‘उजरती श्रम और पूँजी’ की भूमिका – फ्रेडरिक एंगेल्स (1847)

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आज हम पूँजीवादी उत्पादन के आधिपत्य में रहते हैं, जिसमें आबादी का एक बड़ा और संख्या में दिनोंदिन बढ़नेवाला वर्ग ऐसा है, जो केवल उसी हालत में ज़िन्दा रह सकता है, जबकि वह उत्पादन के साधनों–यानी औज़ारों, मशीनों, कच्चे माल और जीवन-निर्वाह के साधनों–के मालिकों के लिए मज़दूरी के बदले काम करे। उत्पादन की इस प्रणाली के आधार पर मज़दूर के उत्पादन का ख़र्च जीवन-निर्वाह के साधनों की उस मात्रा के बराबर–या रुपये-पैसे की शक्ल में इन साधनों के दाम के बराबर–होता है, जो मज़दूर को काम करने योग्य बनाने, उसे काम के योग्य बनाये रखने और जब वह बुढ़ापे, बीमारी या मौत के कारण कार्यक्षेत्र से हट जाये, तो उसकी ख़ाली जगह को एक नये मज़दूर से भरने के लिए, अर्थात मज़दूर वर्ग की आवश्यक रूप में वंश-वृद्धि करने के लिए ज़रूरी है। मान लीजिये कि जीवन-निर्वाह के इन साधनों का नक़द दाम औसतन तीन मार्क प्रतिदिन है।

इस प्रकार, हमारे मज़दूर को उस पूँजीपति से, जो उसे काम पर लगाता है, तीन मार्क रोज़ाना की मज़दूरी मिलती है। उसके बदले में पूँजीपति मज़दूर से, मान लीजिये, बारह घण्टे रोज़ काम लेता है और मोटे तौर पर इस तरह हिसाब लगाता है: मान लीजिये कि हमारा मज़दूर एक मिस्त्री है। उसका काम मशीन का एक पुर्ज़ा तैयार करना है, जिसे वह एक दिन में पूरा कर सकता है। इसके लिए कच्चे माल पर–लोहे और पीतल पर, जो पहले से ज़रूरी शक्ल में तैयार कर लिये गये हैं–बीस मार्क की लागत आती है। भाप से चलनेवाले इंजन में जितना कोयला ख़र्च होता है, उसका और इस इंजन में, लेथ में और उन औज़ारों में, जिनको हमारा मज़दूर इस्तेमाल करता है, जितनी घिसाई होती है उसका एक दिन में एक मज़दूर के हिसाब में जो हिस्सा आता है, सब की लागत, मान लीजिये, एक मार्क है। उधर हमने मज़दूर की एक दिन की मज़दूरी तीन मार्क मानी है। इस तरह कुल जोड़ कर हमारे उस मशीन के पुर्ज़े को तैयार करने में चौबीस मार्क लगते हैं। परन्तु पूँजीपति हिसाब लगाता है कि उसे इस पुर्जेके बदले में ख़रीदार से औसतन सत्ताईस मार्क, यानी उसकी लागत से तीन मार्क ज़्यादा मिलेंगे।

ये तीन मार्क, जो पूँजीपति की जेब में चले जाते हैं, कहाँ से आते हैं? क्लासिकीय अर्थशास्त्र का दावा है कि माल औसतन अपने मूल्य पर, अर्थात उस दाम पर बिकता है, जो उसमें लगे श्रम के आवश्यक परिमाण के अनुरूप है। इस तरह, हमारे मशीन के पुर्जे का औसत दाम–जो सत्ताईस मार्क है–उसके मूल्य के, यानी उसमें लगे श्रम के बराबर होना चाहिये। लेकिन सत्ताईस मार्क की इस रक़म में से इक्कीस मार्क के बराबर का मूल्य तो हमारे मिस्त्री के काम शुरू करने के पहले से ही मौजूद था। बीस मार्क कच्चे माल के रूप में था और एक मार्क उस कोयले के रूप में था, जो काम के दौरान ख़र्च हुआ तथा उन मशीनों और औज़ारों के रूप में था, जो पुर्ज़ा तैयार करने में इस्तेमाल किये गये और इस प्रक्रिया में जिनकी काम करने की शक्ति में इस रक़म के बराबर मूल्य की कमी आ गयी। बचते हैं छह मार्क, जो कच्चे माल के मूल्य में नये जुड़ गये हैं। परन्तु ख़ुद हमारे अर्थशास्त्री यह मानकर चल रहे हैं कि ये छह मार्क केवल उस श्रम से ही पैदा हो सकते हैं, जो मज़दूर ने कच्चे माल में जोड़ दिया है। मतलब यह हुआ कि मज़दूर के बारह घण्टे के श्रम से छह मार्क का नया मूल्य पैदा हो गया। लिहाज़ा उसके बाहर घण्टे के श्रम का मूल्य छह मार्क के बराबर बैठता है। और इस प्रकार अन्ततोगत्वा हमने यह पता लगा लिया कि “श्रम का मूल्य” क्या है।

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