इंडिया का बुद्ध सभ्यता

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Buddha
हमारा देश का नाम ना भारत था, ना हिन्दुस्तान था, ना इंडिया; ये विशाल भूखंड सदियों छोटे बड़े राज्यों का मिश्रित समूह रहा, ये भूखंड समय के साथ राजाओं के राज से जाना जाता था । ये भूखंड अनेक भाषीय सभ्यता का भूखंड है । आज भी यहाँ १२२ प्रमुख भाषा और १५९९ अन्य भाषाएं देखने मिलते हैं । जितने तरह की प्रमुख भाषाएं है उतने ही भाषीय सभ्यता इस भूखंड पैदा किया । क्यों की वर्ण व्यवस्था संस्कृत भाषा में ही कंपोज़ किया गया है और दूसरे भाषाओं को ट्रांसलेट कियागया है इसका मतलब ये है गैर संस्कृत भाषीय सभ्यताओं के ऊपर वर्ण व्यवस्था को इम्प्लीमेंट कियागया है । पुराने युग में कोई वर्ण व्यवस्था नहीं थी । संस्कृत बोलनेवाले या इस भाषा को अपना पहचान मानने वाले धूर्त्तों ने वर्ण व्यवस्था पैदा किया जो की रिग वेद परुष सूक्त १०.९० में लिखित है । पुरुष सूक्त यानी वर्ण व्यवस्था सम्पूर्ण रूप से बुनियादी मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है और आज तक इस व्यवस्था को इस भूखंड में क्यों संरक्षण दी जा रही है वह एक बड़ा प्रश्न है । संस्कृत भाषा इस भूखंड का कभी भी लोकप्रिय भाषा नहीं रहा; संस्कृत भाषा को  किसने और कब अपभ्रंश या ध्वंस किया कभी आपने सुना है? संस्कृत भाषा को आजाद इंडिया में संरक्षण यानी ऐकाडेमिकस में बाध्यता विषय बनाने का बावजूद ये आज तक कभी इस भूखंड का लोकप्रिय दूसरी या तीसरी लैंग्वेज भी बन नहीं पाया । संस्कृत सब भाषा की जननी है ये बात धूर्त्तो ने फैलाई और मूर्खोंने आपने अज्ञानता के वजह से इसका ऊपर अंधविश्वास किया । अगर ये इतनी पुरानी और लोकप्रिय होता इसका आज के बोलने वाले कभी १५ हजार से भी कम नहीं होते । इन धूर्त्तों ने गैर संस्कृत बोलनेवाले सभ्यता को अगड़ी और पिछड़ी में बांटा और ऐसे साजिश की पिछड़ा कभी अगड़ी ना बन पाए । इसलिये ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की पहचान बनाई जो की वैदिक समाज में पुरुष सूक्त के अनुसार समाज की प्रमुख पेशा (professions) थी, इस प्रमुख वृत्तियां को उनलोगोंने आपने और अपना पीढ़ियों के लिए आरक्षित (reserve) कर दिया और उसकेलिये सरनेम का इस्तेमाल किया; इसलिये पुजारी वर्ग ज्ञान को रिज़र्व कर दिया ताकि उनके ज्ञान से दूसरे चलें; जब की क्षत्रीय को क्षेत्र; यानी पीढ़ीगत राज और प्रसिद्धि के साथ साथ यश का रिजर्वेशन मिला । जो ब्योपारी  वैदिक बनिया का पहचान अपनाया वह खुद को वैश्य कहने लगे, और इस वृत्ति को अपने पीढ़ियों के लिए रिज़र्व कर दिया यानी सब अच्छी पेसाओं (professions) को वह खुद और उनके बच्चों के लिए आरक्षित (reserve) कर दिया और ये तीन प्रमुख बृत्तियों को अपनानेवाले गोष्ठी/class फ्रीडम ऑफ़ प्रोफेशन को बंद यानी जड़ (freeze) कर दिया और समाज के रूलिंग क्लास बन गए; इन तीन प्रमुख बृत्तियों को छोड़ के जितने भी बृत्तियाँ थे उनको शूद्र यानी उनके गुलाम बताया गया । यानी ज्यादातर श्रम श्रेणी (labor class) ही शूद्र बने, जिन को वैदिक वर्ण व्यवस्था लागू करके रूलिंग क्लास यानी शासक वर्ग बनने से रोका गया । अगर इस धर्म का कोई स्वतंत्रता होता क्या कोई अपनी मर्जी से शूद्र बनना पसन्द करता? इसलिये जो शूद्र हैं उनको जबरन शूद्र बनाया गया है यानी ये पहचान उन पर जबरन थोपा गया है और उनको सदियों फ्रीडम ऑफ़ प्रोैफैशन अपनाने से रोका गया है ।  शूद्रों को ज्ञान प्राप्ति की इसलिए प्रतिबन्ध लगा दी गयी क्यों की ज्ञान प्राप्ति से वह शासक वर्ग न बन जाये और गुलामों की कमियां न हो जाये; इसीलिए न केवल ज्ञान; समानता, सम्मान, स्वस्थ जीवन के अधिकार, संपत्ति का अधिकार, समान अवसर और उचित न्याय से उनको सदियों वंचित किया गया बल्कि उनको सदियों प्रताड़ित भी कियागया । वर्ण व्यवस्था को अपनाना या जोर जबरदस्ती किसी राज की ऊपर थोपने के पीछे ये मनसा थी की तब का शासक वर्ग हमेशा शासक वर्ग बने रहे और श्रम श्रेणी हमेशा श्रम वर्ग । ये गोष्ठियां/professional classes कोई एक मूल से नहीं हैं क्यों के स्थानीय भूखंड के बदलते ही इनके सरनेम और उनकी मातृभाषा अलग अलग हो जाते हैं, जिसका मतलब ये है की ये कोई एक मूल स्रोत से पैदा श्रेणी नहीं है, अगर होते उनके सरनेम और उनकी मातृभाषा एक होता अनेक नहीं; बल्कि ये एक सोच की श्रेणी है जो की प्रोफेशन से बंटी हुई हैं जैसे आज देश तरह तरह की पोलिटिकल पार्टियों के सोच से बंटी हुई है । वह ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र यह एक एक वृत्तीय श्रेणी है जिनको वैदिक परुष सूक्त के अनुसार विभाजन किया गया है । इसलिए हर भाषीय सभ्यता जिन्होंने ये वर्ण व्यवस्था आपनाई या उन पर थोपा गया उनके भाषा और सरनेम बदलते रहते है लेकिन वह सब उनके बृत्तियोंसे वर्गीकृत हुए हैं । आंध्र का महार या ब्राह्मण के साथ गुजराती ब्राह्मण या महार की साथ कोई रिश्ता नहीं सिवाय  एक वृत्तीय वर्ग की, शूद्र वृत्तीय वर्ग को अनपर थोपा गया क्यों की वैदिक सामाजिक वर्ण व्यवस्था फ्रीडम ऑफ़ प्रोफेशन यानी  पेशे की स्वतंत्रता को पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया था । यदि आप वर्ण व्यवस्था की मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करेंगे ये आप को साफ़ साफ़ दिख जायेगा जिन राजाओं या सामाजिक सभ्यता वर्ण व्यवस्था को अपनाया उसी भाषीय सभ्यता की ही लोग चार वृत्तीय वर्ग में बंट गए; ज्यादातर उनके ही लोग जो धूर्त, बाहुवली या दबंग और बेईमान या सयाना ब्योपारी थे वह शासक बर्ग रूप में ऊंची जात यानी सबर्ण यानी अगड़ी बन गए और जो पिछड़ी उनसे थोड़ा कमजोर थे उनको  शूद्र यानी गुलाम बनाया गया । अगर आप मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें ब्राह्मण ही उनके अनुगामिओयों से ज्यादा अंधविश्वासी और तर्क अंध बने, जब की ज्यादातर उनके अनुगामी अज्ञानता, अंधविश्वास और तर्क अंधापन की सीकार के साथ साथ उनके उत्पीड़न के वजह से उनसे ज्यादा सहिष्णु, विनयशील, अनुशासित वर्ग बन गए । खुद की धूर्तता, चतुराई और शातिराना दिमाग इस्तेमाल करके दूसरों को बेवकूफ बना के बैठ बैठ के परजीवी की जैसे जीना और लोगों की जिंदगी और दिमागों को नियंत्रण करने के चक्कर में खुद की नस्लों को ही मानसिक विकृत बना डाला । आज तक निर्जीव मूर्तियों को ब्राह्मण घंटी बजा के उठाता है, फूल, चन्दन और बस्त्र से श्रृंगार करवाता है, सूंघ ने को अगरवती जलाता है, अंधेरे दूर करने को दीप जलाता है ताकि भगवान देख सके जब की खुद की दिमाग की अँधेरा दूर करने की जरूरत है; उनको संस्कृत की मंत्र यानी गाना सुनाता है, खाने को भोग देता है, और उन निर्जीव मूर्त्तियों के सामने जीवित जीवों की वली भी देता है; ये मानसिक विकृति नहीं तो क्या है? अगर आप आपकी मरे हुए कोई पालतू पशु की मूर्ति बना के वह सब करे जब वह जीवित था तो क्या आप इसको स्वस्थ दिमाग की हालत बोलेंगे या मानसिक विकृति? अगर वैसे ही आचरण आप अपने निर्जीव भगवान की मूर्त्तियों के सामने करते हो ये कैसा स्वस्थ दिमाग कहा जा सकता है? क्या इन निर्जीव मूर्तियओं के पास इंद्रियाँ है जो ये सबकी अनुभव करते हैं? जब एक सेर की मूर्ति आप को खा नहीं सकता, एक इंसान की मूर्ति आप को मदद नहीं कर सकता तो एक भगवान की मूर्ति आप को कैसे मदद कर सकता है? कभी आपने मूर्त्तियों के ऊपर चिड़िया को बैठते देखा है? अगर नहीं देखा तो देख ना, वह साधारण चिड़िया ये जानता है मूर्तियों से उस को खतरा नहीं क्यों की वह जड़ है; तो मूर्त्तिवादियों की क्या उस चिडियोंसे भी कम अकल है? या भगवान भ्रम उनको तर्क अंध बना देता है? आप इसको स्वस्थ दिमाग की निशानी कैसे मान सकते हैं? कोई भी चित्र, मूर्ति या चल चित्र केवल संज्ञान पैदा कर सकते हैं वह कोई प्रत्यक्ष क्रिया पैदा नहीं कर सकते । क्या कोई सेर की मूर्ति को आपने शिकार करते हुए देखा है? या गाय की मूर्ति दूध देते हुए? तो एक मूर्ति को जो आप भगवान के रूपमें पूजते हो न आप के पूर्वज उनको जीवित देखे थे ना आप की बाप दादा; उन मुर्तियों को श्रृंगार करने से, खाना खिलाने से (भोग) या उनके आगे जीवित जीवों की वली देने से