हड़तालों के विषय में – लेनिन

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जर्मन मजदूरों का एक गीत मजदूर वर्ग के बारे में कहता है : “यदि चाहे तुम्हारी बलशाली भुजाएँ, हो जायेंगे सारे चक्के जाम”। और यह एक वास्तविकता है : फैक्टरियाँ, जमींदार की जमीन, मशीनें, रेलें, आदि से एक विराट यन्त्र के चक्के की तरह हैं, उस यन्त्र की तरह, जो विभिन्न उत्पाद हासिल करता है, उन्हें परिष्कृत करता है तथा निर्दिष्ट स्थान को भेजता है। इस पूरे यन्त्र को गतिमान करता है मजदूर, जो खेत जोतता है, खानों से खनिज पदार्थ निकालता है, फैक्टरियों में माल तैयार करता है, मकानों, वर्कशापों और रेलों का निर्माण करता है। जब मजदूर काम करने से इन्कार कर देते हैं, इस पूरे यन्त्र के ठप होने का खतरा पैदा हो जाता है। हरेक हड़ताल पूँजीपतियों को याद दिलाती है कि वे नहीं, वरन मजदूर, वे मजदूर वास्तविक स्वामी हैं, जो अधिकाधिक ऊँचे स्वर में अपने अधिकारों की घोषणा कर रहे हैं। हरेक हड़ताल मजदूरों को याद दिलाती है कि उनकी स्थिति असहाय नहीं है, कि वे अकेले नहीं हैं। जरा देखें कि हड़तालों का स्वयं हड़तालियों पर तथा किसी पड़ोस की या नजदीक की फैक्टरियों में या एक ही उद्योग की फैक्टरियों में काम करने वाले मजदूरों, दोनों पर कितना जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। सामान्य, शान्तिपूर्ण समय में मजदूर बड़बड़ाहट किये बिना अपना काम करता है, मालिक की बात का प्रतिवाद नहीं करता, अपनी हालत पर बहस नहीं करता। हड़तालों के समय वह अपनी माँगें ऊँची आवाज में पेश करता है, वह मालिकों को उनके सारे दुर्व्‍यवहारों की याद दिलाता है, वह अपने अधिकारों का दावा करता है, वह केवल अपने और अपनी मजदूरी के बारे में नहीं सोचता, वरन अपने सारे साथियों के बारे में सोचता है, जिन्होंने उसके साथ-साथ औजार नीचे रख दिये हैं और जो तकलीफों की परवाह किये बिना मजदूरों के ध्‍येय के लिए उठ खड़े हुए हैं। मेहनतकश जनों के लिए प्रत्येक हड़ताल का अर्थ है बहुत सारी तकलीफें, भयंकर तकलीफें, जिनकी तुलना केवल युध्द द्वारा प्रस्तुत विपदाओं से की जा सकती है – भूखे परिवार, मजदूरी से हाथ धो बैठना, अक्सर गिरफ्तारियाँ, शहरों से भगा दिया जाना, जहाँ उनके घरबार होते हैं तथा वे रोजगार पर लगे होते हैं। इन तमाम तकलीफों के बावजूद मजदूर उनसे घृणा करते हैं, जो अपने साथियों को छोड़कर भाग जाते हैं तथा मालिकों के साथ सौदेबाजी करते हैं। हड़तालों द्वारा प्रस्तुत इन सारी तकलीफों के बावजूद पड़ोस की फैक्टरियों के मजदूर उस समय नया साहस प्राप्त करते हैं, जब वे देखते हैं कि उनके साथी संघर्ष में जुट गये हैं। अंग्रेज मजदूरों की हड़तालों के बारे में समाजवाद के महान शिक्षक एंगेल्स ने कहा था : “जो लोग एक बुर्जुआ को झुकाने के लिए इतना कुछ सहते हैं, वे पूरे बुर्जुआ वर्ग की शक्ति को चकनाचूर करने में समर्थ होंगे।” बहुधा एक फैक्टरी में हड़ताल अनेकानेक फैक्टरियों में हड़तालों की तुरन्त शुरुआत के लिए पर्याप्त होती है। हड़तालों का कितना बड़ा नैतिक प्रभाव पड़ता