जब कोई क्रांतिकारी गृहयुद्ध उस समय तक विकसित हो जाता है जिस समय साम्राज्यवाद और उसके पालतू कुत्तों-घरेलू प्रतिक्रियावादियों-का अस्तित्व बुनियादी तौर पर खतरे में पड़ गया हो, तब साम्राज्यवाद अपनी हुकूमत को कायम रखने की कोशिश में, अक्सर ऊपर बताए गए तरीकों से भिन्न तरीके अपनाता है; वह या तो क्रांतिकारी मोर्चे में भीतर से फूट डालने की कोशिश करता है, या घरेलू प्रतिक्रियावादियों को प्रत्यक्ष रूप से मदद पहुंचाने के लिए फौजें भेजता है। ऐसे समय में विदेशी साम्राज्यवादी और घरेलू प्रतिक्रियावादी खुलेआम एक छोर पर खड़े हो जाते हैं, और विशाल जन–समुदाय दूसरे छोर पर; इस तरह यह एक प्रधान अंतरविरोध बन जाता है, जो अन्य अंतरविरोधों के विकास को निर्धारित या प्रभावित करता है। अक्टूबर क्रांति के बाद विभिन्न पूंजीवादी देशों ने रूसी प्रतिक्रियावादियों को जो मदद दी, वह फौजी हस्तक्षेप की एक मिसाल है। 1927 में च्याङ काई–शेक की गद्दारी क्रांतिकारी मोर्चे में फूट डालने की एक मिसाल है।
कुछ भी हो, इस बात में तनिक भी संदेह नहीं कि किसी प्रक्रिया के विकास की हर मंजिल में केवल एक ही अंतरविरोध प्रधान अंतरविरोध होता है, जो प्रमुख भूमिका अदा करता है।
इस प्रकार यदि किसी प्रक्रिया में अनेक अंतरविरोध मौजूद हों, तो उनमें अवश्य ही एक प्रधान अंतरविरोध होता है, जो एक प्रमुख और निर्णयात्मक भूमिका अदा करता है, जबकि बाकी तमाम अंतरविरोध गौण और अधीनस्थ होते हैं। इसलिए किसी ऐसी जटिल प्रक्रिया का अध्ययन करते समय जिसमें दो या दो से ज्यादा अंतरविरोध मौजूद हों, हमें उसके प्रधान अंतरविरोध को खोज निकालने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। जहां एक बार हमने उसके प्रधान अंतरविरोध को पकड़ लिया, तो तमाम समस्याओं को आसानी से हल किया जा सकेगा। पूंजीवादी समाज के अपने अध्ययन में मार्क्स ने हमें यही तरीका सिखाया था। जब लेनिन और स्तालिन ने साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के आम संकट का अध्ययन किया, और जब उन्होंने सोवियत अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया, तब उन्होंने भी हमें यही सीख दी। हजारों विद्वान और व्यावहारिक कार्यकर्ता इस तरीके को नहीं समझते, और इसका नतीजा यह होता है कि वे घने कुहरे में रास्ते से भटक जाते हैं, समस्या के मर्म को नहीं पकड़ पाते और इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि वे अंतरविरोधों को हल करने का तरीका नहीं निकाल पाते।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, हमें किसी प्रक्रिया के सभी अंतरविरोधों को एक जैसा नहीं मानना चाहिए, बल्कि प्रधान और गौण अंतरविरोधों के बीच भेद करना चाहिए, और प्रधान अंतरविरोध को पकड़ने की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। लेकिन किसी अंतरविरोध में, चाहे वह प्रधान हो या गौण, क्या हम अंतरविरोध के दोनों परस्पर विरोधी पहलुओं को एक समान समझ सकते हैं ? नहीं, हम ऐसा भी नहीं कर सकते। किसी भी अंतरविरोध में परस्पर विरोधी पहलुओं का विकास असमान होता है। कभी–कभी ऐसा अवश्य लगता है कि वे संतुलित होते हैं, लेकिन यह केवल एक अस्थाई और सापेक्ष स्थिति होती है; मूल स्थिति असमानता की स्थिति ही है। दो परस्पर विरोधी पहलुओं में से एक अवश्य प्रधान होता है और दूसरा गौण। प्रधान पहलू वह होता है जो किसी अंतरविरोध में प्रमुख भूमिका अदा करता है। किसी वस्तु के स्वरूप का निर्णय मुख्यतया अंतरविरोध का प्रधान पहलू ही करता है, वह पहलू जो अपना प्रभुत्व कायम कर चुका है।
