किसी वस्तु के विकास की प्रक्रिया में प्रत्येक मंजिल पर अंतरविरोधों की विशिष्टताओं का अध्ययन करते समय, हमें न केवल उन्हें इन अंतरविरोधों के अंतर–संबंधों अथवा इनकी समग्रता में देखना चाहिए, बल्कि प्रत्येक मंजिल में निहित प्रत्येक अंतरविरोध के दोनों पहलुओं को भी देखना चाहिए।
मिसाल के लिए, क्वोमिंताङ और कम्युनिस्ट पार्टी पर ही गौर कीजिए। उसके एक पहलू क्वोमिंताङ को लीजिए। प्रथम संयुक्त मोर्चे के काल में क्वोमिंताङ ने रूस से संश्रय, कम्युनिस्ट पार्टी से सहयोग और मजदूर–किसानों की सहायता, सुन यात–सेन की इन तीन महान नीतियों पर अमल किया; इसलिए वह क्रांतिकारी और शक्ति से ओतप्रोत हो गई थी, वह जनवादी क्रांति के लिए विभिन्न वर्गों का संश्रय बन गई थी। किंतु 1927 से क्वोमिंताङ अपने विपरीत तत्व में बदलकर जमींदार वर्ग तथा बड़े पूंजीपतियों के वर्ग का प्रतिक्रियावादी गुट बन गई। दिसंबर 1936 में शीआन घटना के बाद, उसके अंदर गृहयुद्ध को बंद करने तथा जापानी साम्राज्यवाद का संयुक्त रूप से विरोध करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी से सहयोग करने की दिशा में परिवर्तन शुरू हुआ। यही हैं इन तीन मंजिलों में क्वोमिंताङ की विशिष्टताएं। इसमें शक नहीं कि ये विशिष्टताएं विभिन्न कारणों से पैदा हुईं। अब हम दूसरे पहलू, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को लेते हैं। प्रथम संयुक्त मोर्चे के काल में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शैशवावस्था में थी; 1924-27 की क्रांति का उसने साहस के साथ नेतृत्व किया, किंतु जहां तक क्रांति के स्वरूप, उसके कार्य और तरीकों के बारे में उसकी समझ का सवाल है, उसने अपनी अपरिपक्वता का परिचय दिया, और फलस्वरूप छन तू–श्यूवाद, जो इस क्रांति के उत्तरार्ध में प्रकट हुआ था, अपना असर डालने और इस क्रांति को असफल करने में कामयाब हुआ। 1927 से, कम्युनिस्ट पार्टी ने फिर भूमि–क्रांति युद्ध का साहस के साथ नेतृत्व किया और क्रांतिकारी फौज तथा क्रांतिकारी आधार–क्षेत्रों की स्थापना की; किंतु उसने दुस्साहसवाद की गलतियां भी कीं, जिनसे फौज और आधार–क्षेत्रों दोनों को ही भारी नुकसान उठाना पड़ा। 1935 से पार्टी ने अपनी इन गलतियों को दुरुस्त कर लिया है और वह जापान–विरोधी नए संयुक्त मोर्चे का नेतृत्व कर रही है; इस महान संघर्ष का अब विकास हो रहा है। वर्तमान मंजिल में, कम्युनिस्ट पार्टी एक ऐसी पार्टी है जो दो क्रांतियों की परीक्षा से गुजर चुकी है और जिसने समृद्ध अनुभव प्राप्त कर लिए हैं। यही हैं इन तीन मंजिलों में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की विशिष्टताएं। ये विशिष्टताएं भी विभिन्न कारणों से पैदा हुई हैं। इन दोनों तरह की विशिष्टताओं का अध्ययन किए बिना हम विकास की विभिन्न मंजिलों में दोनों पार्टियों के विशिष्ट संबंधों को-अर्थात संयुक्त मोर्चे की स्थापना, संयुक्त मोर्चे का विघटन, और एक अन्य संयुक्त मोर्चे की स्थापना को-नहीं समझ सकते। यही नहीं, दोनों