या गाना (मंत्र या भक्ति गीत) सुनाने से क्या वह निर्जीव मूर्त्तियां आप को हैल्प कर देंगे? अगर आप को इतनी भगवान की लत है और आप का तर्क ये है भगवान दूसरों की रूप में मदद करता है तो मदद करनेवाला को ही भगवान मान लो! हैल्प करे कोई और नाम ले एक काल्पनिक या मरा हुआ एंटिटी की निर्जीव प्रतिमा? जिसकी दुकान खोल के ब्राह्मण बैठा है! क्या आप की दी गयी भेंट मूर्ति लेता है या ब्राह्मण ही चट कर जाता है? एक भक्त का पास कौनसा ऐसे यन्त्र है जो हैल्पिंग हैंड है उसकी भगवान की भेजा हुआ बंदा है वह जान लेता है? तो ये क्यों नहीं मानते जो हो रहा है सही है और हर वह चीज जो आप की जिंदगी में हो रहा है सब भगवान दूसरों की मदद से कर रहा है? यानी एक्सीडेंट, रोग, चोरी, रेप, हत्या, जितने भी बदतर चीजें हो रही हैं सब भगवान दूसरों की सहारे कर रहा क्यों की वह उसकी हिसाब से सही है? तो ना दुखी होने का ज़रुरत ना भगवान की पास जाने की जरूरत । अगर आप भक्ति नहीं भी करोगे आपकी भगवान जो चाहेगा वही होगा और जो अभी आप हो वह भगवान की मर्जी से हो । कोई काल्पनिक एंटिटी के आड़ में अपने आप को सही या गलत ठहराना, और अपने विचार और कर्मों की वजह से वह हुआ है उस को नकारना, क्या स्वस्थ दिमाग की निशानी हो सकता है? हैल्प करनेवाल एक गैर धर्मी या भगवान को ना मानने वाला भी तो होसकता है? जो केवल इनसानियत के नाते हैल्प करता हो? खुद की विकृत मन को समझाने के लिए प्रतीकात्मक का इस्तेमाल क्या अज्ञानता, मूर्खता और विकृति नहीं? अगर हेल्प की दुनिया केवल अपने भगवान की नाम से हो ये सियासी, चमचागिरी, पक्षपात और साम्प्रदायिकता नहीं है तो क्या है? वैसे हम ज्यादातर मरे हुए लोगों को याद करने के लिए उनकी मूर्ति का प्रतीकात्मक इस्तेमाल करते हैं, ना की उनसे रोबोट जैसे काम लेने के लिए । अगर मूर्ति या फोटो वाली भगवान को बात करने से या उनको चढ़ावा यानी भोग देने से भगवान की तुष्टीकरण यानी संतुष्टि हो जाता है और प्रसन्न होकर मनोकामना पूरी हो जाता है तो ये चीज हम अपनी जिंदगी में भी इस्तेमाल करना चाहिए । घर में आपने स्कूल जानेवाले बच्चों की फोटो के सामने खाना रखदो स्कूल में उनकी पेट भर जायेगा; और तो और कुछ लोगों को ड्यूटी में टिफिन लेने की जरूरत ही नहीं, पत्नी आपने घर में ही पति के फोटो के सामने खाना रखदे तो ऑफ़िस में खुद व खुद पतिका पेट भर जायेगा । अगर ऐसे नहीं होता तो आप इस सोच को क्या स्वस्थ सोच कहना पसंद करोगे? क्या आपको ये अहसास नहीं भगवान भ्रम पैदा करके कोई आपकी दिमाग को नियंत्रण कर रहा है? खुद ब्राह्मण अपनी मल द्वार मरते दम तक साफ़ करता है लेकिन वह हाथ जिससे वह अपना मल साफ़ करता है वह अछूत और मेहतर नहीं बनता, लेकिन जो उसकी मल को पर्यावरण को साफ़ रखने के लिए विस्थापित करता है उस को अछूत बोलता है; ये कौनसी ज्ञान की परिभाषा है? पुराने ज़माने में दबंग जैसे डाकू, चोर और लुटेरा क्या राजा नहीं बने? आप को ये सबूत भी मिलजाएँगे गाय चराने वाला भी राजा बना; क्या राजाओं की कोई पूर्वज हमेशा राजा होना जरूरी है या था? राजाओं के बच्चे कैसे अनुवंशीय राजा बने इसलिए कई राजाओंने इस वर्ण व्यवस्था को क्षत्रिय पहचान की रूप में अपनाया जब की ना अपनाते तो भी राजाओं के बच्चे कई सामाजिक व्यवस्था में राजा ही होते थे और अयोग्य होने पर कोई और हो जाता था । हर राजा को वैदिक सर्टिफिकेट क्षत्रिय की क्या जरूरत? क्या हम राजा सिकन्दर (Alexander the Great) और मुसलमान राजाओं को क्षत्रिय बोलते हैं? पुरुष सूक्त के अनुसार केवल राजा ही क्षत्रिय है ना की उनकी जमीन को रखवाली करनेवाले जमींदार (जैसे चौकीदार घर का पहरा देता है और उस को चौकीदार कहा जाता है; वैसे जमींदार राजाओं की जमीन की रखवाली करता था, जिस वृत्ति का पुरुष सूक्त १०.९० में कोई जिक्र ही नहीं है इसलिए उस को क्षत्रिय माना नहीं जा सकता) या जंग लड़ने वाला सिपाही या इन जैसे बृत्तियों के लोग । असली में क्यों के राजा की संख्या और उनकी वंशज कम थे उनकी संख्या यानी वैदिक पहचान अपनाने वाले राजाओं की संख्या यानी क्षत्रिय की संख्या कम ही होगी; यानी ये अब एक करोड़ से भी कम होंगे । अब जो खुद को क्षत्रिय की सर्टिफिकेट देते हैं वह दरअसल उपलिफ्टेड यानी अगड़ी शूद्र है जो आपने आप को शूद्र कहलवाना पसंद नहीं करते हैं और उनको इस बात का शर्म आता है, और खुद को ऊँची जात कहलवाने में सान महसूस करते हैं यानी खुद को वेद की गुलाम कहने में सान महसूस करते हैं; इसीलिए आप को कई ऐसे लोग मिलजाएँगे आज तक खुद की वर्ग को क्षत्रिय बनाने के चक्कर में आज भी लगे हुए हैं; अगर वह क्षत्रिय होते आज उनको क्षत्रिय होने की संघर्ष करने की क्या जरूरत है? क्या जो गैर वर्ण वाले समाज में लोग हैं वह इंसान नहीं? वह क्या आपने आप को वर्ण से बाँटते हैं? इंडिया को छोड़ के आपने कहीं वर्ण व्यवस्था देखा है? क्या उनका राजा राजा नहीं? उनका पुजारी पुजारी नहीं? या उनके व्यापारी व्यापारी नहीं? कभी आपने इंडिया की वैदिक अनुगामियों को छोड़ के पुजारी के लिए ब्राह्मण पहचान, राजा के लिए क्षत्रिय पहचान या व्यापारी के लिए वैश्य की पहचान इस्तेमाल करते देखा है? हमारे लोगों को वैदिक वर्ण का सर्टिफिकेट का क्या जरूरत? क्या वैदिक वर्ण व्यवस्था की सर्टिफिकेट की भूख यानी झूठी सान की ऊँची वर्ग का नशा क्या दिमागी पागलपन नहीं है? पूर्वजों की बृत्तियों के वैदिक सर्टिफाइड सरनेम वर्तमान की पीढ़ियों को क्या जरूरत? अब तो मेहतर, महार यानी वैदिक सर्टिफाइड अति शूद्र यानी दलितों की बच्चे भी डक्टर, इंजीनियर वकील बनते हैं, उनको अपने पूर्वजों की काम से सामाजिक पहचान देने के पीछे क्या लॉजिक है? क्या आप को नहीं लगता कुछ रूढ़िवादी लोग वर्ण व्यवस्था जैसे अंधविश्वास को  कायम रखने के कोशिश में है? यानी अपने ही लोगों को बांटना और उनके जिंदगी और उनके दिमाग को आपने स्वार्थ या संगठित स्वार्थ के लिए नियंत्रण करना उनके मक़सद है? यही सोच हमारे अखंड भूखंड को सदियों बाँटता आ रहा है और हर सम्पदा से भरपूर रहने के बावजूद देश हमेशा दूसरों देशों से हमेशा पिछड़ा रहा है क्यों की यहां के गंदी पॉलिटिसियानस इस वर्ण व्यवस्था और धर्म को मोहरा बना के आपने राजनीति की दुकान कायम रखना चाहते है और हमारी दी गयी टैक्स को चोरी करके सदियों देश को लूटने की चक्कर में रहते हैं । एक नेशन एक हि तरह की सिटीज़न बनने नहीं दे रहे हैं अगर एक जुट हो जायें तो उनकी दुकान कैसे चलेगी? इसलिये लोगों को वर्ण और धर्म से तोड़ा जा रहा है और तोड़ने वाले कोई नहीं वही स्वार्थी मतलबी संगठित सोसिओपैथस हैं । क्या आप जानते है देश स्वाधीन होने के वाद हमारे देश के ही लुटेरों ने  यानी सफ़ेदपोस अपराधी (वाइट हॉटेड/कलर क्रिमिनल्स) १०० ट्रिलियन डॉलर्स से भी ज्यादा धन काले धन के रूप में बहार रखे हुए हैं? वर्ण व्यवस्था क्यों की ब्राह्मणों का नियंत्रित सामाजिक व्यवस्था था  इसलिए अवसरवादिता उनके हात में ही था । इसलिए जब विदेशी ज्ञान जैसे इंजीनियरिंग या एलोपैथिक चिकित्सा का ज्ञान इत्यादि इत्यादि देश में फैला उनके अगड़ी यानी सवर्ण वर्ग ही ज्यादातर स्किल्ड होने का अवसर ले ली इसलिए आप को अब ज्यादा स्किल्ड प्रोफेशनलस उनके वर्ग के ही मिलजाएँगे; लेकिन दुःख की बात ये है ज्यादातर ये आप को विदेशी मुल्क में भी मिलेंगे क्यों के ये मौका परस्त भी हैं । ये इस भूखंड की मिट्टी, हवा और लोगों से पले बड़े लेकिन जब इस भूखंड को सेवा देना का समय आया तो गुलामी करने अमेरिका, कनाडा जैसे देश को भाग गए ।  ज्यादातर वाइट हॉटेड संगठित सोसिओपैथस वैदिक सर्टिफाइड सबर्ण ही हैं । इसका मतलब ये नहीं के वैदिक सर्टिफाइड शूद्र पुरे पाक साफ़ है । अपराधी जात और धर्म नहीं देखते हैं क्यों की उनके डिजायर उनके कंट्रोल में ही नहीं रहता इसलिए अपने डिजायर को फुलफिल करने के लिए वे किसी भी तरह की अपराध करने से नहीं चुभते । वैदिक वर्ण व्यवस्था  ज्यादातर वाइट हॉटेड क्रिमिनल्स को ही सदियों सवर्ण सर्टिफिकेट देकर अपलिफ्ट किया है और उनको सदियों वाइट हॉटेड क्रिमिनाल बनाता आ रहा है जब की उनके हर पीढी के हर संतान वाइट हॉटेड क्रिमिनल था या है कहना पूरी तरह से गलत होगा ।

