जब नन्द के प्रत्यावर्तन की सभी आशाएँ विफल हो गईं, तो शनै:-शनै: जनपद कल्याणी इस दु:ख से उबरने लगीं। थोड़े समय बाद, उन्हें लगा कि उनका सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ और उद्देश्यहीन हो चुका है, सो उन्होंने संघ में शरण लेने का विचार बनाया। प्रजापति के निर्देशन में उन्होंने सांसारिक जीवन का परित्याग कर दिया और संघ में शरण ले ली। तब तक बुद्ध ने संघ में भिक्षुणियों के प्रवेश की अनुमति दे दी थी।
यद्यपि उन्होंने संसार-त्याग कर दिया था पर अपने शरीर के प्रति उनका मोह कम नहीं हुआ था। अपने शारीरिक सौष्ठव का गर्व सदा उनमें पलता रहता। अपि च, शारीरिक सौन्दर्य सहित अन्य सभी सांसारिक वस्तुओं की अनित्यता को रेखांकित करते बुद्ध-वचनों को सुनने की वे हिम्मत न करतीं। साथ ही, उन्होंने यह भी कभी नहीं सोचा कि उनकी अप्रतिम सुन्दरता एक दिन धूमिल हो जाएगी।
फिर भी, एक दिन, मठ की अन्य भिक्षुणियों के साथ वे बुद्ध के उपदेशों को सुनने चली ही गईं। बुद्ध ने उनका मन पढ़ लिया था। अत: उन्होंने एक अति लावण्यमयी आकृति का निर्माण किया जो उनके सम्मुख उस दिन प्रवचन के समय चँवर डुलाती रही।
उपदेश के दौरान भी, जनपद कल्याणी अपने लावण्य के प्रति काफी सजग रहीं और इसी विषय में सोचतीं रहीं। पर जैसे-जैसे बुद्ध का उपदेश आगे बढ़ा, उन्होंने अपने को तेज़ी से बूढी होते पाया और वे वृद्धत्व की चरम सीमा तक पहुँच गईं; उनकी त्वचा पर झुर्रियाँ पड़ गईं, बाल सफेद हो गए, स्तन लटक गए और अचानक लोगों की अब तक लोलुप आँखों के भाव बदल गए। फिर उन्होंने स्वयं को मृत देखा और देखा कि उनका शरीर मात्र एक मल-पिण्ड है। इस दृश्य ने उन्हें आध्यात्मिक रुप से उन्नत किया और वो एक सोतपन्न बन गईं। बाद में बुद्ध के कायाविच्छन्दिक सुत्त (शरीर के क्षरण की प्रक्रिया पर प्रवचन) को सुनकर, उन्होंने अर्हत् पद प्राप्त किया।