1899 के अन्त में लिखित।पहले पहल 1924 में प्रकाशित। अंग्रेजी से अनूदित
इधर कुछ वर्षों से रूस में मजदूरों की हड़तालें बारम्बार हो रही हैं। एक भी ऐसी औद्योगिक गुबेर्निया नहीं है, जहाँ कई हड़तालें न हुई हों। और बड़े शहरों में तो हड़तालें कभी रुकती ही नहीं। इसलिए यह बोधगम्य बात है कि वर्ग-सचेत मजदूर तथा समाजवादी हड़तालों के महत्व, उन्हें संचालित करने की विधियों तथा उनमें भाग लेने वाले समाजवादियों के कार्यभारों के प्रश्न में अधिकाधिक सतत रूप में दिलचस्पी लेते हैं।
हम यहाँ इन प्रश्नों के विषय में अपने विचारों की रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। अपने पहले लेख में हमारी योजना आमतौर पर मजदूर वर्ग आन्दोलन में हड़तालों के महत्व की चर्चा करने की है; दूसरे लेख में हम रूस में हड़ताल-विरोधी कानूनों की चर्चा करेंगे तथा तीसरे में इस बात की चर्चा करेंगे कि रूस में हड़तालें किस तरह की जाती थीं और की जाती हैं तथा उनके प्रति वर्ग-सचेत मजदूरों को क्या रुख अपनाना चाहिए:-
सबसे पहले हमें हड़तालों के शुरू होने और फैलने का कारण ढूँढ़ना चाहिए। यदि कोई आदमी हड़तालों को याद करेगा, जिनकी उसे व्यक्तिगत अनुभव से, दूसरों से सुनी रिपोर्टों या अखबारों की खबरों के माध्यम से जानकारी प्राप्त हुई हो, तो वह तुरन्त देख लेगा कि जहाँ कहीं बड़ी फैक्टरियाँ हैं तथा उनकी संख्या बढ़ती जाती है, वहाँ हड़तालें होती तथा फैलती हैं। सैकड़ों (कभी-कभी हजारों तक) लोगों को काम पर रखने वाली बड़ी फैक्टरियों में एक भी ऐसी फैक्टरी ढूँढ़ना सम्भव नहीं होगा, जहाँ हड़तालें न हुई हों। जब रूस में केवल चन्द बड़ी फैक्टरियाँ थीं, तो हड़तालें भी कम होती थीं। परन्तु जब से बड़े औद्योगिक जिलों और नये नगरों तथा गाँवों में बड़ी फैक्टरियों की तादाद बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही है, हड़तालें बारम्बार होने लगी हैं।
क्या कारण है कि बड़े पैमाने का फैक्टरी उत्पादन हमेशा हड़तालों को जन्म देता है? इसका कारण यह है कि पूँजीवाद मालिकों के खिलाफ मजदूरों के संघर्ष को लाजिमी तौर पर जन्म देता है तथा जहाँ उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है, वहाँ संघर्ष अनिवार्य ढंग से हड़तालों का रूप ग्रहण करता है।
आइये, इस पर प्रकाश डालें।
पूँजीवाद नाम उस सामाजिक व्यवस्था को दिया गया है, जिसके अन्तर्गत जमीन, फैक्टरियाँ, औजार आदि पर थोड़े-से भूस्वामियों तथा पूँजीपतियों का स्वामित्व होता है, जबकि जनसमुदाय के पास कोई सम्पत्ति नहीं होती या बहुत कम होती है तथा वह उजरती मजदूर बनने के लिए बाध्य होता है। भूस्वामी तथा फैक्टरी मालिक मजदूरों को उजरत पर रखते हैं और उनसे इस या उस किस्म का माल तैयार कराते हैं, जिसे वे मण्डी में बेचते हैं। इसके अलावा फैक्टरी मालिक मजदूरों को केवल इतनी मजदूरी देते हैं, जो उनके तथा उनके परिवारों के मात्र निर्वाह की व्यवस्था करती है, जबकि इस परिमाण से ऊपर मजदूर जितना भी पैदा करता है, वह फैक्टरी मालिक की जेब में उसके मुनाफे के रूप में चला जाता है। इस प्रकार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत जन समुदाय दूसरों का उजरती मजदूर होता है, वह अपने लिए काम नहीं करता, अपितु मजदूरी पाने के वास्ते मालिकों के लिए काम करता है। यह बात समझ में आने वाली है कि मालिक हमेशा मजदूरी घटाने का प्रयत्न करते हैं : मजदूरों को वे जितना कम देंगे, उनका मुनाफा उतना ही अधिक होगा। मजदूर अधिक से अधिक मजदूरी हासिल करने का प्रयत्न करते हैं, ताकि अपने परिवारों को पर्याप्त और पौष्टिक भोजन दे सकें, अच्छे घरों में रह सकें, दूसरे लोगों की तरह अच्छे कपड़े पहन सकें तथा भिखारियों की तरह न लगें। इस प्रकार मालिकों तथा मजदूरों के बीच मजदूरी की वजह से निरन्तर संघर्ष चल रहा है; मालिक जिस किसी मजदूर को उपयुक्त समझता है, उसे उजरत पर हासिल करने के लिए स्वतन्त्र है, इसलिए वह सबसे सस्ते मजदूर की तलाश करता है। मजदूर अपनी मर्जी के मालिक को अपना श्रम उजरत पर देने के लिए स्वतन्त्र है, इस तरह वह सबसे महँगे मालिक की तलाश करता है, जो उसे सबसे ज्यादा देगा। मजदूर चाहे देहात में काम करे या शहर में, वह अपना श्रम उजरत पर चाहे जमींदार को दे या धनी किसान को, ठेकेदार को अथवा फैक्टरी मालिक को, वह हमेशा मालिक के साथ मोल-भाव करता है, मजदूरी के लिए उससे संघर्ष करता है।