चूंकि विशिष्ट सामान्य के साथ संबद्ध होता है, और चूंकि अंतरविरोध की विशिष्टता के साथ–साथ उसकी सार्वभौमिकता भी प्रत्येक वस्तु में निहित होती है, तथा सार्वभौमिकता विशिष्टता में निहित होती है, इसलिए किसी वस्तु का अध्ययन करते समय हमें उस वस्तु के अंदर ही विशिष्ट और सामान्य का तथा उनके अंतरसंबंधों का पता लगाने का प्रयत्न करना चाहिए, विशिष्टता और सार्वभौमिकता का तथा उनके अंतरसंबंधों का पता लगाने का प्रयत्न करना चाहिए, तथा उस वस्तु के और उसके बाहर की अनेक वस्तुओं के अंतरसंबंधों का पता लगाने का भी प्रयत्न करना चाहिए। जब स्तालिन ने अपनी प्रसिद्ध रचना “लेनिनवाद के आधारभूत सिद्धांत” में लेनिनवाद के ऐतिहासिक उद्गम की व्याख्या की, तो उन्होंने उस अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति का विश्लेषण किया जिसमें लेनिनवाद का जन्म हुआ था, साथ ही उन्होंने पूंजीवाद के उन विभिन्न अंतरविरोधों का भी विश्लेषण किया जो साम्राज्यवाद की परिस्थितियों में अपनी चरम अवस्था पर पहुंच चुके थे, और यह स्पष्ट किया कि किस प्रकार इन अंतरविरोधों ने सर्वहारा क्रांति के सवाल को एक फौरी कार्रवाई का सवाल बना दिया है, और पूंजीवाद पर सीधा हमला बोल देने के लिए अनुकूल परिस्थितियां पैदा कर दी हैं। यही नहीं, उन्होंने अपने विश्लेषण द्वारा उन कारणों को भी स्पष्ट किया है जिनसे रूस लेनिनवाद का हिंडोला बन गया, जारशाही रूस साम्राज्यवाद के तमाम अंतरविरोधों का केंद्र बिंदु बन गया, तथा रूसी सर्वहारा वर्ग अंतरराष्ट्रीय क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग का हिरावल दस्ता बन गया। इस तरह, स्तालिन ने साम्राज्यवाद में निहित अंतरविरोध की सार्वभौमिकता का विश्लेषण करते हुए यह दिखाया कि किस तरह लेनिनवाद साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के युग का मार्क्सवाद है, और इसके साथ–साथ उन्होंने साम्राज्यवाद के इस आम अंतरविरोध में जारशाही रूसी साम्राज्यवाद की विशिष्टता का विश्लेषण करते हुए यह दिखाया कि किस तरह रूस सर्वहारा क्रांति के सिद्धांत और कार्यनीति की जन्मभूमि बना और किस तरह ऐसी विशिष्टता में अंतरविरोध की सार्वभौमिकता निहित है। स्तालिन द्वारा किया गया यह विश्लेषण अंतरविरोध की विशिष्टता और सार्वभौमिकता तथा उनके अंतरसंबंधों को समझने में हमारे लिए एक आदर्श उपस्थित करता है।
वस्तुगत घटनाओं के अध्ययन में द्वन्द्ववाद को लागू करने के सवाल पर मार्क्स और एंगेल्स ने, और उसी तरह लेनिन और स्तालिन ने भी, लोगों को हमेशा यह सिखाया कि उन्हें किसी भी तरह की मनोगतवादी स्वेच्छाचारिता को काम में नहीं लाना चाहिए, बल्कि वास्तविक वस्तुगत गति की ठोस परिस्थितियों के बीच से इन घटनाओं में निहित ठोस अंतरविरोधों को, प्रत्येक अंतरविरोध के हरेक पहलू की ठोस भूमिका को, तथा अंतरविरोधों के ठोस अंतरसंबंधों को ढूंढ़ निकालना चाहिए। हमारे कठमुल्लावादी लोग अपने अध्ययन में यह रवैया नहीं अपनाते और इसलिए उनकी कोई बात कभी ठीक नहीं हो सकती। हमें उनकी असफलता से सबक लेना चाहिए और उपरोक्त रवैया अपनाना सीख लेना चाहिए, जो अध्ययन का एकमात्र सही तरीका है।
अंतरविरोध की सार्वभौमिकता और अंतरविरोध की विशिष्टता के बीच का संबंध अंतरविरोध के सामान्य स्वरूप और व्यक्तिगत स्वरूप के बीच का संबंध है। अंतरविरोध के सामान्य स्वरूप से हमारा तात्पर्य यह है कि अंतरविरोध सभी प्रक्रियाओं में मौजूद है और सभी प्रक्रियाओं में शुरू से अंत तक बना रहता है; गति, वस्तुएं, प्रक्रियाएं, विचार-ये सभी अंतरविरोध हैं। अंतरविरोध से इनकार करना हर बात से इनकार करना है। यह एक ऐसा सार्वभौमिक सत्य है जो सभी कालों और सभी देशों के लिए मान्य है, जिसका कोई अपवाद नहीं है। यही वजह है कि अंतरविरोध का सामान्य स्वरूप होता है, उसमें निरपेक्षता होती है। किंतु यह सामान्य स्वरूप प्रत्येक व्यक्तिगत स्वरूप में पाया जाता है; बिना व्यक्तिगत स्वरूप के सामान्य स्वरूप का अस्तित्व संभव नहीं। यदि तमाम व्यक्तिगत स्वरूपों को हटा दिया जाए, तो भला कैसा सामान्य स्वरूप बचा रह जाएगा ? व्यक्तिगत स्वरूपों की रचना इसीलिए होती है कि प्रत्येक अंतरविरोध विशिष्ट होता है। सभी व्यक्तिगत स्वरूपों का अस्तित्व परिस्थितिबद्ध और अस्थाई होता है, इसलिए वे सापेक्ष होते हैं।
