ग़रीबी दूर करने का एक ही रास्ता, समाजवादी व्यवस्था – लेनिन

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एक तरफ़, धन और ऐशो-आराम बराबर बढ़ते जा रहे हैं और दूसरी तरफ़, करोड़ों-करोड़ आदमी, जो अपनी मेहनत से उस सारे धन को पैदा करते हैं, निर्धन और बेघरबार बने रहते हैं। किसान भूखों मरते हैं, मज़दूर बेकार हो इधर-उधर भटकते हैं, जबकि व्यापारी करोड़ों पूद* अनाज रूस से बाहर दूसरे देशों में भेजते हैं और कारख़ाने तथा फै़क्टरियाँ इसलिए बन्द कर दी जाती हैं कि माल बेचा नहीं जा सकता, उसके लिए बाज़ार नहीं है।

इसका कारण सबसे पहले यह है कि अधिकतर ज़मीन, सभी कल-कारख़ाने, वर्कशाॅप, मशीनें, मकान, जहाज़, इत्यादि थोड़े-से धनी आदमियों की मिल्कि़यत हैं। करोड़ों आदमी इस ज़मीन, इन कारख़ानों और वर्कशाॅपों में काम करते हैं, लेकिन ये सब कुछ हज़ार या दसियों हज़ार धनी लोगों – ज़मींदारों, व्यापारियों और मिल-मालिकों के हाथ में हैं। ये करोड़ों लोग इन धनी आदमियों के लिए मजूरी पर, उजरत पर, रोटी के एक टुकड़े के वास्ते काम करते हैं। जीने भर के लिए जितना ज़रूरी है, उतना ही मज़दूरों को मिलता है। उससे अधिक जितना पैदा किया जाता है, वह धनी मालिकों के पास जाता है। वह उनका नफ़ा, उनकी ”आमदनी” है। काम के तरीक़ों में सुधार से और मशीनों के इस्तेमाल से जो कुछ फ़ायदा होता है, वह ज़मींदारों और पूँजीपतियों की जेबों में चला जाता है: वे बेशुमार धन जमा करते हैं और मज़दूरों को चन्द टुकड़ों के सिवा कुछ नहीं मिलता। काम करने के लिए मज़दूरों को एक स्थान पर इकट्ठा कर दिया जाता है: एक बड़े फ़ार्म या बड़े कारख़ाने में कितने ही हज़ार मज़दूर एक साथ काम करते हैं। जब इस तरह से मज़दूर इकट्ठा कर दिये जाते हैं और जब विभिन्न प्रकार की मशीनें इस्तेमाल की जाती हैं, तब काम अधिक उत्पादनशील होता है: बिना मशीनों के, अलग-अलग काम करके बहुत-से मज़दूर जितना पहले पैदा करते थे, उससे कहीं अधिक आजकल एक अकेला मज़दूर पैदा करने लगा है। लेकिन काम के अधिक उत्पादनशील होने का फल सभी मेहनतकशों को नहीं मिलता, वह मुट्ठी भर बड़े-बड़े ज़मींदारों, व्यापारियों और मिल-मालिकों की जेबों में पहुँच जाता है।

अक्सर लोगों को यह कहते सुना जाता है कि ज़मींदार या व्यापारी लोगों को ”काम देते हैं” या वे ग़रीबों को रोज़गार ”देते हैं”। मिसाल के लिए, कहा जाता है कि पड़ोसी कारख़ाना या पड़ोस का बड़ा फ़ार्म स्थानीय किसानों की ”परवरिश करता है”। लेकिन असल में मज़दूर अपनी मेहनत से ही अपनी परवरिश करते हैं और उन सबको खिलाते हैं, जो ख़ुद काम नहीं करते। लेकिन ज़मींदार के खेत में, कारख़ाने या रेलवे में काम करने की इजाज़त पाने के लिए मज़दूर को वह सब मुफ़्त में मालिक को दे देना पड़ता है, जो वह पैदा करता है, और उसे केवल नाममात्र की मजूरी मिलती है। इस तरह असल में न ज़मींदार और न व्यापारी मज़दूरों को काम देते हैं, बल्कि मज़दूर अपने श्रम के फल का अधिकतर हिस्सा मुफ़्त में देकर सबके भरण-पोषण का भार उठाते हैं।