पार्टियों की विशिष्टताओं का अध्ययन करने के लिए और भी ज्यादा बुनियादी बात यह है कि हमें दोनों पार्टियों के वर्ग–आधार का तथा इसके फलस्वरूप उन दोनों में से प्रत्येक पार्टी तथा अन्य शक्तियों के बीच विभिन्न कालों में पैदा हुए अंतरविरोधों का अध्ययन करना चाहिए। उदाहरण के लिए, कम्युनिस्ट पार्टी के साथ अपने पहले सहयोग के काल में क्वोमिंताङ का एक ओर तो विदेशी साम्राज्यवाद के साथ अंतरविरोध था और इसलिए वह साम्राज्यवाद–विरोधी थी; दूसरी ओर उसका खुद अपने देश में विशाल जन–समुदाय के साथ अंतरविरोध था, और हालांकि मेहनतकश जनता को वह अनेक सुविधाएं देने के हवाई वायदे करती रहती थी, किंतु वास्तव में या तो बहुत कम सुविधाएं देती थी, या बिलकुल भी नहीं देती थी। उस काल में जबकि क्वोमिंताङ कम्युनिस्ट–विरोधी युद्ध चला रही थी, उसने विशाल जन–समुदाय के विरुद्ध साम्राज्यवाद और सामंतवाद के साथ गठजोड़ कायम किया और क्रांति में विशाल जन–समुदाय ने जो उपलब्धियां हासिल की थीं, उन सबको खत्म कर दिया और इस प्रकार उसने विशाल जन–समुदाय के साथ अपने अंतरविरोध को उग्र बना दिया। जापानी–आक्रमण–विरोधी युद्ध के वर्तमान काल में क्वोमिंताङ, जिसका जापानी साम्राज्यवाद के साथ अंतरविरोध है, एक ओर तो कम्युनिस्ट पार्टी के साथ सहयोग करना चाहती है, लेकिन दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टी और चीनी जनता के विरुद्ध अपने संघर्ष में तथा उनके दमन में कोई भी कमी नहीं आने देती। जहां तक कम्युनिस्ट पार्टी का ताल्लुक है, उसने हमेशा, हर दौर में, साम्राज्यवाद और सामंतवाद के विरुद्ध विशाल जन–समुदाय का ही साथ दिया है, लेकिन जापानी–आक्रमण–विरोधी युद्ध के वर्तमान काल में चूंकि क्वोमिंताङ ने यह जाहिर किया है कि वह जापान का प्रतिरोध करने के हक में है, इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी ने उसकी ओर तथा घरेलू सामंती शक्तियों की ओर एक नरम नीति अपनाई है। इन परिस्थितियों ने दोनों पार्टियों के बीच कभी संश्रय तो कभी संघर्ष को जन्म दिया, और संश्रय कायम होने के दौरान भी परिस्थिति बड़ी जटिल रही जिसमें संश्रय तथा संघर्ष एक साथ चलते रहे। यदि हम अंतरविरोध के दोनों पहलुओं की विशिष्टताओं का अध्ययन नहीं करते, तो हम न केवल दोनों पार्टियों में से प्रत्येक पक्ष और अन्य शक्तियों के बीच के संबंधों को नहीं समझ सकेंगे, बल्कि दोनों पार्टियों के बीच के संबंधों को भी समझने में असमर्थ रहेंगे।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी तरह के अंतरविरोध-पदार्थ की गति के प्रत्येक रूप में निहित अंतरविरोध, गति के प्रत्येक रूप के विकास की हरेक प्रक्रिया में निहित अंतरविरोध, विकास की प्रत्येक प्रक्रिया में निहित हरेक अंतरविरोध के दोनों पहलुओं, विकास की प्रत्येक प्रक्रिया की हरेक मंजिल में निहित अंतरविरोध, और विकास की प्रत्येक मंजिल में निहित हरेक अंतरविरोध के दोनों पहलुओं-की विशिष्टता का अध्ययन करते समय, यानी इन तमाम अंतरविरोधों की विशिष्टताओं का अध्ययन करते समय, हमें मनोगतवादी स्वेच्छाचारिता से सर्वथा मुक्त रहना चाहिए और उनका ठोस विश्लेषण करना चाहिए। ठोस विष्लेषण किए बिना किसी भी अंतरविरोध की विशिष्टता के बारे में कोई जानकारी हासिल नहीं की जा सकती। हमें लेनिन के इन शब्दों को हमेशा याद रखना चाहिए : ठोस वस्तुओं का ठोस विश्लेषण।
