बुद्ध के सम्बोधि-प्राप्ति के पश्चात् सुद्धोदन ने उन्हें कई बार अपने दूतों को भेज कर बुलवाने की चेष्टा की, किन्तु हर दूत बुद्ध से प्रभावित हो उनका अनुयायी बन संघ में प्रविष्ट हो जाता। अंतत: सुद्धोदन ने बुद्ध को बचपन के मित्र कालुदायी को दूत बना बुद्ध के पास अपने संदेश के साथ भेजा । कालुदायी भी भिक्षु बन उनके संघ में प्रविष्ट हो गये, किन्तु उन्हें निरंतर सुद्धोदने से मिलने को प्रेरित करते रहे । तत: कालुदायी के दो महीने के प्रयास के पश्चात् बुद्ध ने कपिलवस्तु जाने का मन बना लिया।
कपिलवस्तु पहुँच बुद्ध ने निग्रोधाराम में रुक अपने वंश के लोगों को वेस्सतन्तर जातक की कथा सुनाई । दूसरे दिन बुद्ध अपनी नित्य चर्या के अनुरुप कपिलवस्तु की सड़कों पर भिक्षाटन के लिए निकल पड़े । राहुलमाता को जब यह सूचना मिली के बुद्ध नगर में भिक्षाटन कर रहे थे तब उन्होंने स्वयं झरोखे से बुद्ध को झाँक कर देखा और उनकी तेजस्विता को देख अति प्रसन्न हुई और उनकी प्रशंसा के आठ छंद गाये जो ‘नरसिंहगाथा’ के नाम से प्रचलित हैं।
सुद्धोदन के कानों में जब यह खबर पहुँची कि बुद्ध, उनके राज्य की ही सड़कों पर भिक्षाटन कर रहे हैं तो वे बहुत खिन्न हुए। किन्तु जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि भिक्षुओं के लिए भिक्षाटन अशोकालीय नहीं है तो उन्होंने उन्हें और उनके समस्त साथियों को महल में आमंत्रित किया । उनके दर्शन को महिलाएँ भी आई। किन्तु उनकी पत्नी राहुलमाता (यशोदरा) अपने पुत्र के साथ अपने कक्ष में बैठी रही और यह बोली कि यदि उनमें शीलत्व है तो बुद्ध निश्चय ही स्वयं उनके पास आएँगे।
अपने दो विशिष्ट भिक्षुओं के साथ जब बुद्ध राहुलमता के कक्ष में पहुँचे तो राहुलमाता ज़मीन पर लेट अपने दोनों को पकड़् अपना शीष रख दिया । यह ध्यातव्य है कि जब से बुद्ध ने गृह-त्याग सारे साधनों का उपभोग बंद कर वैसा ही जैसे बुद्ध के विषय में उन्हें बताया गया था यथा केसर-परिधान और एक बार भोजन आदि।
सातवें दिन जब बुद्ध कपिलवस्तु से निकल रहे थो तो राहुलमाता ने अपने सात वर्षीय पुत्र राहुल को यह कहकर बुद्ध के पास भेजा कि “जाओ अपना उत्तराधिकार अपने पिता से माँग लो।” बुद्ध ने तब राहुल को भी अपने संघ में शरण प्रदान की।
कालान्तर में जब भिक्षुणियों का प्रवेश संघ में होना आरम्भ हुआ तो राहुलमाता भी महाप्रजापति गौतमी के संरक्षण में भिक्षुणी बन संघ में प्रविष्ट हुई।