जब हम अध्ययन करते हैं, तो अज्ञान की अवस्था से ज्ञान की अवस्था में पदार्पण करने का अंतरविरोध भी ऐसा ही होता है। मार्क्सवाद का अध्ययन करते समय एकदम आरंभ में मार्क्सवाद के बारे में हमारी अनभिज्ञता या उसके बारे में हमारा अल्प ज्ञान मार्क्सवाद संबंधी ज्ञान के साथ अंतरविरोध की स्थिति में होता है। किंतु लगन के साथ अध्ययन करने के परिणामस्वरूप अनभिज्ञता को ज्ञान में, अल्प ज्ञान को यथेष्ट ज्ञान में और मार्क्सवाद को आंखें मूंद कर लागू करने की स्थिति को उसे दक्षता के साथ लागू करने की स्थिति में बदला जा सकता है।
कुछ लोगों का विचार है कि कुछ खास अंतरविरोध इस तरह के नहीं होते। मिसाल के लिए, उत्पादक शक्तियों और उत्पादन–संबंधों के बीच के अंतरविरोध में उत्पादक शक्तियां प्रधान पहलू हैं; सिद्धांत और व्यवहार के बीच के अंतरविरोध में व्यवहार प्रधान पहलू है; आर्थिक आधार और ऊपरी ढांचे के बीच के अंतरविरोध में आर्थिक आधार प्रधान पहलू है; और इनकी अपनी स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं होता। यह धारणा एक यांत्रिक भौतिकवादी धारणा है, द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी नहीं। यह सच है कि उत्पादक शक्तियां, व्यवहार और आर्थिक आधार आम तौर पर प्रधान और निर्णयात्मक भूमिका अदा करते हैं; जो कोई इस बात से इनकार करता है वह भौतिकवादी नहीं है। लेकिन इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि एक विशेष परिस्थिति में उत्पादन–संबंध, सिद्धांत और ऊपरी ढांचे जैसे पहलू भी प्रधान और निर्णयात्मक भूमिका अदा करते हैं। जब उत्पादन–संबंधों को बदले बिना उत्पादक शक्तियों का विकास नहीं हो सकता, तब उत्पादन–संबंधों में परिवर्तन ही प्रधान और निर्णयात्मक भूमिका अदा करता है। जैसा कि लेनिन ने कहा था, “बिना क्रांतिकारी सिद्धांत के कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता”[15]; ऐसी स्थिति में क्रांतिकारी सिद्धांत की रचना और उसके प्रतिपादन की ही प्रधान और निर्णयात्मक भूमिका होती है। जब किसी काम को (चाहे कैसा ही काम क्यों न हो) करना हो, पर उसे कैसे किया जाए इस बारे में अभी तक कोई दिशा–निर्देश, विधि, योजना या नीति निर्धारित न हुई हो, तो ऐसी स्थिति में दिशा–निर्देश, विधि, योजना या नीति को निर्धारित करना ही प्रधान और निर्णायक तत्व बन जाता है। जब ऊपरी ढांचा (राजनीति, संस्कृति, आदि) आर्थिक आधार के विकास को अवरूद्ध करता है, तब राजनीतिक और सांस्कृतिक सुधार प्रधान और निर्णयात्मक तत्व बन जाते हैं। जब हम ऐसा कहते हैं, तो क्या हम भौतिकवाद से दूर भाग रहे हैं ? नहीं। कारण कि जहां हम यह मानते हैं कि इतिहास के आम विकास के दौरान भौतिक स्थिति ही मानसिक स्थिति का निर्णय करती है तथा सामाजिक अस्तित्व ही सामाजिक चेतना का निर्णय करता है, वहां हम यह भी मानते हैं और हमें ऐसा अवश्य मान लेना चाहिए कि मानसिक स्थिति की भौतिक स्थिति पर, सामाजिक चेतना की सामाजिक अस्तित्व पर तथा ऊपरी ढांचे की आर्थिक आधार पर भी प्रतिक्रिया होती है। यह मान्यता भौतिकवाद के खिलाफ नहीं है; इसके विपरीत यह यांत्रिक भौतिकवाद से बच जाती है और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पर दृढ़ता से कायम रहती है।