लेकिन यह स्थिति स्थिर नहीं होती; अंतरविरोध के प्रधान और अप्रधान पहलू एक दूसरे में बदल जाते हैं तथा उसी के अनुसार वस्तु का स्वरूप भी बदल जाता है। अंतरविरोध के विकास की किसी एक प्रक्रिया में अथवा किसी एक मंजिल में, प्रधान पहलू “क” है और अप्रधान पहलू “ख” है; विकास की दूसरी मंजिल में अथवा अन्य प्रक्रिया में “क” और “ख” की भूमिकाएं आपस में बदल जाती हैं-यह परिवर्तन इस बात से निर्धारित होता है कि किसी वस्तु के विकास में एक दूसरे से संघर्ष करने वाले दोनों पहलुओं की शक्ति में कितनी बढ़ती या घटती हुई है।
हम अक्सर “नूतन द्वारा पुरातन का स्थान लेने” की चर्चा करते हैं। नूतन द्वारा पुरातन का स्थान लेना विश्व का सार्वभौमिक और सदा के लिए अनुल्लंघनीय नियम है। कोई वस्तु अपने स्वरूप तथा अपनी परिस्थितियों के अनुसार अनेक प्रकार की छलांगों के जरिए एक दूसरी वस्तु में बदल जाती है; नूतन द्वारा पुरातन का स्थान लेने की प्रक्रिया यही है। प्रत्येक वस्तु में उसके नए पहलू और पुराने पहलू के बीच अंतरविरोध निहित होता है, और यह अंतरविरोध सिलसिलेवार अनेक पेचीदा संघर्षों को जन्म देता है। इन संघर्षों के परिणामस्वरूप, नया पहलू छोटे से बड़ा बन जाता है और आगे बढ़कर अपना प्रभुत्व कायम कर लेता है, जबकि पुराना पहलू बड़े से छोटे में बदल जाता है और कदम–ब–कदम विनाश की ओर अग्रसर होता है। पुराने पहलू पर नए पहलू का प्रभुत्व कायम होते ही पुरानी वस्तु गुणात्मक रूप से एक नई वस्तु में बदल जाती है। इस प्रकार किसी वस्तु का स्वरूप मुख्यत: अंतरविरोध के प्रधान पहलू द्वारा ही निर्धारित होता है, उस पहलू द्वारा जो अपना प्रभुत्व कायम कर चुका है। जब अंतरविरोध के प्रधान पहलू में, जिसने अपना प्रभुत्व कायम कर लिया है, परिवर्तन होता है, तो उसी के अनुकूल वस्तु का स्वरूप भी बदल जाता है।
पूंजीवादी समाज में, पूंजीवाद ने पुराने सामंती युग की अपनी अधीनस्थ स्थिति को प्रभुत्व की स्थिति में बदल लिया है और तदनुसार समाज का स्वरूप भी सामंती से पूंजीवादी हो गया है। नए पूंजीवादी युग में, सामंती शक्तियां, जो पहले प्रभुत्व की स्थिति में थीं, अब अधीनस्थ बन गई हैं, और कदम–ब–कदम विनाश की ओर अग्रसर हो रही हैं। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन और फ्रांस में ऐसा ही हुआ। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ–साथ पूंजीपति वर्ग, प्रगतिशील भूमिका अदा करने वाले एक नए वर्ग की स्थिति से हटकर प्रतिक्रियावादी भूमिका अदा करने वाले एक पुराने वर्ग में बदल जाता है और अंत में सर्वहारा वर्ग द्वारा उसका तख्ता उलट दिया जाता है, और वह एक ऐसा वर्ग बन जाता है जो उत्पादन के साधनों पर निजी मिलकियत और सत्ता से वंचित हो जाता है और तब वह भी कदम–ब–कदम विनाश की ओर अग्रसर होता है। सर्वहारा वर्ग, जो पूंजीपति वर्ग से संख्या में कहीं अधिक ज्यादा है और जिसका विकास पूंजीपति वर्ग के साथ–साथ, लेकिन पूंजीपति वर्ग के ही शासन में होता है, एक नई शक्ति है; पूंजीपति वर्ग की अधीनता की अपनी आरंभिक स्थिति से वह कदम–ब–कदम शक्तिशाली बनकर एक ऐसा वर्ग बन जाता है जो स्वतंत्र है और इतिहास में एक प्रमुख भूमिका अदा करता है, और अंत में राजनीतिक सत्ता छीनकर शासक वर्ग बन जाता है। इसके परिणामस्वरूप समाज का स्वरूप बदल जाता है और पुराना पूंजीवादी समाज नए समाजवादी समाज में बदल जाता है। यही वह रास्ता है जिसे सोवियत संघ ने अपनाया है और बाकी तमाम देशों को अनिवार्य रूप से अपनाना है।