सदियों इस भूखंड का नाम उनके राजाओं के राज से पहचाना जाता था ।  इस भूखंड का सबसे बड़ा राज्य मौर्य साम्राज्य बना जो की एक बौद्ध सम्राज्य था । यानी हमारे ज्यादातर पूर्वज बौद्ध धर्मी थे; क्यों के बुद्धिज़्म 263BC के बाद विश्व का सबसे बड़ा प्रमुख धर्म यानी मेजर रिलिजियन था; जब की वैदिक धर्म 185BC के बाद ही केवल इस भूखंड का प्रमुख होने की कोशिश की, ईसाई धर्म 33AD के बाद बना और इस्लाम 610AD के बाद ही दुनिया में आया, जब इस्लाम राजाओंने इस भूखंड में राज किये यानी 700AD के बाद ही हिन्दू धर्म का उत्पत्ति हुई । बौद्ध धर्म तार्किक धर्म था जो की ईस्वर, मूर्ति पूजन, बहु देवबाद, अंधविश्वास, असामंज्यता,  ऊंच नीच,  छोटे बड़े,  छुआ छूत, वर्ण व्यवस्था, हिंसा इत्यादि असामाजिक चीजों का घोर विरोध करता था । बौद्ध धर्म मानव समाज को एक ही परिवार मानता था । जबकि वैदिक धर्म अपने अनुगामियों को ही जात पात, बड़ा वर्ण छोटा वर्ण से अलग करते हैं, जिनसे एक परिवार का सोच भी मूर्खता होगी; जो की असलियत में वंशावली मालिक और गुलाम की व्यवस्था है । क्यों की वर्ण व्यवस्था इसी भूखंड का धूर्त्तों की बनायीं गयी संकीर्ण सोच थी इस भूखंड से बाहार जा नहीं पाया; जब की बौद्ध धर्म उसकी व्यापकता ज्ञान के वजह बिना हिंसा, बिना छल और बल, और बिना धूर्तता के बहुत सारे जगह फैल गया । बौद्ध धर्म को हिंसा के सहारे या अपभ्रंस करके ख़तम किया गया । 263BC से 185BC तक ये भूखंड बौद्ध साम्राज्य के नाम से जाना जाता था । बौद्ध धर्म से पहले इस भूखंड का कोई प्रमुख धर्म(major religion) नहीं था । 185BC में वैदिक ब्राह्मण सेनापति पुष्यामित्र शुंग ने राष्ट्रद्रोह करके धोखे से last Mauryan Empire की राजा बृहद्रथ का हत्या की और मौर्य साम्राज्य को हथिया लिया । ये सेनापति कोई युद्ध करके नहीं बल्कि अपने मालिक को धोखा देकर बेईमानी से हथिया लिया था । समय के साथ वैदिक प्रचारकों ने बौद्ध धर्म और इस भूखंड में जितने भी तार्किक धर्म थे उनको न केवल प्रदूषित किया उनको नष्ट भी किया और कुछ को अपने धर्म की छत्रछाया में ले आए । बौद्ध धर्म को समूल खत्म करने की कोशिश हुई । पुष्यमित्र शुंग ने बौद्ध सन्याशियोंका सामूहिक नर संहार किया । आतंक, दहशत, छल और बल, साम, दाम, दंड, भेद से मनुस्मृति को लागू करके वैदिक वर्ण व्यवस्था को जबरन हर गैर संस्कृत भाषी सभ्यता के ऊपर लागू किया गया । हर भाषीय सभ्यता के धूर्त, दबंग और बईमानों को अगड़ी यानी सबर्ण बनाया गया और पिछड़ों को उनके गुलाम यानी शूद्र । इस तरह अशोका की बुद्धिस्ट किंगडम अगड़ी और पिछड़ी दो समुदाय में बंट गया और समय के साथ ऐसे ही वैदिक धर्म फैलता चलागया । संगठित पुजारीवाद जो अपने आप को ब्राह्मणवाद का पहचान दी असलियत में हर भाषीय सभ्यता की धूर्त, शातिर और चालाक मूल निवासी थे, लेकिन ये जरूरी नहीं है की उनकी हर पीढी के हर संतान उनके ही जैसे सम्पूर्ण धूर्त, शातिर और चालाक हैं; जिन्होंने ब्राह्मणवाद को भक्तिवाद से जोड़ा और भगवान की नाम पे एक पोलिटिकल मूवमैंट चलाई जिससे हर गैरवैदिक धर्म यहाँ विलुप्त हो गया । इनलोगोंने झूठ, अंधबिस्वाश, अज्ञानता, मूर्त्तिवाद, छुआ छूत, ऊंच नीच इत्यादि सामाजिक बुराईयां धर्म के नामपे फैलाई और यहाँ की हर पीढी उनके फैलाई हुई झूठ को ही अपना पहचान की उत्पत्ति मान ली । इनलोगोंने अपनी मन गढन कहानियों को इतिहास बताया और हर पीढ़ी को भ्रम में डाला । इसीलिए ब्रम्हा, विष्णु, महेश जिनका कोई जैविक उत्पत्ति नहीं फिर भी इंसान की जैसे दीखते हैं और ये हर स्क्रिप्चर में स्पष्ट से  लिखा है  की वह सब मन से पैदा हुए हैं यानी काल्पनिक है फिर भी इनलोगोंने उनके अनुगामियों को ये अहसास दिलादिया के वह सब सत्य है । इस भूखंड का ज्यादातर मूल निवासी उनके झांसा में आ गये और वैदिक धर्म 185BC के वाद इस भूखंड का सबसे बड़ा धर्म बन गया । वर्ण व्यवस्था के वजह से इस भूखंड का सबसे बड़ा श्रेणी गुलाम यानी शूद्र बन गया । क्यों के ज्यादातर अनुगामी बुद्धिस्ट थे उनको जान सुनकर उत्पीड़ित किया गया और सदियों हर चीजों से बंचित किया गया । जब 700AD के बाद बाद मुसलमान आक्रमणकारियों इस भूखंड में आये तो सिंध भाषीय सभ्यता नाम से प्रेरित उनके राज(kingdom) के नाम रखे जैसे अल-हिन्द, इंदोस्तान, हिन्दुस्तान इत्यादि । अल-हिन्द, इंदोस्तान, हिन्दुस्तान इत्यादि शब्द का इस्तेमाल हमारे भूखंड में पैदा कोई भी स्क्रिप्चर में नहीं मिलेंगे; यहाँ तक की हिन्दू शब्द भी नहीं मिलेगा ना वैदिक धर्म माने वालों का भगवान हिन्दू थे ना उनके अनुगामियों के नाम हिन्दू । हिन्दू पहचान इस्लामी राज में ही दियागया पहचान है । मुसलमान आक्रमण कारियोंने यहाँ की कुछ मूल निवासियों के ऊपर अपनी धर्म को जबरन इम्प्लीमेंट किया; लेकिन ज्यादातर शूद्र और अतिशूद्र यानी Out Caste यानी वर्ण व्यवस्था से बाहर, जो की सदियों वैदिक सबर्णों से उत्पीड़ित रहे वह ज्यादातर इस्लाम धर्म क़बूल ली ।  जो मुसलमान अब जिस भाषीय सभ्यता के मिट्टी से जुड़ा है उनके पूर्वज भी उसी मिट्टी से जुड़े थे अगर कोई स्थानान्तरण का मसला ना हो तो वह उसी ही भाषीय सभ्यता की ही मूल निवासी है और समय के साथ इस्लाम क़बूली है । इसका मतलब ये है गुजरात में दिखने वाले मुस्लिम, गुजराती मूलनिवासी से ही मुसलमान बने हैं, आंध्र का मुसलमान आंध्र की तेलुगु भाषीय मूलनिवासी हैं, मराठा में दिखने वाले मुस्लिम मराठी भाषीय मुलनिवाशियोंसे ही इस्लाम क़बूली है इत्यादि इत्यादि । यहां को इस्लाम लाने वाले विदेशी इस बहु भाषीय सभ्यता में विलीन हो गये हैं जिनका कोई अनुवंशीय सत्ता और नहीं है । यहाँ दिखने वाले मुस्लिम 97% से ज्यादा यहाँ के मूलनिवासी है और 3% से भी कम विलीन विदेशी मुल्क की वंशज । नगरी (नगर की भाषा जिसका परिवर्तित नाम हिंदी है) भाषा में कुछ पार्सी और आरबीक शब्द मिला के उर्दू भाषा को 1600AD के वाद मुसलमान राजाओं की राज में यहाँ की मुसलमानों की मातृभाषा बना दी गयी है जब की उनकी मिट्टी से जुड़ी उनके सेकेण्ड लैंग्वेज ही उनकी पूर्वजों की मातृभाषा थी । क्यों के इस्लाम की राज में मुसलमानों को गैर मुसलमानों से अलग करना था तो इस्लाम शासकों ने गैर मुसलामानोंको हिन्दू पहचान दे दी; जो की तब का ज़्यदातर बुद्धिजीम से कनवर्टेड वैदिक अनुगामियों का पहचान बन गया । असलियत में देखो तो हिन्दू का मतलब इस्लाम राजाओं का गुलाम ही होगा ।  हिन्दू पहचान जो की शिन्दु नदी और शिंद प्रोविंस यानी शिन्दु सिविलाइज़ेशन से आया है; ३००० साल पहले तब शिन्दु पहचान था की नहीं कौन जानता है? कोई क्या अपने आप को मुसलमानों की गुलाम कहलवाना पसंद करेगा? ये दरअसल अज्ञानता की सबूत है की वैदिक धर्म फैलाने वाले अपने धर्म को फैलाने के लिए हिन्दू पहचान का चोला पहना हुआ है । वैदिक धर्म दरअसल शैवजिम, वैस्नबजिम, सक्तिजिम, मूर्त्तिवाद की बहुदेववाद की अगुवाई करता है और ये समूह विश्वास यानी आस्था को हिन्दुइजम कहाजाता है । शिन्दु भाषीय सभ्यता से गैर सिंद्धु सभ्यता जैसे पंजाबी, पाली/ओड़िआ, खरीबोलि/नगरी/नागरी/हिंदी, तेलुगु, तामील इत्यादि इत्यादि भाषीय सभ्यता से क्या सम्बद्ध? अब partition के बाद सिंध भूखंड शिंद प्रोविंस के नाम से पाकिस्तान का हिस्सा है और शिन्दु नदी भी पाकिस्तान में बहता है । शिंद प्रोविंस का ज्यादातर मुलनिवाशी अब मुसलमान हैं जब की उनके नाम से एक बड़ा वर्ग जबरन हिन्दू के नाम से जाना जाता है जो की मुर्खोंकी फैलाई गयी पहचान है । इस भूखंड का सबसे बड़ा अखंड राज्य मौर्य साम्राज्य था ।  इस्लाम आया तो उनके राज में इस भूखंड का पॉपुलर पहचान हिन्दुस्तान बना । अंग्रेज 1600AD के बाद आये और इसका सेक्युलर पहचान इंडिया रख दिया ।  क्यों की ये भूखंड और हमारे पूर्वज ज्यादातर बुद्धिस्ट अनुगामी थे, बुद्ध के वारे में जानना हर किसी का कर्त्यब्य है; वह हिन्दू हो या मुस्लिम, सिख हो या ईसाई, हर प्रमुख धर्म से बुद्धिजीम पुराना है । हिन्दू धर्म पुराना नहीं लेकिन वैदिक धर्म जरूर हिन्दू धर्म से पुराना है ।  प्रमुख धर्म के हिसाब से बुद्धिजीम वैदिक धर्म से भी पुरानी है । असोका की राज में यानी 263BC से 185BC तक बुद्धिजीम प्रमुख धर्म था यानी सबसे ज्यादा माना जानेवाल धर्म(Major faith) । 185BC से पहले वैदिक धर्म उत्तर इंडिया में कुछ ही जगह में शायद फैला हुआ था । जब पुष्यमित्र शुंग इंडिया की सबसे बड़ा बुद्धिस्ट अखंड राज्य को धोखे से हथिया लिया वहीं से ही बुद्धिजीम का पतन सरु हुआ और वैदिक सभ्यता की उत्थान हुआ । यानी सत्य और तार्किक सभ्यता (बौद्धिक) की विलुप्ति हुई और झूठ, अंधविश्वास, छुआ छूत, में बड़ा तू छोटा, और तर्कहीन (irrational) सभ्यता (वेदांत) की शुरुआत हुई । हिन्दू धर्म इसलामीक आक्रमण के वाद यानी 700AD के वाद इस भूखंडमें ही पैदा हुए सब धर्म का एक समूह नाम है जब की वेदांत ने हर किसी का ख़ात्मा करके आज अपने आप को सबसे बड़ा धर्म का दावा करता है; जबकि इस भूखंड में वैदिक धर्म का ही अनेक विरोधी थे ।