है, कैसे वे मजदूरों को प्रभावित करती हैं, जो देखते हैं कि उनके साथी दास नहीं रह गये हैं और, भले ही कुछ समय के लिए, उनका और अमीर का दर्जा बराबर हो गया है! प्रत्येक हड़ताल समाजवाद के विचार को, पूँजी के उत्पीड़न से मुक्ति के लिए पूरे मजदूर वर्ग के संघर्ष के विचार को बहुत सशक्त ढंग से मजदूर के दिमाग़ में लाती है। प्राय: होता यह है कि किसी फैक्टरी या किसी उद्योग की शाखा या शहर के मजदूरों को हड़ताल के शुरू होने से पहले समाजवाद के बारे में पता ही नहीं होता और उन्होंने उसकी बात कभी सोची ही नहीं होती। परन्तु हड़ताल के बाद अध्‍ययन मण्डलियाँ तथा संस्थाएँ उनके बीच अधिक व्यापक होती जाती हैं तथा अधिकाधिक मजदूर समाजवादी बनते जाते हैं।

हड़ताल मजदूरों को सिखाती है कि मालिकों की शक्ति तथा मजदूरों की शक्ति किसमें निहित होती है; वह उन्हें केवल अपने मालिक और केवल अपने साथियों के बारे में ही नहीं, वरन तमाम मालिकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग, मजदूरों के पूरे वर्ग के बारे में सोचना सिखाती है। जब किसी फैक्टरी का मालिक, जिसने मजदूरों की कई पीढ़ियों के परिश्रम के बल पर करोड़ों की धनराशि जमा की है, मजदूरी में मामूली वृध्दि करने से इन्कार करता है, यही नहीं, उसे घटाने का प्रयत्न तक करता है और मजदूरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने की दशा में हजारों भूखे परिवारों को सड़कों पर धकेल देता है, तो मजदूरों के सामने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग समग्र रूप में समग्र मजदूर वर्ग का दुश्मन है और मजदूर केवल अपने ऊपर और अपनी संयुक्त कार्रवाई पर ही भरोसा कर सकते हैं। अक्सर होता यह है कि फैक्टरी का मालिक मजदूरों की ऑंखों में धूल झोंकने, अपने को उपकारी के रूप में पेश करने, मजदूरों के आगे रोटी के चन्द छोटे-छोटे टुकड़े फेंककर या झूठे वचन देकर उनके शोषण पर पर्दा डालने के लिए कुछ भी नहीं उठा रखता। हड़ताल मजदूरों को यह दिखाकर कि उनका “उपकारी” तो भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया है, इस धोखाधाड़ी को एक ही वार में खत्म कर देती है।

इसके अलावा हड़ताल पूँजीपतियों के ही नहीं, वरन सरकार तथा कानूनों के भी स्वरूप को मजदूरों की ऑंखों के सामने स्पष्ट कर देती है। जिस तरह फैक्टरियों के मालिक अपने को मजदूरों के उपकारी के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं, ठीक उसी तरह सरकारी अफसर और उनके चाटुकार मजदूरों को यह यकीन दिलाने का प्रयत्न करते हैं कि जार तथा जारशाही सरकार न्याय की अपेक्षानुसार फैक्टरियों के मालिकों तथा मजदूरों, दोनों का समान रूप से ध्‍यान रखते हैं। मजदूर कानून नहीं जानता, उसका सरकारी अफसरों, खास तौर पर ऊँचे पदाधिकारियों के साथ सम्पर्क नहीं होता, फलस्वरूप वह अक्सर इन सब बातों पर विश्वास कर लेता है। इतने में हड़ताल होती है। सरकारी अभियोजक, फैक्टरी इंस्पेक्टर, पुलिस और कभी-कभी सैनिक कारखाने में पहुँच जाते हैं। मजदूरों को पता चलता है कि उन्होंने कानून तोड़ा है : मालिकों को