सबसे पहले मार्क्स और एंगेल्स ने ही हमें ऐसे ठोस विश्लेषण के उत्कृष्ट नमूने प्रदान किए।
जब मार्क्स और एंगेल्स ने वस्तुओं में निहित अंतरविरोध के नियम को सामाजिक–ऐतिहासिक प्रक्रिया के अध्ययन पर लागू किया, तो उन्होंने उत्पादक शक्तियों और उत्पादन–संबंधों के बीच के अंतरविरोध का पता लगा लिया, उन्होंने शोषक वर्ग और शोषित वर्ग के बीच के अंतरविरोध का पता लगा लिया, तथा इन अंतरविरोधों से पैदा हुए आर्थिक आधार और ऊपरी ढांचे (राजनीति, विचारधारा इत्यादि) के बीच के अंतरविरोध का पता लगा लिया, और उन्होंने यह पता लगा लिया कि ये अंतरविरोध भिन्न–भिन्न वर्ग–समाजों में किस तरह अनिवार्य रूप से भिन्न–भिन्न सामाजिक क्रांतियों को जन्म देते हैं।
जब मार्क्स ने इस नियम को पूंजीवादी समाज के आर्थिक रचना–विधान के अध्ययन पर लागू किया, तो उन्होंने देखा कि इस समाज का मूल अंतरविरोध उत्पादन के सामाजिक स्वरूप और मिलकियत के निजी स्वरूप के बीच का अंतरविरोध है। इस अंतरविरोध की अभिव्यक्ति अलग–अलग कारोबारों में उत्पादन के संगठित स्वरूप और समूचे समाज में उत्पादन के असंगठित स्वरूप के बीच के अंतरविरोध में होती है। वर्ग–संबंधों की दृष्टि से, इसकी अभिव्यक्ति पूंजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच के अंतरविरोध में होती है।
चूंकि वस्तुओं का दायरा अत्यंत विस्तृत होता है और उनके विकास की कोई सीमा नहीं होती, इसलिए एकविशेष स्थिति में जो बात सार्वभौमिकता की द्योतक होती है, वही दूसरी विशेष स्थिति में विशिष्टता में बदल जाती है। इसके विपरीत, एक विशेष स्थिति में जो बात विशिष्टता की द्योतक होती है, वहीं दूसरी विशेष स्थिति में सार्वभौमिक बन जाती है। पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन के सामाजिक स्वरूप और उत्पादन के साधनों पर निजी मिलकियत के बीच जो अंतरविरोध निहित है, वह उन सभी देशों में समान रूप से मौजूद है जहां पूंजीवाद का अस्तित्व है तथा उसका विकास हो रहा है; पूंजीवाद के लिए अंतरविरोध की सार्वभौमिकता इसी में निहित है। किंतु, पूंजीवाद का यह अंतरविरोध वर्ग–समाज के आम विकास की एक विशेष ऐतिहासिक मंजिल की चीज है; जहां तक समूचे वर्ग–समाज में उत्पादक शक्तियों और उत्पादन–संबंधों के बीच के अंतरविरोध का सवाल है, वह अंतरविरोध की विशिष्टता है। किंतु पूंजीवादी समाज में इन तमाम अंतरविरोधों का विश्लेषण करके उनकी विशिष्टता को स्पष्ट करते हुए, मार्क्स ने और भी गहराई से, और भी विशद रूप से तथा और भी पूर्णता के साथ आम वर्ग–समाज में मौजूद उत्पादक शक्तियों और उत्पादन–संबंधों के बीच के अंतरविरोध की सार्वभौमिकता पर रोशनी डाली है।