उदाहरण के लिए, चीन को ही लीजिए। जिस अंतरविरोध में चीन एक अर्द्ध–उपनिवेश बना हुआ है, उसमें साम्राज्यवाद का प्रधान स्थान है, वह चीनी जनता का उत्पीड़न करता है, और चीन एक स्वतंत्र देश से बदलकर एक अर्द्ध–उपनिवेश बन गया है। किंतु इस स्थिति का बदलना अनिवार्य है; दोनों पक्षों के बीच संघर्ष में चीनी जनता की शक्ति, जो सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में बढ़ती ही जा रही है, अनिवार्य रूप से चीन को एक अर्द्ध–उपनिवेश से एक स्वतंत्र देश में बदल देगी, जबकि साम्राज्यवाद का तख्ता उलट दिया जाएगा और पुराना चीन अनिवार्य रूप से नए चीन में बदल जाएगा।
पुराने चीन के नए चीन में बदलने में वह परिवर्तन भी शामिल है जो चीन की पुरानी सामंती शक्तियों और नई जन–शक्तियों के बीच के संबंधों में होता है। पुराने सामंती जमींदार वर्ग का तख्ता उलट दिया जाएगा और वह शासक की स्थिति से हटकर शासित बन जाएगा; और यह वर्ग भी कदम–ब–कदम विनाश की ओर अग्रसर होगा। सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में जनता शासितों की अवस्था से शासकों की अवस्था में पहुंच जाएगी। तब चीनी समाज के स्वरूप में भी परिवर्तन होगा और पुराना, अर्द्ध–औपनिवेशिक तथा अर्द्ध–सामंती समाज एक नए जनवादी समाज में बदल जाएगा।
इस तरह के पारस्परिक रूपांतरण के उदाहरण हमारे अतीतकालीन अनुभव में भी मिलते हैं। छिङ वंश, जो लगभग तीन सौ साल तक चीन पर शासन करता रहा, 1911 की क्रांति में उखाड़ फेंका गया, और सुन यात–सेन के नेतृत्व में क्रांतिकारी थुङ मङ ह्वेइ ने कुछ समय के लिए विजय प्राप्त की। 1924-27 के क्रांतिकारी युद्ध में कम्युनिस्ट–क्वोमिंताङ संश्रय की क्रांतिकारी शक्तियां दक्षिण में कमजोर से शक्तिशाली बनती गर्इं और उत्तरी अभियान में विजयी हुर्इं, जबकि उत्तरी युद्ध–सरदारों का, जिनका किसी समय बड़ा रोब था, तख्ता उलट दिया गया। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चलने वाली जन–शक्तियां 1927 में क्वोमिंताङ की प्रतिक्रियावादी शक्तियों के प्रहारों के कारण बहुत कमजोर हो गर्इं, किंतु अपनी पांतों से अवसरवाद को नेस्तनाबूद कर लेने पर वे एक बार फिर कदम–ब–कदम विकास करने लगीं। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में क्रांतिकारी आधार–क्षेत्रों के किसान, जो पहले शासित थे, अब शासक बन गए हैं, जबकि जमींदारों का इससे उल्टी दिशा में रूपांतर हो गया है। दुनिया में इसी तरह नूतन हमेशा पुरातन की जगह स्थापित होता जाता है, और पुरातन का स्थान लेता जाता है, पुरातन का अंत और नूतन का उदय होता जाता है या पुरातन के अंदर से नूतन का उदय होता जाता है।
क्रांतिकारी संघर्ष के दौरान कभी–कभी कठिनाइयों का पलड़ा अनुकूल स्थितियों के मुकाबले ज्यादा भारी हो जाता है और इसलिए वे अंतरविरोध का प्रधान पहलू बन जाती हैं और अनुकूल स्थितियां अंतरविरोध का गौण पहलू बन जाती हैं। लेकिन क्रांतिकारी लोग अपनी कोशिशों के जरिए कठिनाइयों पर कदम–ब–कदम काबू पा सकते हैं और एक नई अनुकूल स्थिति पैदा कर सकते हैं; इस प्रकार कठिन स्थिति की जगह अनुकूल स्थिति पैदा हो जाती है। 1927 में चीन में क्रांति की असफलता के बाद और चीनी लाल सेना के लंबे अभियान के दौरान ऐसा ही हुआ था। वर्तमान चीन–जापान युद्ध में चीन फिर एक कठिन स्थिति में आ पड़ा है; लेकिन हम इस स्थिति को बदल सकते हैं तथा चीन और जापान दोनों के बीच की स्थिति में आमूल परिवर्तन ला सकते हैं। इसके विपरीत यदि क्रांतिकारी लोग गलतियां करेंगे, तो अनुकूल स्थितियां भी कठिनाइयों में बदल सकती हैं। 1924-27 की क्रांति की जीत हार में बदल गई थी। 1927 के बाद दक्षिणी प्रांतों में जिन क्रांतिकारी आधार–क्षेत्रों का विकास हुआ था, वे सबके सब 1934 में पराजित हो गए।