यदि अंतरविरोध की विशिष्टता का अध्ययन करते समय हम इन दो स्थितियों का-किसी प्रक्रिया में निहित प्रधान अंतरविरोध और अप्रधान अंतरविरोध का, तथा अंतरविरोध के प्रधान पहलू और अप्रधान पहलू का-अध्ययन नहीं करते, अर्थात यदि हम अंतरविरोध की इन दो स्थितियों की भिन्नता का अध्ययन नहीं करते, तो हम अमूर्त अध्ययन के दलदल में फंस जाएंगे और अंतरविरोध को ठोस रूप में समझ नहीं पाएंगे, और फलस्वरूप उसे हल करने के लिए सही उपाय नहीं खोज पाएंगे। अंतरविरोध की इन दो स्थितियों की भिन्नता या उनकी विशिष्टता, अंतरविरोध में शक्तियों की असमानता ही है। विश्व में निरपेक्ष समानता के साथ किसी वस्तु का विकास नहीं होता; और हमें समान विकास के सिद्धांत या संतुलित विकास के सिद्धांत का विरोध करना चाहिए। साथ ही यह ठोस अंतरविरोधपूर्ण स्थिति तथा अंतरविरोध के विकास की प्रक्रिया में उसके प्रधान और अप्रधान पहलुओं में होने वाला परिवर्तन ही नूतन के पुरातन का स्थान लेने की शक्ति को दर्शाते हैं। अंतरविरोधों में असमानता की विभिन्न अवस्थाओं का, प्रधान अंतरविरोध तथा अप्रधान अंतरविरोधों का, अंतरविरोध के प्रधान पहलू और अप्रधान पहलू का अध्ययन ही वह महत्वपूर्ण तरीका है जिसके द्वारा कोई क्रांतिकारी राजनीतिक पार्टी राजनीतिक और फौजी क्षेत्रों में अपनी रणनीतिक और कार्यनीतिक नीतियों को सही ढंग से निर्धारित करती है। सभी कम्युनिस्टों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए।
- अंतरविरोध के पहलुओं की एकरूपता और उनका संघर्ष
अंतरविरोध की सार्वभौमिकता और विशिष्टता की समस्या को समझ लेने के बाद हमें आगे बढ़कर अंतरविरोध के पहलुओं की एकरूपता और उनके संघर्ष की समस्या का अध्ययन करना चाहिए।
एकरूपता, एकता, संयोग, अंतर–व्याप्ति, अंतर–प्रवेश, अंतर–निर्भरता (या अस्तित्व के लिए अंतर–निर्भरता), अंतर–संबंध या आपसी सहयोग-इन सभी भिन्न शब्दों का एक ही अर्थ है और ये इन दो बातों के सूचक हैं : पहले, किसी वस्तु के विकास की प्रक्रिया में प्रत्येक अंतरविरोध के दोनों पहलुओं में से हर पहलू के अस्तित्व के लिए दूसरे पहलू का अस्तित्व अनिवार्य होता है, और दोनों पहलुओं का एक ही इकाई में सह–अस्तित्व होता है; दूसरे, ये दोनों परस्पर विरोधी पहलू किसी विशेष परिस्थिति में एक दूसरे में बदल जाते हैं। एकरूपता का यही मतलब है।
लेनिन ने कहा था :
द्वन्द्ववाद एक ऐसा सिद्धांत है जो इस बात को बताता है कि किस प्रकार विपरीत तत्व एकरूप हो सकते हैं और किस प्रकार वे एकरूप बनते हैं (किस प्रकार वे परिवर्तित होकर एकरूप बनते हैं)-किन परिस्थितियों में वे एक दूसरे में बदलते हुए एकरूप बन जाते हैं,-क्यों मानव–मस्तिष्क को इन विपरीत तत्वों को मृत और जड़ वस्तुओं के रूप में नहीं, बल्कि सजीव, परिस्थितिबद्ध, परिवर्तनशील, एक दूसरे में बदल जाने वाली वस्तुओं के रूप में देखना चाहिए।[16]
लेनिन के इस कथन का क्या अर्थ है ?
प्रत्येक प्रक्रिया में परस्पर विरोधी पहलू एक दूसरे को बहिष्कृत करते हैं, आपस में संघर्ष करते हैं, और एक दूसरे के विरोधी होते हैं। ऐसे परस्पर विरोधी पहलू बिना किसी अपवाद के सभी वस्तुओं की प्रक्रियाओं में तथा समस्त मानव–चिंतन में निहित होते हैं। किसी साधारण प्रक्रिया में विपरीत तत्वों की केवल एक ही जोड़ी होती है, किंतु किसी संश्लिष्ट प्रक्रिया में उनकी एक से अधिक जोड़ियां होती है। इसके अलावा, विपरीत तत्वों की विभिन्न जोड़ियां आपस में अंतरविरोधपूर्ण बन जाती हैं। इस तरह वस्तुगत जगत में सभी वस्तुओं और समस्त मानव–चिंतन की रचना होती है और उन्हें गति प्राप्त होती है।