व्यवहार के बारे में (ज्ञान और व्यवहार, जानने और कर्म करने के आपसी संबंध के बारे में) – माओ त्से–तुङ, जुलाई 1937

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हम लोग “वामपंथियों” की लफ्फाजी का भी विरोध करते हैं। उनके विचार वस्तुगत प्रक्रिया के विकास की एक निश्चित मंजिल से आगे होते हैं; उनमें से कुछ लोग अपनी कल्पना की उड़ान को ही सत्य समझते हैं, और कुछ अन्य लोग तो एक ऐसे आदर्श को आज ही जबरदस्ती अमल में लाना चाहते हैं जिसे सिर्फ कल ही अमल में लाया जा सकता है। वे बहुसंख्यक लोगों के सामयिक व्यवहार से और तात्कालिक वास्तविकता से अपने को अलग कर लेते हैं तथा अपनी कार्रवाई में अपने आपको दुस्साहसवादी जाहिर कर देते हैं।

आदर्शवाद और यांत्रिक भौतिकवाद, अवसरवाद और दुस्साहसवाद, सभी की यह विशेषता होती है कि उनके यहां मनोगत और वस्तुगत के बीच खाई होती है, ज्ञान और व्यवहार में अलगाव होता है। मार्क्सवादी–लेनिनवादी ज्ञान–सिद्धांत, जिसकी विशेषता वैज्ञानिक सामाजिक व्यवहार है, इन गलत विचारधाराओं का दृढ़ता से विरोध किए बिना नहीं रह सकता। मार्क्सवादी यह मानते हैं कि विश्व के विकास की निरपेक्ष और आम प्रक्रिया में प्रत्येक ठोस प्रक्रिया का विकास सापेक्ष होता है, तथा इसलिए निरपेक्ष सत्य की अनंत धारा में विकास की हर विशेष मंजिल पर ठोस प्रक्रिया का मानव–ज्ञान सापेक्ष रूप में ही सत्य होता है। अनगिनत सापेक्ष सत्यों का समुच्चय ही निरपेक्ष सत्य होता है।(8) वस्तुगत प्रक्रिया का विकास अंतरविरोधों और संघर्षों से भरा होता है, इसी तरह मनुष्य के ज्ञान की क्रिया का विकास भी अंतरविरोधों और संघर्षों से भरा होता है। वस्तुगत संसार की समस्त द्वन्द्वात्मक क्रिया देर–सबेर मानव–ज्ञान में  प्रतिबिंबित होती है। सामाजिक व्यवहार में उद्भव, विकास और विलोप की प्रक्रिया अनंत रूप से जारी रहती है, और इसी तरह मानव–ज्ञान में उद्भव, विकास और विलोप की प्रक्रिया अनंत रूप से जारी रहती है। जैसे–जैसे निश्चित विचारों, सिद्धांतों, योजनाओं अथवा कार्यक्रमों के आधार पर वस्तुगत यथार्थ को बदलने के उद्देश्य से मनुष्य का व्यवहार लगातार आगे बढ़ता जाता है, वैसे–वैसे वस्तुगत यथार्थ के बारे में मनुष्य का ज्ञान भी लगातार गंभीर बनता जाता है। वस्तुगत यथार्थ के संसार में परिवर्तन की क्रिया कभी समाप्त नहीं होती और न मनुष्य द्वारा व्यवहार के जरिए सत्य का ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया ही कभी समाप्त होती है। मार्क्सवाद–लेनिनवाद ने सत्य का सम्पूर्ण ज्ञान कदापि संचित नहीं कर लिया है, बल्कि वह व्यवहार द्वारा अनवरत रूप से सत्य के ज्ञान का पथ प्रशस्त करता रहता है। हमारा निष्कर्ष यह है कि मनोगत और वस्तुगत, सिद्धांत और व्यवहार, जानने और कर्म करने के बीच ठोस ऐतिहासिक एकता कायम की जाए, और यह कि हम ठोस इतिहास से दूर जाने वाली सभी गलत विचारधाराओं के विरुद्ध हैं, चाहे वे “वामपंथी” हों या दक्षिणपंथी।

