)

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कुछ समय से असंख्य आवाजें जोर देकर कह रही हैं कि मानव समाज एक संकट से गुजर रहा है, यह कि उस की स्थिरता गंभीर रूप से बिखर गई है। इस प्रकार की स्थिति की यह विशेषता है कि लोग व्यक्तिगत स्तर पर उस समूह, छोटा या बड़ा, के प्रति उदासीन या शत्रुतापूर्ण भाव रखते हैं जिस से उन का संबंध होता है। अपने अर्थ का वर्णन करने के लिए, मुझे यहाँ एक व्यक्तिगत अनुभव रिकॉर्ड करने दें। मैं ने हाल ही में एक बुद्धिमान और दोस्ताना व्यवहार रखने वाले आदमी के साथ एक और युद्ध के खतरे पर चर्चा की, जो मेरी राय में गंभीर रूप से मानव जाति का अस्तित्व खतरे में डाल दे गी, और मैं ने टिप्पणी की कि एक पूर्व-राष्ट्रीय संगठन उस खतरे से सुरक्षा प्रदान करेगा। उस पर मुझ से मिलने वाले ने, बहुत शांति और ठंडे दिमाग से, मुझ से कहा: “तुम मानव जाति के लापता होने के इतना ज्यादा विरुद्ध क्यों हो?”

मुझे यकीन है कि केवल एक सदी पहले ही किसी ने भी इतने हल्के ढंग से इस तरह का कोई बयान नहीं दिया होता। यह एक ऐसे व्यक्ति का बयान है जिस ने खुद के भीतर एक संतुलन प्राप्त करने के लिए व्यर्थ में कड़ी मेहनत की है और सफलता पाने की आशा करीब करीब खो चुका है। यह एक ऐसी दर्द भरे एकांत और अलगाव का कथन है जिस से बहुत सारे लोग पीड़ित हैं। कारण क्या है? क्या इस से बाहर निकलने का कोई रास्ता है? इस प्रकार के सवाल उठाना आसान है, परन्तु कुछ आश्वासन के साथ उन का उत्तर देना मुश्किल है। मुझे, फिर भी, जितनी अच्छी तरह मैं कर सकता हूँ, कोशिश अवश्य करनी चाहिए, हालांकि मैं इस तथ्य के बारे में बहुत सचेत हूं कि हमारी भावनाऐं और हमारे संघर्ष अक्सर विरोधाभासी और अस्पष्ट होते हैं और यह कि उन्हें आसान और सरल विधियों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है।

मनुष्य, एक ही और उसी समय, एक अकेला और एक सामाजिक जीव है। एक अकेला जीव होने के रूप में, वह, अपनी निजी इच्छाओं को पूरा करने और अपने जन्मजात क्षमताओं को विकसित करने के लिए, स्वयं अपना और अपने से करीब लोगों के अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रयास करता है। एक सामाजिक जीव के रूप में, वह अपने साथी मनुष्यों के सुखों में साझा करने, उन्हें उन के दुखों में दिलासा देने, और उनके जीवन की स्थितियों में सुधार लाने के लिए, उन की मान्यता और स्नेह हासिल करना चाहता है। एक मनुष्य के विशेष चरित्र के इन विविध, अक्सर परस्पर विरोधी, संघर्ष करने वाले वर्णनों का केवल अस्तित्व, और उनके विशिष्ट संयोजन ही उस हद को निर्धारित करते हैं कि जिस तक कोई एक व्यक्ति एक आंतरिक संतुलन को हासिल कर सकता और समाज की भलाई के लिए योगदान कर सकता है।

यह बिल्कुल संभव है कि इन दो कर्मशक्तियों की सापेक्ष शक्ति, मुख्य रूप से, विरासत द्धारा तै कि जाती है। लेकिन अंत में उभर कर सामने आने वाली व्यक्तित्व का गठन काफी हद तक उस पर्यावरण जिस में कोई आदमी अपने विकास के दौरान स्वयं को पाता है, समाज के उस ढांचे जिस में वह बढ़ता है, विषेस प्रकार के आचरणों के उस समाज के मूल्यांकन द्धारा किया जाता है।

“समाज” के काल्पनिक मनोभाव का अर्थ व्यक्तिगत आदमियों के लिए अपने समकालीनों और पहली पीढ़ियों के सभी लोगों से उस के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संबंधों का कुल जोड़ है। व्यक्तिगत आदमी सोचने, महसूस करने, प्रयास करने और खुद से काम करने में सक्षम है; लेकिन वह समाज पर इतना ज्यादा निर्भर करता है – अपने शारीरिक, बौद्धिक और भावनात्मक अस्तित्व में – कि समाज के ढांचे के बाहर उसके बारे में सोचना, या उसे समझना असंभव है। यह समाज है जो मनुष्य को भोजन, कपड़े, एक घर, काम के उपकरण, भाषा, विचार के रूप, और सोच की अधिकांश सामग्री प्रदान करता है; उस का जीवन श्रम और उन कई लाख लोगों की अतीत और वर्तमान के माध्यम से संभव बनाया जाता है जो सारे के सारे “समाज” के छोटे से शब्द के पीछे छिपे हैं।

यह, इसलिए, स्पष्ट है कि व्यक्ति की समाज पर निर्भरता प्रकृति का एक तथ्य है जिसे समाप्त नहीं किया जा सकता है-ठीक उसी प्रकार जैसे कि चींटियों और मधुमक्खियों के मामले में है। फिर भी, चींटियों और मधुमक्खियों की पूरी जीवन प्रक्रिया छोटी सी छोटी बातों में कठोर, परंपरागत प्रवृत्ति द्धारा तै होती है, मनुष्य के सामाजिक पैटर्न और उस के अंतर्संबंध बहुत बदलने वाले और बदलाव के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं। याददाशत, नए संयोजन बनाने की क्षमता, मौखिक संचार के उपहार ने इंसान के बीच उन गतिविधियों को संभव बना दिया है जो जैविक आवश्यकताओं से निर्धारण नहीं की जाती हैं। इस प्रकार की गतिविधियां स्वयं को परंपराओं, संस्थाओं, और संगठनों; साहित्य; वैज्ञानिक और इंजीनियरिंग उपलब्धियों; कला के कामों में जाहिर करती हैं।

यह इस बात की व्याख्या करता है कि यह होता कैसै है कि, कुछ खास मामलों में, मनुष्य अपने जीवन को अपने खुद के आचरण से प्रभावित करता है, और यह कि इस प्रक्रिया में जाग्रुक सोच और चाहत एक भूमिका निभा सकते हैं।

मनुष्य जन्म के समय, आनुवंशिकता के माध्यम से, उन प्राकृतिक आग्रहों सहित जो मानव प्रजाति की विशेषताऐं हैं, एक जैविक संविधान प्राप्त करता है जिसे हम को अवश्य रूप से निश्चित और अटल मानना चाहिए। इसके अलावा, अपने जीवनकाल के दौरान, वह एक सांस्कृतिक संविधान प्राप्त करता है जिस को वह समाज से संचार और कई अन्य प्रकार के प्रभावों के माध्यम से अपनाता है।

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