समय के साथ मौत के भय के कारण और बौद्ध सन्यासिनियों को उत्पीड़न के वजह से ऐसे भी हुआ होगा कुछ बौद्ध सन्यासी अपने आप को वैदिक कनवर्टेड ब्राह्मण का चोला पहने को मजबूर हुए होंगे, क्यों की ना उनका पास क्षत्रिय होने का बाहुबल या संपत्ति हुई होगी; ना व्यापारी होने का धन ना उनको शूद्र कहलवाना पसंद हुआ होगा । बरना जो वैदिक प्रथा हिंसा और वली की प्रथा को जोर देता हो, वह अहिंसा और शाकाहारी की अनुगामी कैसे हो सकते हैं? क्यों की वैदिक मान्यता के अनुसार “पुरुष” की वली से ही वर्ण पैदा हुआ है; यानी हिंसा वैदिक धर्म की उत्पत्ति से ही निहित है । कुछ भी चीज अग्नि को समर्पित करना (हवन या यज्ञ) यानी ध्वंस करना हिंसा नहीं तो क्या है?  वैदिक धर्म फ़ैलनेके वाद क्यों के ब्राह्मणों को मनुस्मृति में ज्यादा प्रध्यान और सुविधायें दी गयी थी; तो इस बात का फ़ायदा अनेक धूर्त मूल निवासियां भी  उठाया होगा और दूसरों की अनजाने में अपने आप को ब्राह्मण बना के वर्ग का फ़ायदा ली होगी । तब क्या कोई आइडैंटिटी कार्ड हुआ करता था जिससे लोगों की पहचान की डायरी मेन्टेन हुआ होगा? क्यों की राजा अशोक ने अपने राज्य में किसी भी तरह की पशु वली की रोक लगाई  थी और ये अवमानना के लिए कठोर दंड का प्रणयन किया था; जो भी वैदिक ब्राह्मण वली देकर उनका गुजारा चलाते हुए होंगे अपना जीविका हराया होगा और उस अवधि में शाकाहारी होने को मजबूर हो गए होंगे; क्यों के पुरषमेध यानी पुरुष की वली, अश्वमेध यानी घोड़े का वली, गोमेध यानी गाय की वली  यज्ञ में इस्तेमाल होना केवल वैदिक धर्म और उनकी शास्त्र में मिलते हैं किसी दूसरे शास्त्रों में नहीं; शाकाहारी होना बाद में ये उनके वर्ग के लिए शायद एक सुधार हुआ होगा । संगठित पुजारीवाद जो वैदिक धर्म को फैलाया वह ही वर्ण व्यवस्था आज तक समाज में संरक्षित करते आ रहे हैं । जैसे कोई गैर अंग्रेज मूल निवासी खराटे अंग्रेजी बोलने से अंग्रेज मूल निवासी नहीं हो जाता वैसे ही कोई दो चार संस्कृत मंत्र बोलने से या उनके नाम के पीछे ब्राह्मण की पहचान वाली सरनेम लगाने से वैदिक वंशज नहीं बन जाता अगर ये एक वंश से होते या एक रेस से होते इनकी मातृभाषा एक होती और उनके सरनेम भी एक होता ना की आज का केवल करीब ६ करोड़ ब्राह्मणोंका ५०० से भी ज्यादा सरनेम होते ना भूखंड बदलते ही उनकी मातृभाषा बदल जाती । अगर संस्कृत मातृभाषि वैदिक नस्ल नहीं हैं, तो वर्णवाद इस भूखंड में पैदा एक सबसे घटिया संकीर्ण सोच और अंधविश्वास है जिसको चतुर और धूर्तोंने (sociopaths) बनाया और चतुराई से लोगों के ऊपर लागू किया और झूठी भगवान की दुनिया बना के उनके अनुगामियों की जिंदगी और दिमाग को भगवान के नाम पर नियंत्रण करते आ रहे हैं । ये साफ़ साफ़ संगठित पुजारीवाद है जिन्होंने वैदिक पुजारी यानी ब्राह्मणवाद को अपनाया और वर्ण व्यवस्था को फैलाया जैसे आज की समय में कोई पोलटिकल पार्टी देश की किसी कोने में बनती हैं और उसकी प्रसार देश की दूसरे प्रान्त तक हो जाती हैं । पोलटिकल पार्टी के प्रोटोकॉल से पार्टी चलता है, देश की हर कोने में उनके पार्टी के पॉलिटिशियन, लीडर, मैंबर और वोटर बन जाते हैं । इसलिए अब जो ब्राह्मण वर्ग दीखते हैं उसमें कितनी असली वैदिक वंशज हैं, कितने परिवर्तित और छद्म ब्राह्मण हैं कहना मुश्किल है । लेकिन उनके सरनेम  से कुछ कुछ अर्थ निकाला जा सकता है; और किस नाम के पीछे क्या अर्थ है वह करीब करीब अंदाजा लगाया जा सकता है । जैसे चतुर्वेदी, त्रिवेदी, द्विवेदी यानी चार, तीन, और दो वेद पढ़नेवाले वर्ग इसका मतलब ये साफ़ है ये मूल वंशज नहीं है ये परिवर्तित हैं क्यों की उनको कुछ वेदों को पढ़ने का ही अनुमति थी या उनका कोई पूर्वज उतना ही वेद पढ़ा था या ज्ञान की अधिकारी थे; अगर वैदिक वंशज होते तो उनके नाम करण पढाइके हिसाब से नहीं होता । आप को त्रिपाठी सरनेम भी मिल जायेंगे जिसका मतलब है तीन (त्रि) पाठ की पढाई जो की वेद से सम्पर्कित नहीं है इसका मतलब ये सरनेम बुद्धिस्ट ओरिजिन से हो सकता है, जो बुद्धिस्ट सन्यासी बौद्ध ज्ञानसम्पदा “त्रिपिटक” की ज्ञानी थे उनके छाप इस नाम में छुपाये होंगे । वैसे आप अगर सरनेम को डिकोड करो आपको इसमें छुपा क्लू भी मिलजाएँगे । आज के करीब ६ करोड़ ब्राह्मणों में केवल १५ हजार से भी कम पूरी तरह से संस्कृत बोलने का दावा करते है, तो बाकी ब्राह्मणों को अगर अपनी मातृभाषा बोलना ही नहीं आता तो ये कैसे मानाजाये वह वैदिक वंशज से संबंधित हैं? जैसे यहाँ के इस्लाम को परिवर्तित मुसलमान आरबीक क़ुरान पढ़ के आरबी नहीं बन जाएंगे वैसे ही जो पुजारी वैदिक ब्राह्मण पहचान अपनाया, दो चार संस्कृत मंत्र बोल कर क्या वैदिक वंशज बन जाएंगे? अगर अपना मातृभाषा संस्कृत ही नहीं है तो हर भगवान संस्कृत मंत्र ही क्यों समझता है? केवल संस्कृत भाषा में भगवान को संवाद करने के पीछे क्या राज है? ये संस्कृत की दलाली या गुलामी क्यों?