कानून इकट्ठा होने और मजदूरों की मजदूरी घटाने और खुलेआम विचार-विमर्श करने की अनुमति देता है। परन्तु मजदूर अगर कोई संयुक्त करार करते हैं, तो उन्हें अपराधी घोषित किया जाता है। मजदूरों को उनके घरों से बेदखल किया जाता है, पुलिस उन दुकानों को बन्द कर देती है, जहाँ से मजदूर खाने-पीने की चीजें उधार ले सकते हैं, उस समय भी जब मजदूर का आचरण शान्तिपूर्ण होता है, सैनिकों को उनके खिलाफ भड़काने का प्रयत्न किया जाता है। सैनिकों को मजदूरों पर गोली चलाने का आदेश दिया जाता है और जब वे भागती भीड़ पर गोली चलाकर निरस्त्र मजदूरों को मार डालते हैं, तो जार स्वयं सैनिकों के प्रति आभार-प्रदर्शन करता है (इस तरह जार ने 1895 में यारोस्लाव्ल में हड़ताली मजदूरों की हत्या करने वाले सैनिकों को धन्यवाद दिया था)। हर मजदूर के सामने यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जारशाही सरकार उसकी सबसे बड़ी शत्रु है, क्योंकि वह पूँजीपतियों की रक्षा करती है तथा मजदूरों के हाथ-पाँव बाँध देती है। मजदूर यह समझने लगते हैं कि कानून केवल अमीरों के हितार्थ बनाये जाते हैं, कि सरकारी अधिकारी उनके हितों की रक्षा करते हैं, कि मेहनतकश जनता की जुबान बन्द कर दी जाती है, उसे इस बात की अनुमति नहीं दी जाती कि वह अपनी माँगें पेश करे, कि मजदूर वर्ग को हड़ताल करने का अधिकार, मजदूर समाचारपत्र प्रकाशित करने का अधिकार, कानून बनानेवाली और कानूनों को लागू करने के कार्य की देखरेख करने वाली राष्ट्रीय सभा में भाग लेने का अधिकार अवश्य हासिल करना होगा। सरकार ख़ुद अच्छी तरह जानती है कि हड़तालें मजदूरों की ऑंखें खोलती हैं और इस कारण वह हड़तालों से डरती है तथा उन्हें यथाशीघ्र रोकने का प्रयत्न करती है। एक जर्मन गृहमन्त्री ने, जो समाजवादियों तथा वर्ग-सचेत मजदूरों को निरन्तर सताने के लिए बदनाम था, जन प्रतिनिधियों के सामने यह अकारण ही नहीं कहा था : “हर हड़ताल के पीछे क्रान्ति का कई फनोंवाला साँप (दैत्य) होता है”; प्रत्येक हड़ताल मजदूरों में इस अवबोध को दृढ़ बनाती तथा विकसित करती है कि सरकार उनकी दुश्मन है तथा मजदूर वर्ग को जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष करने के वास्ते अपने को तैयार करना चाहिए।

अत: हड़तालें मजदूरों को ऐक्यबध्द होना सिखाती हैं; उन्हें बताती हैं कि वे केवल ऐक्यबध्द होने पर ही पूँजीपतियों के विरुध्द संघर्ष कर सकते हैं; हड़तालें मजदूरों को कारखानों के मालिकों के पूरे वर्ग के विरुध्द, स्वेच्छाचारी, पुलिस सरकार के विरुध्द पूरे मजदूर वर्ग के संघर्ष की बात सोचना सिखाती है। यही कारण है कि समाजवादी लोग हड़तालों को फ्युध्द का विद्यालयय्, ऐसा विद्यालय कहते हैं, जिसमें मजदूर पूरी जनता को, श्रम करने वाले तमाम लोगों को सरकारी अधिाकारियों के जुए से, पूँजी के जुए से मुक्त करने के लिए अपने दुश्मनों के खिलाफ युध्द करना सीखते हैं।