सामान्य स्वरूप और व्यक्तिगत स्वरूप, निरपेक्षता और सापेक्षता, के बारे में यह सच्चाई वस्तुओं में मौजूद अंतरविरोध की समस्या का सार है; इसे न समझने का अर्थ है द्वन्द्ववाद को तिलांजलि दे देना।
- प्रधान अंतरविरोध और अंतरविरोध का प्रधान पहलू
अंतरविरोध की विशिष्टता की समस्या में और दो बातें ऐसी हैं जिनका एक–एक करके विशेष रूप से विश्लेषण किया जाना चाहिए। ये दोनों हैं : प्रधान अंतरविरोध और अंतरविरोध का प्रधान पहलू।
किसी वस्तु के विकास की जटिल प्रक्रिया में अनेक अंतरविरोध होते हैं; इनमें अनिवार्य रूप से एक प्रधान अंतरविरोध होता है जिसका अस्तित्व और विकास अन्य अंतरविरोधों के अस्तित्व और विकास को निर्धारित या प्रभावित करता है।
उदाहरण के लिए, पूंजीवादी समाज में दो अंतरविरोधपूर्ण शक्तियों, सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग, के बीच का अंतरविरोध प्रधान अंतरविरोध होता है; अन्य अंतरविरोध-उदाहरण के लिए, बचे–खुचे सामंती वर्ग और पूंजीपति वर्ग के बीच का अंतरविरोध, निम्न–पूंजीपति वर्ग के किसानों और पूंजीपति वर्ग के बीच का अंतरविरोध, सर्वहारा वर्ग और निम्न–पूंजीपति वर्ग के किसानों के बीच का अंतरविरोध, गैर–इजारेदार पूंजीपति वर्ग और इजारेदार पूंजीपति वर्ग के बीच का अंतरविरोध, पूंजीवादी जनवाद और पूंजीवादी फासिस्टवाद के बीच का अंतरविरोध, खुद पूंजीवादी देशों के बीच का अंतरविरोध, साम्राज्यवाद और उपनिवेशों के बीच का अंतरविरोध, आदि इसी प्रधान अंतरविरोध से निर्धारित या प्रभावित होते हैं।
चीन जैसे अर्द्ध–औपनिवेशिक देशों में प्रधान अंतरविरोध और अप्रधान अंतरविरोधों के बीच के संबंध एक जटिल परिस्थिति उपस्थित करते हैं।
साम्राज्यवाद जब ऐसे देश के खिलाफ हमलावर युद्ध छेड़ देता है, तो उस देश के विभिन्न वर्ग, कुछ देशद्रोहियों को छोड़कर, साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय युद्ध चलाने के लिए अस्थाई रूप से एकताबद्ध हो सकते हैं। ऐसे समय में साम्राज्यवाद और उस देश के बीच का अंतरविरोध प्रधान अंतरविरोध बन जाता है, जबकि देश के अंदर के विभिन्न वर्गों के बीच के सभी अंतरविरोधों (जिनमें यह प्रधान अंतरविरोध-सामंती व्यवस्था और विशाल जन–समुदाय के बीच का अंतरविरोध-भी शामिल है) की स्थिति अस्थाई रूप से गौण अथवा अधीनता की हो जाती है। 1840 के अफीम युद्ध में, 1894 के चीन–जापान युद्ध में और 1900 के ई हो थ्वान युद्ध में चीन में यही हुआ था, और वर्तमान चीन–जापान युद्ध में भी यही हो रहा है।
किंतु एक भिन्न अवस्था में अंतरविरोधों की स्थिति में परिवर्तन हो जाता है। जब साम्राज्यवाद अपने उत्पीड़न को जारी रखने के लिए युद्ध को नहीं, बल्कि अपेक्षाकृत नरम तरीकों-राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक तरीकों-को इस्तेमाल में लाता है, तब अर्द्ध–औपनिवेशिक देशों के शासक वर्ग साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेक देते हैं; वे दोनों ही विशाल जन–समुदाय का संयुक्त रूप से उत्पीड़न करने के लिए गठजोड़ कायम कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में साम्राज्यवाद और सामंती वर्ग के इस गठजोड़ का विरोध करने के लिए विशाल जन–समुदाय अक्सर गृहयुद्ध का रास्ता अपनाता है, और साम्राज्यवाद अक्सर अर्द्ध–औपनिवेशिक देशों में प्रत्यक्ष कार्रवाई करने के बजाय जनता का उत्पीड़न करने के लिए प्रतिक्रियावादियों को परोक्ष रूप में सहायता देता है; और इस प्रकार आंतरिक अंतरविरोध विशेष रूप से तीव्र हो जाते हैं। 1911 के क्रांतिकारी युद्ध में, 1924-27 के क्रांतिकारी युद्ध में, और 1927 से चल रहे दस वर्षों के भूमि–क्रांति युद्ध में चीन में ऐसा ही हुआ। अर्द्ध–औपनिवेशिक देशों में विभिन्न प्रतिक्रियावादी शासक गुटों के बीच होने वाले गृहयुद्ध भी, जैसे चीन में युद्ध–सरदारों के आपसी युद्ध, इसी श्रेणी में आते हैं।