इस भूखंड में दो तरह की दर्शन और उससे बनी धर्म बने; एक तर्कसंगत(Rational) और दूसरा तर्कहीन(Irrational); आजीवक, चारुवाक/लोकायत, योग, बौद्ध, जैन और आलेख इत्यादि इत्यादि बिना भगवान और बिना मूर्ति पूजा की तर्कयुक्त धर्म और दूसरा बहुदेबबाद, मूर्ति पूजन, अंधविश्वास, तर्कविहीन, हिंसा, छल कपट और भेदभाव फैलाने वाला वैदिक जैसे धर्म । अब वैदिक धर्म को सनातन और हिन्दू धर्म भी कहा जाता है, जो वैदिक वर्ण व्यवस्था के ऊपर आधारित है । राजा अशोक ने इसीलिए बौद्ध धर्म अपनाया था, क्यों के उन्हों ने पाया बौद्ध धर्म ही उनकी राज्य और प्रजा के लिए  सही दर्शन और धर्म है । उनहोंने पाया बुद्ध(563/480BCE–483/400BCE) ना खुद को भगवान माना ना कोई भगवान की प्रचार और प्रसार की । उनकी दर्शन प्रेम, करुणा, सेवा, अहिंसा, सत्य और तर्क की दर्शन पर आधारित थी ।  बुद्ध ने बहुदेबबाद और मूर्ति पूजन को नाकारा लेकिन आस्था उनकी सत्य और तर्क के ऊपर ही था । सिद्धार्था गौतम ने अपने आप को कभी भगवान की दर्जा नहीं दी ना कभी भगवान की आस्था को माना । ना वह खुद को भगवान की दूत बोला ना उनकी संतान; अगर वह भगवान की आस्था को मानते तो भगवान की वारे में उनकी विचारों में छाप होता । ना उनकी दिखाई गयी मार्ग में भगवान की जिक्र है ना उनकी कोई दर्शन में । इसलिए सिद्धार्था गौतम आज के वैज्ञानिक सोच वाले इंसान थे जिनका सोच ये था तार्किक बनो, सत्य की खोज करो, उसकी निरीक्षण और विश्लेषण करो उसके बाद अपनी तार्किक आधार पर सत्य की पुष्टि करो । आंख बंद करके अपने पूर्वज की पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाया गया अंध विश्वास की चपेट मत फंसो; ना अंध विश्वास को यूँही स्वीकार कर लो क्यों की आपसे बड़े, गुरु और बुजुर्ग इसको मानते हैं; अपने खुद की दिमाग की विकास करो और बुद्धि की हक़दार बनो जिसके आधार पर आप उनकी अंध विश्वास को दूर कर सको । उनकी आस्था सत्य और तर्कसंगतता के ऊपर थी, उनकी आस्था मानवता, करुणा, प्रेम, अहिंसा और सेवा के ऊपर थी । आपने  “बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि” के वारे में जानते होंगे जिसका सही अर्थ है “में बुद्धि यानी ज्ञान के सरण में जा रहा हूँ, में सत् कर्मों की सरण में जा रहा हूँ, में बुद्धिजीवियों के सरण में जा रहा हूँ ” यहाँ पर बुद्ध का मतलब “सिद्धार्थ गौतम” नहीं “बुद्धि यानी ज्ञान” ही है । सिद्धार्थ गौतम क्यों की सत्य, तर्क, मानवता, अहिंसा, सेवा, प्रेम और करुणा का प्रेरणा है उनकी मूर्ति को बस प्रेरणा का प्रतीक माना जाता था ना भगवान की जैसे हम आपने बाप दादाओं की तस्वीर उनके याद में लगते है ठीक वैसे ही । सिद्धार्थ गौतम ने ना कभी वेद को स्वीकार किया ना उन में लिखी हुई बातें और उनकी भगवान को स्वीकार किया अगर ऐसे होता तो उनके शिक्षा में उसका छाप जरूर होता । जबकि वैदिक धूर्त्तों ने उनके समालोचक सिद्धार्थ गौतम को ही विष्णु की अवतार बता कर उनको अपनी धर्म की छतरी के नीचे लाकर उनको भगवान बना के बहुदेववाद की मूर्त्तिवाद के श्रेणी में लाया और उनकी व्यापारी करण भी कर डाला । सिद्धार्था गौतम की मृत्यु के बाद उनके दर्शन से छेड़ छाड़ किया गया; क्योंकि सिद्धार्था गौतम बहुदेब बाद और मूर्ति पूजा की विरोधी थे ये संगठित पुजारीबाद का पेट में लात मारता था । इसलिये सिद्धार्था गौतम की मृत्यु की बाद उनकी सिद्धान्तों की अनुगामी पुजारीबाद की षडयंत्र की शिकार बना और बुद्धिजीम “हिन जन” यानी “नीच लोग” / “नीच बुद्धि” और “महा जन” यानी “ऊँचे लोग” / “उच्च बुद्धि” में तोड़ा गया; हाला की बाद में इसको अलंकृत भाषा में हीनयान और महायान शब्द का इस्तेमाल किया गया । सिद्धार्था गौतम जी के निर्वाण के मात्र 100 वर्ष बाद ही बौद्धों में मतभेद उभरकर सामने आने लगे थे । वैशाली में सम्पन्न द्वितीय बौद्ध संगीति में थेर भिक्षुओं ने मतभेद रखने वाले भिक्षुओं को संघ से बाहर निकाल दिया । अलग हुए इन भिक्षुओं ने उसी समय अपना अलग संघ बनाकर स्वयं को ‘महासांघिक’ और जिन्होंने निकाला था उन्हें ‘हीनसांघिक’ नाम दिया जिसने समय के साथ  में महायान और हीनयान का रूप धारण कर लीया । इस तरह  बौद्ध धर्म की दो शाखाएं बनगए, हीनयान निम्न वर्ग(गरीबी) और महायान उच्च वर्ग (अमीरी), हीनयान एक व्यक्त वादी धर्म था इसका शाब्दिक अर्थ है निम्न मार्ग । हीनयान संप्रदाय के लोग परिवर्तन अथवा सुधार के विरोधी थे । यह बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों का ज्यों त्यों बनाए रखना चाहते थे । हीनयान संप्रदाय के सभी ग्रंथ पाली भाषा मे लिखे गए हैं । हीनयान बुद्ध जी की पूजा भगवान के रूप मे न करके बुद्ध जी को केवल बुद्धिजीवी, महापुरुष मानते थे । हीनयान ही सिद्धार्था गौतम जी की असली शिक्षा थी । राजा अशोक ने हीनयान ही अपने राज्य में फैलाया था । मौर्य साम्राज्य बुद्धिजीम को ना केवल आपने राज्य में सिमित रखा उस को पडोसी राज्य में भी फैलाया । जहाँ जहाँ तब का समय में बौद्ध धर्म फैला, बुद्ध की प्रतिमा को बस आदर्श और प्रेरणा माना गया ना कि भगवान की मूर्ति  इसलिये आपको आज भी पहाडों में खोदित बड़े बड़े बुद्ध की मूर्त्तियां देश, बिदेस में मिलजाएँगे । ये मूर्त्तियां प्रेरणा के उत्स थे ना कि भगवान की पहचान । वैदिक वाले  उनको विष्णु का अवतार बना के अपने मुर्तिबाद के छतरी के नीचे लाया और उनको भगवान बना के उनकी ब्योपारीकरण भी कर दिया । बुद्धिजीम असलियत में संगठित पुजारीवाद यानी ब्राह्मणवाद के शिकार होकर अपभ्रंश होता चला गया । हीनयान वाले मुर्तिको “बुद्धि” यानी “तर्क संगत सत्य ज्ञान” की प्रेरणा मानते हुए मुर्ति के सामने मेडिटेसन यानी चित्त को स्थिर करने का अभ्यास करते हैं जब की ज्यादातर महायान वाले उनकी मूर्ति को भगवान मान के वैदिकों के जैसा पूजा करते हैं । महायान की ज्यादातर स्क्रिप्ट संस्कृत में लिखागया है यानी ये इस बात का सबूत है बुद्धिजीम की वैदिक करण की कोशिश की गयी । उसमे पुनः जन्म, अवतार जैसे कांसेप्ट मिलाये गए और असली बुद्धिजीम को अपभ्रंस किया गया । जो भगवान को ही नहीं मानता वह अवतार को क्यों मानेगा? अगर अवतार में विश्वास नहीं तो वह क्यों पुनर्जन्म में विश्वास करेगा? महायान सिद्धार्था गौतम जी की यानी बुद्ध की विचार विरोधी आस्था है जिसको अपभ्रंश किया गया; बाद में ये दो सखाओंसे अनेक बुद्धिजीम की साखायें बन गए और अब तरह तरह की बुद्धिजीम देखने को मिलते हैं जिसमें तंत्रयान एक है । तंत्रयान बाद में वज्रयान और सहजयान में विभाजित हुआ । जहां जहां बुद्धिजीम फैला था समय के साथ तरह तरह की सेक्ट बने जैसे तिबततियन बुद्धिजीम, जेन बुद्धिजीम इत्यादि इत्यादि । हीनयान संप्रदाय श्रीलंका, बर्मा, जावा आदि देशों मे फैला हुआ है । बाद में यह संप्रदाय दो भागों मे विभाजित हो गया- वैभाष्क एवं सौत्रान्तिक । बुद्ध ने अपने ज्ञान दिया था ना कि उनकी ज्ञान की बाजार । अगर आपको उनकी दर्शन अच्छे लगें आप उनकी सिद्धान्तों का अनुगामी बने ना की उनके नाम पे बना संगठित पहचान की और उनके उपासना पद्धत्तियोंकी । वैदिक वाले बुद्ध जन्म भूमि की भी जालसाज़ी की, क्योंकि आज तक ब्राह्मणवादी ताकतों ने देश की सत्ता संभाली और बुद्ध की जन्म भूमि की जालसाज़ी में वह कभी प्रतिरोध नहीं किया ना उसकी संशोधन; बुद्ध इंडिया के रहने वाले थे लेकिन एक जालसाज़ जर्मनी आर्किओलॉजिस्ट अलोइस आनटन फुहरेर बुद्ध की जन्म भूमि नेपाल में है बोल के झूठी प्रमाण देकर इसको आज तक सच के नाम-से फैला दिया ।  खुद आर्किओलॉजिस्ट अलोइस आनटन फुहरेर माना वह झूठा थे फिर भी आज तक बुद्ध की जन्म भूमि नेपाल ही बना रहा । बुद्ध ने अपनी ज्ञान पाली भाषा में दिया । पाली भाषा का सभ्यता कौन सा है उस को भी अपभ्रंश किया गया । अगर नेपाल में कोई पाली भाषा नहीं बोलता तो सिद्धार्था गौतम कैसे नेपाल में पैदा हो गये? नेपाल में ज्यादातर खासकुरा/गोर्खाली भाषा की सभ्यता रही तो पाली सभ्यता की सोच पूरा बेमानी है, और ये बात प्रत्यक्ष इसको झूठ साबित करता है । राजा अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद ही बौद्ध धर्म अपनाया ये इस बात का सूचक है जरूर उस समय राजा अशोक ने उड़ीसा की बौद्ध धर्म से प्रभावित रहे होंगे । उड़ीसा जिसको तब के समय में ओड्र, कलिंग, उक्कल, उत्कल इत्यादि भूखंड के नाम से जाना जाता था उनके बोलने वाले पूर्वज ही पाली बोलने वाली सभ्यता थी । अब अगर आप ओड़िआ भाषा की पालि के साथ मैच करोगे ५०% भी ज्यादा शब्द बिना अपभ्रंश के सही अर्थ के साथ मिल जायेंगे । उड़ीसा का कपिलेश्वर ही कपिलवस्तु है जो की अपभ्रंश होकर कपिलेश्वर हो गया है जब की नेपाल में कपिलवस्तु नाम का कोई स्थान ही नहीं था । जिस को आर्किओलॉजिस्ट अलोइस आनटन फुहरेर ने लुम्बिनी का नाम  दिया, असल में उसका नाम कभी लुम्बिनी ही नहीं था उसका नाम रुम्मिनदेई(Rummindei) था जिसे जबरदस्ती आर्किओलॉजिस्ट अलोइस आनटन फुहरेर अपना खोज को सही प्रमाण करने के लिए उस जगह की नाम भी बदल डाला और झूठी असोका पिलर और प्लेट वाली साजिश की । ये सब साजिश के पीछे कौन होगा आप खुद ही समझ लो । राजा अशोक ने बौद्ध धर्म सोच समझ कर ही अपना विशाल भूखंड में फैलाया था; नहीं तो वह वैदिक धर्म का प्रचार और प्रसार किया होता; इसलिए उनके राज में आप को कोई भी उनके द्वारा बनाये गए वैदिक भगवान की  मंदिर नहीं मिलेंगे जबकि ब्राह्मणो के द्वारा बौद्ध धर्म की विनाश के वाद बौद्ध मंदिरों को सब वैदक मंदिर में कनवर्ट किया गया है । वैदिक वाले बोलते हैं मुसलमान राजाओंने बौद्ध सम्पदा को नस्ट किया; तो, पूरी, तिरुपति, कोणार्क, लिंगराज इत्यादि इत्यादि मंदिरों को क्या मुसलमान राजाओंने बौद्ध मंदिर से वैदकी बनाया? इंडियन भूखंड में मुसलमान राजाओंने जितना बौद्ध सम्पदा को नस्ट नहीं की उससे ज्यादा संगठित पुजारीवाद बनाम ब्राह्मणवाद ने किया ।