परन्तु फ्युध्द का विद्यालयय् स्वयं युध्द नहीं है। जब हड़तालें मजदूरों के बीच व्यापक रूप से फैली होती हैं, कुछ मजदूर (कुछ समाजवादियों समेत) यह सोचने लगते हैं कि मजदूर वर्ग अपने को महज हड़तालों, हड़ताल कोषों या हड़ताल संस्थाओं तक सीमित रख सकता है, कि अकेले हड़तालों के जरिये मजदूर वर्ग अपने हालात में पर्याप्त सुधाार ला सकता है, यही नहीं, अपनी मुक्ति भी हासिल कर सकता है। यह देखकर कि संयुक्त मजदूर वर्ग में, यही नहीं, छोटी हड़तालों तक में कितनी शक्ति होती है, कुछ सोचते हैं कि मजदूर पूँजीपतियों तथा सरकार से जो कुछ भी हासिल करना चाहते हैं, उसके लिए बस इतना काफी है कि मजदूर वर्ग पूरे देश में आम हड़ताल संगठित करे। इसी तरह का विचार अन्य देशों के मजदूरों द्वारा भी व्यक्त किया गया था, जब मजदूर वर्ग आन्दोलन अपने आरम्भिक चरणों में था तथा मजदूर अभी बहुत अनुभवहीन थे। पर यह ग़लत विचार है। हड़तालें तो उन उपायों में से एक हैं, जिनके जरिये मजदूर वर्ग अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करता है, परन्तु वे एकमात्र उपाय नहीं हैं। यदि मजदूर संघर्ष करने के अन्य उपायों की ओर धयान नहीं देते, तो वे मजदूर वर्ग की संवृध्दि तथा सफलताओं की गति धाीमी कर देंगे। यह सच है कि यदि हड़तालों को कामयाब बनाना है, तो हड़तालों के दौरान मजदूरों के निर्वाह के लिए कोषों का होना जरूरी है। ऐसे मजदूर कोष (आम तौर पर उद्योग की पृथक शाखाओं, पृथक व्यवसायों तथा वर्कशापों में मजदूर कोष) तमाम देशों में रखे जाते हैं। परन्तु यहाँ रूस में यह बहुत कठिन है, क्योंकि पुलिस उनका पता लगाती है, धान जब्त कर लेती है तथा मजदूरों को गिरफ्तार करती है। निस्सन्देह, मजदूर उन्हें पुलिस से छुपाने में सफल रहते हैं; स्वभावतया ऐसे कोषों को संगठित करना महत्तवपूर्ण है और हम मजदूरों को उन्हें संगठित करने के विरुध्द परामर्श नहीं देना चाहते। परन्तु यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि मजदूर कोष कानून द्वारा निषिध्द होने पर वे चन्दा देनेवालों को बड़ी संख्या में आकृष्ट करेंगे; और जब तक ऐसे संगठनों की सदस्य संख्या कम होगी, ये कोष बहुत उपयोगी सिध्द नहीं होंगे। इसके अलावा उन देशों तक में, जहाँ मजदूर यूनियनें खुलेआम विद्यमान हैं तथा उनके पास बहुत बड़े कोष हैं, मजदूर वर्ग संघर्ष के साधान के रूप में अपने को हड़तालों तक सीमित नहीं कर सकता। जो कुछ आवश्यक है, वह उद्योग के मामलों में एक विघ्न (उदाहरण के लिए संकट, जो रूस में आज समीप आता जा रहा है) है, और कारखानों के मालिक तो जानबूझकर हड़तालें तक करायेंगे, क्योंकि कुछ समय के लिए काम का बन्द होना तथा मजदूर कोषों का घटना उनके लिए लाभप्रद होता है। इसलिए मजदूर किसी भी सूरत में अपने को हड़ताल सम्बन्धाी कार्रवाइयों तथा हड़ताल सम्बन्धाी संस्थाओं तक सीमित नहीं कर सकते। दूसरे, हड़तालें वहीं सफल हो सकती हैं, जहाँ मजदूर पर्याप्त रूप में वर्ग-सचेत होते हैं, जहाँ वे हड़तालेें करने के लिए सही अवसर चुनने में सक्षम होते हैं, जहाँ वे यह जानते हैं कि अपनी माँगें किस तरह पेश की जाती हैं, और जहाँ उनके समाजवादियों के साथ सम्बन्धा होते हैं और उनके जरिये पर्चे और पैम्फलेट हासिल कर सकते हैं। रूस में ऐसे मजदूर