यह यही सांस्कृतिक संविधान है जो, समय के बीतने के साथ, परिवर्तन का अधीन है और जो बहुत बड़ी हद तक व्यक्ति और समाज के बीच संबंधों को निर्धारित करता है। आधुनिक नृविज्ञान ने हम को सिखाया है, तथाकथित प्रारम्रभिक संस्कृतियों की तुलनात्मक जांच के माध्यम से, कि मनुष्यों का सामाजिक व्यवहार, समाज में प्रचलित सांस्कृतिक पैटर्न और संगठन के प्रकार पर निर्भर करते हुए, बहुत अलग हो सकता है। यह इसी बुनियाद पर है कि जो लोग आदमी की स्थिति सुधारने का प्रयास कर रहे हैं वे उन की उम्मीदें को चकनाचूर कर सकते हैः मनुष्य की, उन के जैविक संविधान के कारण, एक दूसरे का सफाया करने के लिए या एक क्रूर, आत्म प्रवृत्त भाग्य की दया पर निर्भर होने के लिए, निंदा नहीं की जाती है।
यदि हम स्वयं से पूछें कि मानव जीवन को संभव रूप से ज्यादा से ज्यादा संतोषजनक बनाने के लिए समाज और आदमी की सांस्कृतिक दृष्टिकोण की संरचना को कैसे परिवर्तित किया जाना चाहिए, तो हमें लगातार इस सत्य के प्रति जागरूक होना चाहिए कि कुछ ऐसी स्थितियां हैं जिन को हम संशोधित करने में असमर्थ हैं। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया, आदमी की जैविक प्रकृति, सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, बदलाव का पराधीन नहीं है। इसके अलावा, पिछले कुछ सदियों की तकनीकी और जनसांख्यिकीय गतिविधियों ने ऐसी स्थितियां पैदा कर दी हैं जो बाकी रहने वाली हैं। किसी अपेक्षाकृत घनी बसी आबादी में जो उन सामानों के साथ हो जो लोगों के जारी अस्तित्व के लिए अनिवार्य हैं, श्रम और अत्यधिक केंद्रीकृत उत्पादक तंत्र के बीच विभाजन बिल्कुल जरूरी हैं।
समय – जो, पीछे मुड़कर देखें, तो इतना सुखद लगता है – हमेशा के लिए चला गया है जब व्यक्ति या अपेक्षाकृत छोटे समूह पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो सकता हैं। यह कहना केवल एक मामूली अतिशयोक्ति है कि मानव जाति अब भी उत्पादन और खपत का एक ग्रहों का समुदाय ही है।
मैं अब उस बिंदु पर पहुंच गया हूं कि जहां मैं संक्षिप्त संकेत कर सकता हूं कि मेरे नज्दीक हमारे समय के संकट की बुनियाद क्या है। यह व्यक्ति के समाज से संबंध का सवाल है। व्यक्ति हमेशा की तुलना में समाज पर अपनी निर्भरता के बारे में पहले से कहीं अधिक जागरुक हो गया। परन्तु वह इस आजादी को सकारात्मक संपत्ति, एक कार्बनिक संबंध, एक सुरक्षा बल के रूप में नहीं, बल्कि अपने प्राकृतिक अधिकारों, या अपने आर्थिक अस्तित्व के लिए एक खतरे के रूप में, भुगतता करता है। इसके अलावा, समाज में उसकी स्थिति ऐसे है जैसे कि उस की बनावट की अहंकारी कर्मशक्तियां लगातार बढ़ाई जा रही हैं, जब्कि उसकी सामाजिक कर्मशक्तियां, जो प्राकृतिकतः अधिक कमजोर हैं, वह उत्तरोत्तर बिगड़ रही हैं। सारे मनुष्य, समाज में उनकी स्थिति जो भी हो, गिरावट की इस प्रक्रिया से पीड़ित हैं। अनजाने में अपने स्वयं के अहंकार के कैदी, वे असुरक्षित, अकेला, और जीवन की भोली, सरल, और अपरिष्कृत आनंद से वंचित महसूस करते हैं। मनुष्य जीवन में अर्थ, लघु और खतरनाक जैसा कि यह है, केवल स्वयं को समाज के लिए वक्फ कर के ही पा सकता है।