इंडिया की हर व्यक्ति बुद्ध को धर्म या भगवान से नहीं जोड़ के बस इस भूखंड का विद्वान के रूप में स्वीकार करना चाहिए । क्यों के बुद्ध इस भूखंड का ही मूल निवासी थे जो जापान, साऊथ कोरिया, नॉर्थ कोरिया, चीन जैसे विकासशील  देश उनको भगवान की मर्यादा देते है । हम अगर न्यूटन, आइंस्टाइन जैसे ब्यक्तित्त्वों को ज्ञानी की मर्यादा दे सकते है तो बुद्ध को उस श्रेणी में स्वीकार क्यों नहीं करना चाहिए? वह बुद्ध जो बिना भगवान की स्वस्थ जीने का कला मानव समाज को सिखाया । उनकी आस्था सत्य और तर्क की ऊपर थी इसीलिए वह भी आस्तिक थे । वह वो आस्तिक नहीं थे जिसकी परिभाषा वैदिक वाले फैलाया था यानी जो भगवान के ऊपर आस्था/विश्वास रखे वह आस्तिक और जो नहीं वह नास्तिक । आस्तिक का मतलब किसी भी सोच के ऊपर विश्वास या आस्था रखना है और नास्तिक का मतलब कोई भी सोच के ऊपर विश्वास पर आस्था नहीं रखना; इसलिए जो सत्य, तर्कवाद और विज्ञान पर आस्था नहीं रखते वह भी इन विषयों का नास्तिक हैं । बुद्ध स्वस्तिक थे यानी “स्व” मतलब आपने यानी खुद के ऊपर और आस्तिक का मतलब आस्था यानी विश्वास करना यानी “स्वस्तिक->स्व+आस्तिक” का मतलब खुद पर ज्यादा विश्वास करो जिसका प्रतीक  卐 , 卍 है और वैदिकवाले इसका दुरुपयोग, इसके अपभ्रंश करके शुभ लाभ में करते हैं । ॐ भी बौद्ध धर्म मानने वाले पाली भाषी (ओड़िआ) लिपि से आया है जो की बुद्ध सन्यासियां आपने मेडिटेसन के समय चित्त एकाग्र के लिए इस ध्वनि को निकालते थे; जो अब वैदिक वाले पूजा पाठ के लिए इस्तेमाल करते हैं । बुद्ध ने स्वस्थ जिनका पद्धति को आपने शिक्षा में ज्यादा जोर दिया ताकि मानवता का रक्षा हो और एक दूसरे से भाई चारा बढ़े । उनकी शिक्षा  बहुत ही सरल और ज्ञान वर्धक है ।