अभी बहुत कम हैं, उनकी तादाद बढ़ाने के लिए हर चेष्टा की जानी चाहिए, ताकि मजदूर वर्ग का धयेय जन साधाारण को बताया जा सके, उन्हें समाजवाद तथा मजदूर वर्ग के संघर्ष से अवगत कराया जा सके। समाजवादियों तथा वर्ग-सचेत मजदूरों को इस उद्देश्य के लिए समाजवादी मजदूर वर्ग पार्टी संगठित कर यह कार्यभार संयुक्त रूप से सँभालना चाहिए। तीसरे, जैसाकि हम देख चुके हैं, हड़तालें मजदूरों को बताती हैं कि सरकार उनकी शत्रु है, कि सरकार के विरुध्द संघर्ष चलाते रहना चाहिए। वस्तुत: हड़तालों ने ही धाीरे-धाीरे तमाम देशों के मजदूर वर्ग को मजदूरों के अधिाकारों तथा समग्र रूप में जनता के अधिाकारों के लिए सरकारों के खिलाफ संघर्ष करना सिखाया है। जैसाकि हम कह चुके हैं, केवल समाजवादी मजदूर पार्टी ही मजदूरों के बीच सरकार तथा मजदूर वर्ग के धयेय की सच्ची अवधाारणा का प्रचार करके यह संघर्ष चला सकती है। किसी और अवसर पर हम खास तौर पर इस बात की चर्चा करेंगे कि रूस में हड़तालें किस तरह संचालित होती हैं और वर्ग सचेत मजदूरों को कैसे उनका उपयोग करना चाहिए। यहाँ हम यह इंगित कर दें कि हड़तालें जैसाकि हम ऊपर कह चुके हैं, स्वयं युध्द नहीं, वरन फ्युध्द का विद्यालयय् हैं, कि हड़तालें संघर्ष का केवल एक साधान हैं, मजदूर वर्ग आन्दोलन का केवल एक रूप हैं। अलग-अलग हड़तालों से मजदूर श्रम करने वाले तमाम लोगों की मुक्ति के लिए पूरे मजदूर वर्ग के संघर्ष की ओर बढ़ सकते हैं और उन्हें बढ़ना चाहिए, और वे वस्तुत: तमाम देशों में उस ओर बढ़ रहे हैं। जब तमाम वर्ग-सचेत मजदूर समाजवादी हो जायेंगे, अर्थात जब वे इस मुक्ति के लिए प्रयास करेंगे, जब वे मजदूरों के बीच समाजवाद का प्रसार कर सकने, मजदूरों को अपने दुश्मनों के विरुध्द संघर्ष के तमाम तरीके सिखा सकने के लिए पूरे देश में ऐक्यबध्द हो जायेंगे, जब वे एक ऐसी समाजवादी पार्टी का निर्माण करेंगे, जो सरकारी उत्पीड़न से समग्र जनता की मुक्ति के लिए, पूँजी के जुए से समस्त मेहनतकश जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष करती है, केवल तभी मजदूर वर्ग तमाम देशों के मजदूरों के उस महान आन्दोलन का अभिन्न अंग बन सकेगा, जो समस्त मजदूरों को ऐक्यबध्द करता है तथा जो लाल झण्डा ऊपर उठाता है, जिस पर ये शब्द लिखे हुए हैं : “दुनिया के मजदूरो, एक हो!”


हम उद्योग में संकटों तथा मजदूरों के लिए उनके महत्तव की अन्यत्र विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे। हम यहाँ केवल इतना कहेंगे कि हाल के वर्षों में रूस में औद्योगिक स्थिति ठीक-ठाक रही है, उद्योग “फल- फूल” रहा है, परन्तु अब (1899 के अन्त में) इस बात के स्पष्ट लक्षण दिखायी देने लगे हैं कि इस “फलने-फूलने” का अन्त संकट के रूप में होगा : वस्तुओं की बिक्री में कठिनाइयाँ, फैक्टरी मालिकों का दिवालिया होना, छोटे मालिकों का तबाह होना तथा मजदूरों के लिए भयानक विपदाएँ (बेरोजगारी, कम मजदूरी, आदि)।

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क्रमरहित सूची

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