क्या करें? – लेनिन (1902)

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क्या करें,किताब का अंश


अ. आलोचना की स्वतंत्रता के मायने क्या हैं?

‘आलोचना की स्वतंत्रता’ निस्संदेह मौजूदा समय का सबसे फैशनेबल नारा है। यह सभी देशों और समाजवादियों और जनवादियों के बीच चल रहे विवादों में सर्वाधिक इस्तेमाल किया जाने वाला मुद्दा है। विवाद में शामिल पार्टियों में से कोई एक अगर आलोचना की स्वतंत्रता के लिए गंभीर अपील करे तो पहली नजर में इससे ज्यादा विचित्र बात कोई और नजर नहीं आएगी। बहुतेरे यूरोपीय देशों के संवैधानिक कानून, विज्ञान और वैज्ञानिक अन्वेषणों के लिए स्वतंत्रता की गारंटी करते हैं। क्या इन कानूनों के खिलाफ इन देशों की अग्रणी पार्टियों के भीतर आवाज उठाई गई है? ‘यहां कुछ न कुछ गलत निश्चित रूप से है।’ यही किसी भी उस दर्शक की टिप्पणी होगी, जिसने आलोचना की स्वतंत्रता के इस फैशनेबल नारे को सुना होगा। इस नारे को बार-बार दोहराया तो जाता रहा है, लेकिन उसके प्रति उठे विवादों के सारतत्व को भेदा नहीं जा सकता है। ‘बिलकुल साफ है कि यह नारा एक पारंपरिक शब्द-खंड या उक्ति है, जो संक्षिप्त नामों की तरह इस्तेमाल के क्रम में वैधानिक और लगभग जातीय (एक वर्ग-विशेष का) पद हो गया है।’

वास्तव में यह किसी के लिए रहस्य नहीं है कि दो प्रवृत्तियों ने मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक लोकतंत्र में अपने स्वरूप ले लिए हैं। इनके बीच संघर्ष अब ज्वलंत रूप ले चुका है और यह संघर्ष ‘विराम संधि प्रस्ताव’ की राख के नीचे सुलग रहा है। ‘नई’ प्रवृत्ति का सारतत्व है ‘पुरातन कट्टरपंथी’ मार्क्सवाद के प्रति आलोचनात्मक रुख अख्तियार करना। जाहिर है कि इसे बर्नस्टीन द्वारा पेश किया गया है और इसे मिलेरां ने प्रदर्शित किया है।

सामाजिक जनवाद को सामाजिक क्रांति के लिए समर्पित पार्टी से परिवर्तित होकर सामाजिक सुधारों की जनवादी पार्टी हो जाना चाहिए। बर्नस्टीन इस राजनीतिक मांग को समग्र रूप से नए विचारों और तर्कों से लैस करते हैं। समाजवाद को वैज्ञानिक आधार देने और इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा के नजरिए से इसकी जरूरत को दरशाने की अपरिहार्यता को नकारा गया। बढ़ती दरिद्रता, सर्वहारापन की प्रक्रिया और पूंजीवादी अंतर्विरोध की तीव्रता जैसे महत्वपूर्ण तथ्यों को नकारा गया। अंतिम लक्ष्य जैसी अवधारणा को अपरिपक्व घोषित किया गया और सर्वहारा के अधिनायकत्व के विचार को पूरी तरह से खारिज किया गया। उदारवाद और समाजवाद के बीच एंटी-थीसिस को सिध्दांतत: नकारा गया। वर्ग संघर्ष के सिध्दांत को इस गलत आधार पर नकारा गया कि बहुमत की इच्छाओं के अनुरूप शासित होने वाले लोकतांत्रिक समाज में या तो यह व्यावहारिक ही नहीं है या फिर बेईमानी है। आदि … इत्यादि।

आखिरकार क्रांतिकारी सामाजिक लोकतंत्र से बुर्जुआ सामाजिक-सुधारवाद की ओर एक निर्णायक मोड़ की मांग के साथ-साथ मार्क्सवाद की सभी बुनियादी अवधारणाओं की बुर्जुआ आलोचना की ओर एक निर्णायक मोड़ भी आया। मार्क्सवाद की ऐसी आलोचना काफी अरसे से होती आ रही थी : राजनीतिक मंच से, यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) की ऊंची कुरसियों से और ढेर सारी पुस्तिकाओं और पुस्तकों की शृंखलाओं के जरिए। नई पीढ़ी के लिखे-पढ़े तबकों को दशकों से ऐसी आलोचनाओं के लिए योजनाबध्द ढंग से तैयार किया जाता रहा था। इन तथ्यों के आलोक में यह कोई हैरानी की बात नहीं कि सामाजिक लोकतंत्र में यह ‘नई प्रवृत्ति’, इस ‘नई आलोचना’ की प्रवृत्ति समग्र रूप से क्यों नहीं फलती-फूलती। इस नई प्रवृत्ति के विषयों को पल्लवित होकर विकसित होने की कोई खास जरूरत नहीं थी। इसका तो बुर्जुआ साहित्य से समाजवादी साहित्य की ओर भौतिक स्थानांतरण तो हो ही चुका था।

आगे बढ़ें। यदि बर्नस्टीन की सैध्दांतिक आलोचना और राजनीतिक कामनाओं की स्पष्टता कहीं से भी संदिग्ध थी तो फ्रांसीसियों ने इस नई पध्दति को और साफ प्रदर्शित करने का कष्ट उठाया। इस सिलसिले में भी फ्रांस ने अपने पुराने ‘सम्मान’ को जायज ठहराया। पुराना ‘सम्मान’ यानी ‘फ्रांस वह जमीन है, जहां कहीं से भी ज्यादा ऐतिहासिक वर्ग संघर्ष लड़े गए। हर बार एक फैसले के तईं …’ (एंगेल्स, इंट्रोडक्शन टू मार्क्स, दर 18, ब्रूमेयर)। फ्रांसीसी समाजवादियों ने शुरुआत सैध्दांतिक प्रस्थापना के बजाय काम के स्तर पर की। लोकतांत्रिक रूप से ज्यादा विकसित राजनीतिक हालात ने फ्रांस में बर्नस्टीन को तत्काल व्यवहार के धरातल पर उतार देने के मौके उसके परिणामों सहित मुहैया कराए गए। मिलेरां ने व्यावहारिक बर्नस्टीन का अद्भुत उदाहरण पेश किया।

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