चार सत्य – (तत्त्व ज्ञान)

    (1) दुःख : संसार मैं दुःख है, (Life is full of Sufferings; birth, sickness, old age, accidents, death etc.)

    (2) समुदय : दुःख के कारण हैं, (Major cause of sufferings are ignorance and greedful desires)

    (3) निरोध : दुःख के निवारण हैं, (Ending of ignorance and greedful desires can end sufferings which is called Nirvana)

    (4) मार्ग : निवारण के लिये अष्टांगिक मार्ग हैं। (To end sufferings follow eight noble paths)

अष्टांग मार्ग बुद्ध की प्रमुख शिक्षाओं में से एक है जो दुखों से मुक्ति पाने एवं आत्म-ज्ञान के साधन के रूप में बताया गया है। अष्टांग मार्ग के सभी ‘मार्ग’ , ‘सम्यक’ शब्द से आरम्भ होते हैं (सम्यक = अच्छी या सही)। बौद्ध प्रतीकों में प्रायः अष्टांग मार्गों को धर्मचक्र के आठ ताड़ियों (spokes) द्वारा निरूपित किया जाता है।

अष्टांग मार्ग, दुःख निरोध पाने का रास्ता है । गौतम बुद्ध कहते थे कि चार आर्य सत्य की सत्यता का निश्चय करने के लिए इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए:

१ . सम्यक दृष्टि ( अन्धविशवास तथा भ्रम से रहित )  ( Right View)
२ . सम्यक संकल्प (उच्च तथा बुद्दियुक्त ) (Right Intention/Thought)
३ . सम्यक वचन ( नम्र , उन्मुक्त , सत्यनिष्ठ )  (Right Speech)
४ . सम्यक कर्मान्त ( शानितपूर्ण , निष्ठापूर्ण ,पवित्र )  (Right Action/Conduct)
५ . सम्यक आजीव ( किसी भी प्राणी को आघात या हानि न पहुँचाना )  (Right Livelihood)
६ . सम्यक व्यायाम ( आत्म-प्रशिक्षण एवं आत्मनिग्रह हेतु )  (Right Effort)
७ . सम्यक स्मृति ( सक्रिय सचेत मन )  (Right Mindfulness)
८ . सम्यक समाधि ( जीवन की यथार्थता पर गहन ध्यान ) (Right Concentration/Meditation)

पंचशिल

दुनिया के सभी धर्म अच्छे आचरण के मौलिक सिद्धांतों पर आधारित हैं और अपने अनुयायियों को दुराचार और दुर्व्यवहार से रोकते हैं जो समाज को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचा है। इसलिए, बुद्ध की यह पंचशील आचरण की बुनियादी शिक्षाओं में शामिल है जो निम्नानुसार हैं:

1 . हत्या मत करो (जीवन के लिए सम्मान)
2 . चोरी  मत करो  (दूसरों की संपत्ति के लिए सम्मान)
3 . यौन दुर्व्यवहार  मत करो  (हमारी शुद्ध प्रकृति का सम्मान करें)
4 . झूठ बोला मत करो   (ईमानदारी का सम्मान)
5 . नशा मत करो (स्पष्ट दिमाग का सम्मान करें)

1 . No killing  (Respect for life)
2 . No stealing  (Respect for others’ property)
3 . No sexual misconduct  (Respect for our pure nature)
4 . No lying  (Respect for honesty)
5 . No intoxicants  (Respect for a clear mind)