आगे चलिए। सभी आधुनिक देशों में जनता की ग़रीबी इसलिए पैदा होती है कि मज़दूरों के श्रम से जो तरह-तरह की चीज़ें पैदा की जाती हैं, वे सब बेचने के लिए, मण्डी के लिए होती हैं। कारख़ानेदार और दस्तकार, ज़मींदार और धनी किसान जो कुछ भी पैदा करवाते हैं, जो पशु पालन करवाते हैं, या जिस अनाज की बोवाई-कटाई करवाते हैं, वह सब मण्डी में बेचने के लिए, बेचकर रुपया प्राप्त करने के लिए होता है। अब रुपया ही हर जगह राज करने वाली ताक़त बन गया है। मनुष्य की मेहनत से जो भी माल पैदा होता है, सभी को रुपये से बदला जाता है। रुपये से आप जो भी चाहें, ख़रीद सकते हैं। रुपया आदमी को भी ख़रीद सकता है, अर्थात जिस आदमी के पास कुछ नहीं है, रुपया उसे रुपयेवाले आदमी के यहाँ काम करने के लिए मजबूर कर सकता है। पुराने समय में, भूदास प्रथा के ज़माने में, भूमि की प्रधानता थी। जिसके पास भूमि थी, वह ताक़त और राज-काज, दोनों का मालिक था। अब रुपये की, पूँजी की प्रधानता हो गयी है। रुपये से जितनी चाहे ज़मीन ख़रीदी जा सकती है। रुपये न हों, तो ज़मीन भी किसी काम की नहीं रहेगी, क्योंकि हल अथवा अन्य औज़ार, घोड़े-बैल ख़रीदने के लिए रुपयों की ज़रूरत पड़ती है; कपड़े-लत्ते और शहर के बने दूसरे आवश्यक सामान ख़रीदने के लिए, यहाँ तक कि टैक्स देने के लिए भी रुपयों की ज़रूरत होती है। रुपया लेने के लिए लगभग सभी ज़मींदारों ने बैंक के पास ज़मीन रेहन रखी। रुपया पाने के लिए सरकार धनी आदमियों से और सारी दुनिया के बैंक-मालिकों से क़र्ज़ा लेती है और हर वर्ष इन क़र्ज़ांे पर करोड़ों रुपये सूद देती है।

रुपये के वास्ते आज सभी लोगों के बीच भयानक आपसी संघर्ष चल रहा है। हर आदमी कोशिश करता है कि सस्ता ख़रीदे और महँगा बेचे। हर आदमी होड़ में दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है। अपने सौदे को जितना हो सके, उतना ज़्यादा बेचना और दूसरे की क़ीमतों से कम क़ीमतों पर बेचकर, लाभवाले बाज़ार या लाभवाले सौदे को दूसरे से छिपाकर रखना चाहता है। रुपये के लिए सर्वत्रा होने वाली इस हाथापाई में छोटे लोग, छोटे दस्तकार या छोटे किसान ही सबसे ज़्यादा घाटे में रहते हैं : होड़ में वे बड़े व्यापारियों या धनी किसानों से सदा पीछे रह जाते हैं। छोटे आदमी के पास कभी कुछ बचा नहीं होता। वह आज की कमाई को आज ही खाकर जीता है। पहला ही संकट, पहली ही दुर्घटना उसे अपनी आखि़री चीज़ तक को गिरवी रखने के लिए या अपने पशु को मिट्टी के मोल बेच देने के लिए लाचार कर देती है। किसी कुलक या साहूकार के हाथ में एक बार पड़ जाने पर वह शायद ही अपने को उनके चंगुल से निकाल पाये। बहुधा उसका सत्यानाश हो जाता है। हर साल हज़ारों-लाखों छोटे किसान और दस्तकार अपने झोंपड़ों को छोड़कर, अपनी ज़मीन को मुफ़्त में ग्राम-समुदाय के हाथ में सौंपकर उजरती मज़दूर, खेत-बनिहार, अकुशल मज़दूर, सर्वहारा बन जाते हैं। लेकिन धन के लिए इस संघर्ष में धनी का धन बढ़ता जाता है। धनी लोग करोड़ों रूबल बैंक में जमा करते जाते हैं। अपने धन के अलावा बैंक में दूसरे लोगों द्वारा जमा किये गये धन से भी वे मुनाफ़ा कमाते हैं। छोटा आदमी दसियों या सैकड़ों रूबल पर, जिन्हें वह बैंक या बचत-बैंक में जमा करता है, प्रति रूबल तीन या चार कोपेक सालाना सूद पायेगा। धनी आदमी इन दसियों रूबल से करोड़ों बनायेगा और करोड़ों से अपना लेन-देन बढ़ायेगा तथा एक-एक रूबल पर दस-बीस कोपेक कमायेगा।