समाज के विकास की मौजूदा मंजिल में, इतिहास ने सर्वहारा वर्ग और उसकी पार्टी को यह जिम्मेदारी सौंप दी है कि वह दुनिया को ठीक तरह समझे और उसे बदल डाले। यह प्रक्रिया, दुनिया को बदलने का यह व्यवहार–क्रम, जिसका निर्णय वैज्ञानिक ज्ञान के अनुरूप हुआ है, दुनिया में और चीन में एक ऐतिहासिक घड़ी में पहुंच गया है, एक ऐसी महत्वपूर्ण घड़ी में जैसी मानव–इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गई। दूसरे शब्दों में यह एक ऐसी घड़ी है जिसमें दुनिया और चीन से अंधकार को पूरी तरह भगाने और एक अभूतपूर्व आलोकमय दुनिया का निर्माण करने का प्रयत्न किया जा रहा है। दुनिया को बदलने के लिए सर्वहारा वर्ग और क्रांतिकारी जनता के संघर्ष में निम्नलिखित कार्य शामिल हैं : वस्तुगत दुनिया में परिवर्तन लाना तथा साथ ही अपनी मनोगत दुनिया में भी परिवर्तन लाना-अपनी ज्ञानार्जन शक्ति में तथा मनोगत और वस्तुगत दुनिया के पारस्परिक संबंधों में परिवर्तन लाना। इस तरह का परिवर्तन पृथ्वी के एक भाग, सोवियत संघ, में लाया जा चुका है। वहां के लोग परिवर्तन की इस प्रक्रिया में तेजी ला रहे हैं। चीन और बाकी संसार की जनता या तो परिवर्तन की इस प्रक्रिया से गुजर रही है या गुजरने वाली है। और जिस वस्तुगत दुनिया में परिवर्तन लाना है, उसमें परिवर्तन के विरोधी भी मौजूद हैं, जिन्हें स्वेच्छा से और जागरूक होकर अपने अंदर परिवर्तन लाने की मंजिल में दाखिल होने से पहले मजबूर होकर अपने अंदर परिवर्तन लाने की मंजिल से गुजरना पड़ेगा। जब समग्र मानव–जाति स्वेच्छा से और जागरुक होकर अपने अंदर परिवर्तन लाएगी और दुनिया में परिवर्तन लाएगी, तभी विश्व–कम्युनिज्म के युग का उदय होगा।

व्यवहार से ही सत्य की खोज करना और व्यवहार से ही सत्य को परखना और विकसित करना। इंद्रियग्राह्य ज्ञान से आरंभ करना और उसे गत्यात्मक रूप से बुद्धिसंगत ज्ञान में विकसित करना; उसके बाद बुद्धिसंगत ज्ञान से आरंभ करके गत्यात्मक रूप से क्रांतिकारी व्यवहार का पथ प्रदर्शन करना, जिससे कि मनोगत और वस्तुगत दुनिया में परिवर्तन लाया जा सके। व्यवहार, ज्ञान फिर व्यवहार, फिर ज्ञान। इस क्रम की अनंत काल तक आवृत्ति होती रहती है और हर आवृत्ति के साथ व्यवहार और ज्ञान की अंतर्वस्तु और अधिक ऊंचे स्तर पर पहुंचती जाती है। यह है द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का समूचा ज्ञान–सिद्धांत, यह है द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का जानने और कर्म करने की एकता का सिद्धांत।

नोट

  1. वी.आई.लेनिन, “हेगेल की रचना ‘तर्क–विज्ञान’ की रूपरेखा”।
  2. देखिए : कार्ल मार्क्स, “फायरबाख संबंधी स्थापनाएं”य वी.आई.लेनिन, “भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना”, अध्याय 2, परिच्छेद 6।
  3. वी.आई.लेनिन, “हेगेल की रचना ‘तर्क–विज्ञान’ की रूपरेखा”।
  4. “समझ प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि अनुभव के आधार पर समझ प्राप्त करना व अध्ययन करना आरंभ किया जाए, अनुभवसिद्धि से ऊपर उठकर सार्वभौमिकता के स्तर पर पहुंचा जाए।” (वी.आई.लेनिन, “हेगेल की रचना ‘तर्क–विज्ञान’ की रूपरेखा”)
  5. ताङपिंग स्वर्गिक राज्य का आंदोलन 19वीं सदी के मध्य में सामंती शासन और चिङ वंश के राष्ट्रीय उत्पीड़न के विरुद्ध क्रान्तिकारी किसान आंदोलन था।
  6. यि हो तुआन आंदोलन 1900 में उत्तरी चीन में हुआ साम्राज्यवाद–विरोधी सशस्त्र आंदोलन था।
  7. 4 मई आंदोलन साम्राज्यवाद–विरोधी और सामंतवाद–विरोधी क्रान्तिकारी आंदोलन था जो 4 मई 1919 को शुरू हुआ था।
  8. क्रान्तिकारी किसान युद्ध 1927 से 1937 तक कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चला चीनी जनता का क्रान्तिकारी संघर्ष था। इसकी मुख्य अंतर्वस्तु लाल राजनीतिक सत्ता की स्थापना और विकास, कृषि क्रान्ति का विस्तार और क्वोमिंताङ प्रतिक्रिया का सशस्त्र प्रतिरोध था। इसे दूसरा क्रान्तिकारी गृहयुद्ध भी कहते हैं।
  9. वी.आई.लेनिन, “क्या करें ?”, अध्याय 1, परिच्छेद 4।
  10. वी.आई.लेनिन, “भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना”, अध्याय 2, परिच्छेद 6।
  11. जे.वी.स्तालिन, “लेनिनवाद के आधारभूत सिद्धांत”, भाग 3।
  12. देखिए : वी.आई.लेनिन, “भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना”, अध्याय 2, परिच्छेद 5।
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