देखाजाये तो बौद्ध ज्ञान दर्शन एक धर्म नहीं है, जीने की तार्किक नैतिक कला है और इसमें अन्य धर्मों की तरह कोई प्रबल आदेश और प्रथाएं नहीं हैं, बल्कि बेहतर मानव जीवन के लिए मार्गदर्शन है । इसमें अन्य धर्मों की तरह कोई केंद्रीय ईश्वर नहीं है जो एक केंद्रीय सृजनवादी ईश्वर होता है या तो एकेश्वरवादी या बहुईश्वरवादी रूप में होता है । बुद्ध भगवान नहीं थे । उन्होंने कभी भगवान होने का दावा नहीं किया । उन्होंने कभी भगवान और मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं किया । उन्होंने कभी भगवान के दूत होने का दावा नहीं किया । कोई भी बुद्ध हो सकता है यानी कोई भी खुद को प्रबुद्ध कर सकता है । बौद्ध धर्म आपको अपने दिमाग का मालिक बनने देता है; यह आपके दिमाग को भगवान या भगवान के अधिकारियों जैसी कुछ शक्तिशाली पहचान के साथ नहीं फंसता, जो आपके दिमाग को नियंत्रित करते हैं । केवल बौद्ध दर्शन के बारे में सीखना, आपको जिंदगी के कठिनाइयों से नहीं बचाएगा; आपको सच्ची खुशी प्राप्त करने के लिए दर्शन का पालन करना होगा । बुद्ध के बिना आज बौद्ध धर्म मौजूद है। सिद्धार्थ गौतम ने मानव जाति के साथ सार्वभौमिक सत्य के रूप में अपना ज्ञान साझा किया, विशेष रूप से “अनुयायियों” के लिए नहीं जो उनके अनुयायी बनेंगे वही उनकी ज्ञान को इस्तेमाल करेंगे दूसरे नहीं । बौद्ध ज्ञान दर्शन को नियंत्रित नहीं किया जाता है; शिक्षाओं का अभ्यास करते समय उन्हें अपनी तार्किक व्याख्याओं के साथ जो कुछ भी चाहिए, उस पर विश्वास करने की अनुमति है । किसी को भी कुछ करने के लिए मजबूर नहीं किया जाता है । बौद्ध धर्म बदलने के लिए स्वाधीन है । प्रत्येक बौद्ध केवल एक चीज को समर्पित है: सच्चाई का खोज करो । अगर यह पाया गया कि कुछ बौद्ध शिक्षाएं गलत थीं, तो शिक्षण और दर्शन को तार्किक आधार पर बदलने का स्वाधीनता है । यह किसी भी माध्यम से एक कठोर प्रणाली नहीं है। यदि विज्ञान सिद्ध करता है कि बौद्ध धर्म की कुछ मान्यता गलत है, तो बुद्ध के शिक्षा के अनुसार बौद्ध ज्ञान को भी बदलने का स्वाधीनता है ।

The-Buddha

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बुद्ध कभी भगवान, पुनर्जन्म और अवतार में विश्वास नहीं किया । बुद्ध की निर्वाण के वाद ही संगठित पुजारीवाद ने बौद्ध धर्म को अपभ्रंश और ध्वंस करने की शुरुआत कर दी थी । समय के साथ बौद्ध धर्म हीनजन(नीच लोग) और महाजन(महान लोग) में विभाजित कर दिया गया । उसके वाद ये विभाजित सेक्ट और भी टुकड़े होते चले गए । हीनयान को निम्न वर्ग(गरीबी) और महायान को  उच्च वर्ग (अमीरी) भी कहा जाता है; हीनयान एक व्यक्त वादी धर्म था जिसका अर्थ कुछ जानकार “निम्न मार्ग” भी कहते हैं । हीनयान संप्रदाय के लोग बुद्ध की प्रमुख ज्ञानसम्पदा की परिवर्तन अथवा सुधार के विरोधी थे । यह बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों का ज्यों त्यों बनाए रखना चाहते थे । हीनयान संप्रदाय के सभी ग्रंथ पाली भाषा मे लिखे गए हैं । हीनयान बुद्ध जी की पूजा भगवान के रूप मे न करके बुद्ध जी को केवल बुद्धिजीवी, महापुरुष यानी इंसान ही मानते थे । हीनयान ही सिद्धार्था गौतम जी की असली शिक्षा थी । वैदिक वाले  उनको विष्णु का अवतार बना के अपने मुर्तिबाद के छतरी के नीचे लाया और उनको भगवान बना के उनकी ब्योपारीकरण भी कर दिया । बुद्धिजीम असलियत में संगठित पुजारीवाद यानी ब्राह्मणवाद के शिकार होकर अपभ्रंश होता चला गया । हीनयान वाले मुर्तिको “बुद्धि” यानी “तर्क संगत सत्य ज्ञान” की प्रेरणा मानते हुए, यानी मूर्ति को केवल व्यक्तित्व की संज्ञान पैदा करने के लिए इस्तेमाल करते थे; इसीलिए मुर्ति के सामने मेडिटेसन यानी चित्त को स्थिर करने का योग अभ्यास करते थे; जब की ज्यादातर महायान वाले उनकी मूर्ति को भगवान मान के वैदिकों के जैसा पूजा करते हैं । महायान की ज्यादातर स्क्रिप्ट संस्कृत में लिखागया है यानी ये इस बात का सबूत है बुद्धिजीम की वैदिक करण की कोशिश की गयी । उसमे पुनः जन्म, अवतार, भगवान, देव, देवताओं, वैदिक भगवान जैसे इंद्र, ब्रम्हा, विष्णु, महेश्वर, स्वर्ग, नर्क, जैसे कांसेप्ट मिलाये गए और असली बुद्धिजीम को अपभ्रंस किया गया । जो भगवान को ही नहीं मानता वह अवतार को क्यों मानेगा? अगर अवतार में विश्वास नहीं तो वह क्यों पुनर्जन्म में विश्वास करेगा? महायान सिद्धार्था गौतम जी की यानी बुद्ध की विचार विरोधी आस्था है जिसको ब्राह्मणीकरण किया गया; बाद में ये दो हीनयान और महायान  सखाओंसे अनेक बुद्धिजीम की साखायें बन गए और अब तरह तरह की बुद्धिजीम देखने को मिलते हैं जिसमें तंत्रयान एक है । तंत्रयान बाद में वज्रयान और सहजयान में विभाजित हुआ । जहां जहां बुद्धिजीम फैला था समय के साथ तरह तरह की सेक्ट बने जैसे तिबततियन बुद्धिजीम, जेन बुद्धिजीम इत्यादि इत्यादि । हीनयान संप्रदाय श्रीलंका, बर्मा, जावा आदि देशों मे फैला हुआ है । अनुगामियों का मानना है इन देशों में फैली हीनयान अपभ्रंस नहीं है जो की गलत है । बाद में यह संप्रदाय दो भागों मे विभाजित हो गया- वैभाष्क एवं सौत्रान्तिक । बुद्ध ने अपने ज्ञान दिया था ना कि उनकी ज्ञान की बाजार । अगर आपको उनकी दर्शन अच्छे लगें आप उनकी सिद्धान्तों का अनुगामी बने ना की उनके नाम पे बना संगठित पहचान और उनके उपासना पद्धत्तियोंकी । आपका ये जानना जरूरी है, असली बुद्धिस्ट ज्ञान सम्पदा अपभ्रशं होकर उसमें तरह तरह की वैदिक सोच जैसे अवतार, पुनर्जन्म, भगवान, देव/ देवताओं, वैदिक भगवान जैसे इंद्र, ब्रम्हा, विष्णु, महेश्वर/रूद्र, स्वर्ग, नर्क, इत्यादि सोच घोलागया है और उस को सदियों अपभ्रशं करके असली बुद्ध शिक्षाओं को भ्रमित किया जारहा है, और बुद्धिजीम को वैदिक छतरी के नीचे लाने की कोशिश हमेशा हो रही है । अगर आपको कोई भी बुद्धिस्ट स्क्रिप्चर में भगवान, मूर्त्तिवाद, अवतार, पुनर्जन्म, स्वर्ग, नर्क, चमत्कार, आलोकिक, भूत प्रेत, शैतान, जादू या काला जादू, हवन, वली, भोग/प्रसाद, व्रत, गंगा स्नान, छुआ छूत, अंधविश्वास, कुतर्क, हिंसा, अपराध, आस्था से जुड़ी सामाजिक बुराईयां इत्यादि इत्यादि जैसे वैदिक आस्था देखने को मिले आपको समझलेना होगा ये अपभ्रंस है । अगर ये सब आस्था बुद्ध को पसंद होता वह वैदिक दर्शन से अलग नहीं होते । बुद्ध के निर्वाण के वाद उनकी कही गयी सिक्ष्याओं को उनके अनुयायिओं के द्वारा संगृहीत कियागया था उन्हों ने कभी अपने हाथों में लिखित पाण्डुलिपि लिखकर नहीं गये थे जो उनकी लेख और शिक्षा का अपभ्रंस न हो पाये । महाजन सेक्ट बुद्ध की असली शिक्षा से अलग है और ये ज्यादातर ब्राह्मणी करण है जिसके ज्यादातर स्क्रिप्चर संस्कृत में ही मिलेंगे; जिसको वैदिकवादी छद्म बुद्धिस्ट सन्यासिओं ने हमेशा अपभ्रंस और नष्ट करते आ रहे हैं । मेत्रेयः भावी बुद्ध  एक काल्पनिक चरित्र है जिसकी बुद्ध की सिक्ष्याओं से कोई सम्बद्ध नहीं बल्कि बुद्ध के नाम पे धूर्त्तों के द्वारा फैलाई गई  अफवाएं है, जैसे वैदिक वाले विष्णु की कल्कि अवतार के वारे अफवाएं फैलाई हुई है । बुद्ध के सिखाये गए अष्टांग मार्ग से कोई भी बुद्ध बन सकता है ।

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