इसीलिए सामाजिक-जनवादी** मज़दूर कहते हैं कि जनता की ग़रीबी को दूर करने का एक ही रास्ता है – मौजूदा व्यवस्था को नीचे से ऊपर तक सारे देश में बदलकर उसके स्थान पर समाजवादी व्यवस्था क़ायम करना। दूसरे शब्दों में, बड़े ज़मींदारों से उनकी जागीरें, कारख़ानेदारों से उनकी मिलें और कारख़ाने और बैंकपतियों से उनकी पूँजी छीन ली जाये, उनके निजी स्वामित्व को ख़त्म कर दिया जाये और उसे देश-भर की समस्त श्रमजीवी जनता के हाथों में दे दिया जाये। ऐसा हो जाने पर धनी लोग, जो दूसरों के श्रम पर जीते हैं, मज़दूरों के श्रम का उपयोग नहीं कर पायेंगे, बल्कि उसका उपयोग स्वयं मज़दूर तथा उनके चुने हुए प्रतिनिधि करेंगे। ऐसा होने पर साझे श्रम की उपज तथा मशीनों और सभी सुधारों से प्राप्त होने वाले लाभ तमाम श्रमजीवियों, सभी मज़दूरों को प्राप्त होंगे। धन और भी जल्दी से बढ़ना शुरू होगा, क्योंकि जब मज़दूर पूँजीपति के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए काम करेंगे, तो वे काम को और अच्छे ढंग से करेंगे। काम के घण्टे कम होंगे। मज़दूरों का खाना-कपड़ा और रहन-सहन बेहतर होगा। उनकी गुज़र-बसर का ढंग बिल्कुल बदल जायेगा।

लेकिन सारे देश के मौजूदा निजाम को बदल देना आसान काम नहीं है। इसके लिए बहुत ज़्यादा काम करना होगा, दीर्घ काल तक दृढ़ता से संघर्ष करना होगा। तमाम धनी, सभी सम्पत्तिवान, सारे बुर्जुआ*** अपनी सारी ताक़त लगाकर अपनी धन-सम्पत्ति की रक्षा करेंगे। सरकारी अफ़सर और फ़ौज सारे धनी वर्ग की रक्षा के लिए खड़ी होगी, क्योंकि सरकार ख़ुद धनी वर्ग के हाथ में है। मज़दूरोें को परायी मेहनत पर जीने वालों से लड़ने के लिए आपस में मिलकर एक होना चाहिए; उन्हें ख़ुद एक होना चाहिए और सभी सम्पत्तिहीनों को एक ही मज़दूर वर्ग, एक ही सर्वहारा वर्ग के भीतर ऐक्यबद्ध करना चाहिए। मज़दूर वर्ग के लिए यह लड़ाई कोई आसान काम नहीं होगी, लेकिन अन्त में मज़दूरों की विजय होकर रहेगी, क्योंकि बुर्जुआ वर्ग – वे लोग, जो परायी मेहनत पर जीते हैं – सारी जनता में नगण्य अल्पसंख्या है, जबकि मज़दूर वर्ग गिनती में सबसे ज़्यादा है। सम्पत्तिवानों के खि़लाफ़ मज़दूरों के खड़े होने का अर्थ है हज़ारों के खि़लाफ़ करोड़ों का खड़ा होना।

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* एक पूद में 16 किलोग्राम होते हैं।

* उस समय कम्युनिस्ट सामाजिक-जनवादी कहलाते थे।

*** बुर्जुआ का अर्थ है पूँजीवादी सम्पत्ति का मालिक। सम्पत्ति के सभी मालिकों को बुर्जुआ वर्ग कहते हैं। बड़ा बुर्जुआ वह है, जिसके पास बहुत सम्पत्ति होती है। टुटपुँजिया बुर्जुआ वह है, जिसके पास कम सम्पत्ति होती है। बुर्जुआ तथा सर्वहारा शब्दों का अर्थ है सम्पत्ति के मालिक तथा मज़दूर, धनी और सम्पत्तिहीन, अथवा वे लोग, जो अन्य लोगों के श्रम पर जीते हैं और वे लोग, जो उजरत के लिए दूसरों के वास्ते काम करते हैं।

(लेनिन की प्रसिद्ध पुस्तिका ‘गाँव के ग़रीबों से’ का एक अंश)

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