सत्य की खोज, स्वतंत्र वही हो सकता है, जो स्वंय को जानता हो

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दस भिक्षु सत्य की खोज में एक बार निकले थे। उन्होने बहुत पर्वतों-पहाडों, आश्रमों की यात्रा की। लेकिन उन्हें कोई सत्य का अनुभव न हो सका। क्योंकि सारी यात्रा बाहर हो रही थी। किन्हीं पहाडों पर, किन्ही आश्रमों में, किन्हीं गुरुओं के पास खोज चल हरी थी। जब तक खोज किसी और की तरफ चलती है, तब तक उसे पाया भी कैसे जा सकता है, जो स्वयं में है।

आखिर में थक गए और अपने गांव वापस लौटने लगे। वर्षा के दिन थे, नदी बहुत पूर पर थी। उन्होने नदी पार की। पार करने के बाद सोचा कि गिन लें, कोई खो तो नहीं गया। गिनती की, एक आदमी प्रतीत हुआ खो गया है, एक भिक्षु डूब गया था। गिनती नौ होती थी। दस थे वे । दस ने नदी पार की थी। लौटकर बाहर आकर गिना, तो नौ मालूम होेते थै।

प्रत्येक व्यक्ति अपने को गिनना छोड जाता था, शेष सबको गिन लेता था। वे रोने बेठ गए। सत्य की खोज का एक साथी खो गया था। एक यात्री उस रस्ते से निकल रहा था, दूसरे गांव तक जाने के लिए । उसने उनकी पीडा पूछी, उनके गिरते आंसू देखे। उसने पूछा, क्या कठिनाई है ?

उन्होंने कहा- हम दस नदी में उतरे थे, एक साथी खो गया। उसके लिए हम रोते है। कैंसे खोंजे ? उसने देखा वे दस ही थे। वह हंसा और उसने कहा, तुम दस ही हो, व्यर्थ की खोज मत करो अपने रास्ते चला गया।

उन्होने फिर से गिनती की कि हो सकता है, उनकी गिनती में भूल हो। लेकिन उस यात्री को पता भी न था। उनकी गिनती में भूल न थी, वे गिनती तो ठीक ही जानते थे। भूल यहां थी कि कोई भी अपनी गिनती नहीं करता था।

उन्होने बहुत बार गिना, फिर भी वे नौ ही थे। और तब उनमें से एक भिक्षु नदी के किनारे गया। उसने नदी में झांककर देखा। एक चट्टान के पास पानी स्थिर था। उसे अपनी ही परछाई नीचे पानी में दिखाई पडी। वह चिल्लाया, उसने अपने मित्रों को कहाः आओ, जिसे हम खोजते थे, वह मौजुद है। दसवां साथी मिल गया है। लेकिन पानी बहुत गहरा है। और उसे हम शायद निकाल न सकेंगे। लेकिन उसका अंतिम दर्शन तो कर लें। एक-एक व्यक्ति ने उस चट्टान के पास झांककर देखा, नीचे एक भिक्षु मौजुद था। सबकी परछाई नीचे बनती उन्हे दिखाई पडी। तब इतना तो तय हो गया, इतने डूबे पानी में वह मर गया हैं।

वे उसका अंतिम संस्कार कर रहे थे। तब वह यात्री फिर वापस लौटा, उसने पूछा कि यह चिता किसके लिए जलाई हुई है ? यह क्या कर रहे हो ? उन नौ ही रोते हुए भिक्षुओं ने कहा, मित्र हमारा मर गया है। देख लिया हमने गहरे पानी में डूबी है उसकी लाश। निकालना तो संभव नहीं है। फिर वह मर भी गया होगा, हम उसका अंतिम दाह-संस्कार कर रहे है।

उस यात्री ने फिर से गिनती की और उनसे कहा, पागलों! एक अर्थ में तुम सबने अपना ही दाह-संस्कार कर लिया है। तुमने जिसे दखा है पानी में, वह तुम्हीं हो। लेकिन पानी में देख सके तुम, लेकिन स्वयं में न देख सके! प्रतिबिंब को पकड सके जल में, लेकिन खुद पर तुम्हारी दृष्टि न जा सकी! तुमने अपना ही दाह-संस्कार कर लिया। और दसों ने मिलकर उस दसवें को दफना
दिया है, जो खोया ही नहीं था।

उसकी इस बात के कहते ही उन्हें स्मरण आया कि दसंवा तो मैं ही हूं। हर आदमी को खयाल आया कि वह दसंवा आदमी तो मैं ही हूं। और जिस सत्य की खोज वे पहाडों पर नहीं कर सकते थे, अपने ही गांव लौटकर वह खोज पूरी हो गई। वे दसों ही जागृत होकर, जान कर गांव वापस लौट गये थे।

उन दस भिक्षुओं की कथा ही हम सभी की कथा है। एक को भर हम छोड जाते है- स्वंय को। और सब तरफ हमारी दृष्टि जाती है- शास्त्रो में खोजते हैं, शब्दों में खोजते हैं, शास्त्रों के वचनों में खोजते हैं, पहाडों पर, पर्वतों पर खोजते हैं, सेवा में, समाज सेवा में, प्रार्थना में, पूजा में खोजते है। सिर्फ एक व्यक्ति भर इस खोज से वंचित रह जाता है, वह दसवां आदमी वंचित रह जाता है, जो कि हम स्वयं है।

स्वतंत्रता का अर्थ है- इस स्वयं को जानने से जो जीवन उपलब्ध होता है, उसका नाम स्वतंत्रता है। स्वतंत्र होना इस जगत में सबसे दूर्लभ बात है। स्वतंत्र वही हो सकता है, जो स्वंय को जानता हो। जो स्वंय को नहीं जानता, वह परतंत्र हो सकता है या स्वच्छंद हो सकता है, लेकिन स्वतंत्र नहीं।

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