किसी समस्या का अध्ययन करते समय हमें मनोगतवाद, एकांगीपन और उथलेपन से बचना चाहिए। मनोगतवाद का मतलब है समस्याओं को वस्तुगत ढंग से न देखना, अर्थात उन्हें देखते समय भौतिकवादी दृष्टिकोण का इस्तेमाल न करना। इस समस्या पर मैंने “व्यवहार के बारे में” शीर्षक अपने निबंध में विचार किया है। एकांगीपन का मतलब है समस्याओं को सर्वांगीण रूप से न देखना। उदाहरण के लिए, केवल चीन को समझना, किंतु जापान को नहीं; केवल कम्युनिस्ट पार्टी को समझना, किंतु क्वोमिंताङ को नहीं; केवल सर्वहारा वर्ग को समझना, किंतु पूंजीपति वर्ग को नहीं; केवल किसानों को समझना, किंतु जमींदारों को नहीं; केवल अनुकूल परिस्थितियों को समझना, किंतु प्रतिकूल परिस्थितियों को नहीं; केवल अतीत को समझना, किंतु भविष्य को नहीं; केवल अलग–अलग अंशों को समझना, किंतु सम्पूर्ण को नहीं; केवल कमियों को समझना, किंतु उपलब्धियों को नहीं; केवल अभियोक्ता को समझना, किंतु अभियुक्त को नहीं; केवल भूमिगत क्रांतिकारी कार्य को समझना, किंतु खुले क्रांतिकारी कार्य को नहीं; वगैरह–वगैरह। एक शब्द में, इसका मतलब है किसी अंतरविरोध के दोनों पहलुओं की विशिष्टताओं को न समझना। इसी को कहते हैं समस्याओं को एकांगी ढंग से देखना। या यों कहिए कि सम्पूर्ण वस्तु को न देखकर केवल उसके किसी एक अंग को ही देखना, जंगल को न देखकर केवल पेड़ों को ही देखना। यही वजह है कि अंतरविरोधों को हल करने के तरीके का पता लगाना असंभव हो जाता है, क्रांति के कामों को पूरा करना, जिम्मेदारियों को अच्छी तरह निभाना, अथवा पार्टी के भीतर विचारधारात्मक संघर्ष सही ढंग से चलाना असंभव हो जाता है। युद्ध–विज्ञान की चर्चा करते हुए सुन ऊ चि ने कहा था : “दुश्मन को पहचानो और खुद अपने को पहचानो, तभी तुम हार का खतरा उठाए बिना सैकड़ों लड़ाइयां लड़ सकते हो”।[11] वे युद्ध करने वाले दोनों पक्षों की चर्चा कर रहे थे। थाङ वंश के वेइ चङ[12] भी एकांगीपन की गलती को समझते थे। उन्होंने कहा था : “दोनों पक्षों की बात सुनने से तुम्हारी समझ बढ़ती है, जबकि केवल एक ही पक्ष की बात पर विश्वास करने से तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।” फिर भी हमारे साथी अक्सर समस्याओं को एकांगी ढंग से ही देखते हैं और इसलिए वे अक्सर ठोकर खाते हैं। “श्वेइ हू च्वान” नामक उपन्यास में सुङ च्याङ तीन बार चू गांव पर हमला करता है[13] और दो बार पराजित हो जाता है, क्योंकि उसे स्थानीय परिस्थितियों की कोई जानकारी नहीं थी तथा उसने गलत तरीकों को लागू किया था। बाद में उसने अपने तरीके को बदल डाला; पहले उसने परिस्थितियों की जांच की, और भूल–भुलैया के रास्तों का पता लगाया, तत्पश्चात उसने ली, हू और चू गांवों के गठजोड़ को छिन्न–भिन्न कर दिया और एक विदेशी कथा में वर्णित ट्रोजन हार्स जैसी चाल के जरिए अपने सैनिकों को भेष बदलकर गुप्त रूप से शत्रु के शिविर में प्रवेश करा दिया। इसके बाद तीसरी मुठभेड़ में उसने विजय प्राप्त कर ली। “श्वेइ हू च्वान” में भौतिकवादी द्वन्द्ववाद के अनेक उदाहरण हैं, जिनमें चू गांव पर तीन हमलों वाली घटना को एक बेहतरीन मिसाल माना जा सकता है। लेनिन ने कहा है :
…किसी पदार्थ को सही मायनों में जानने के लिए हमें उसके सभी पहलुओं, सभी संबंधों और सभी “माध्यमों” को अंगीकार करना होगा, उनका अध्ययन करना होगा। हालांकि ऐसा हम पूर्ण रूप से कभी नहीं कर पाएंगे, फिर भी सर्वांगीणता की मांग हमें गलतियों और गैरलचीलेपन से बचाएगी।[14]
हमें लेनिन के शब्दों को याद रखना चाहिए। उथलेपन का मतलब है न तो अंतरविरोधों की समग्रता की विशिष्टताओं पर विचार करना और न प्रत्येक अंतरविरोध के दोनों पहलुओं की विशिष्टताओं पर विचार करना; इसका मतलब है किसी वस्तु की बड़ी गहराई से छानबीन करने और उसके अंतरविरोधों की विशिष्टताओं का बड़ी बारीकी से अध्ययन करने की आवश्यकता से इनकार करना, तथा उन पर दूर से महज एक सरसरी नजर डालकर और महज उनकी रूपरेखा पर नजर मारते ही उन्हें हल करने (किसी प्रश्न का उत्तर देने, किसी विवाद को निपटाने, किसी काम को पूरा करने, अथवा किसी फौजी कार्रवाई का निर्देशन करने) की कोशिश करने लग जाना। काम करने का यह तरीका हमें अनिवार्य रूप से झंझट में डाल देगा। चीनी कठमुल्लावादी और अनुभववादी साथियों ने ये गलतियां ठीक इसीलिए की हैं कि वे वस्तुओं को मनोगत, एकांगी और उथले ढंग से ही देखते हैं। एकांगीपन और उथलापन दोनों मनोगतवाद ही हैं। हालांकि सभी वस्तुगत पदार्थ वास्तव में एक दूसरे से संबंधित और आंतरिक नियमों से नियंत्रित होते हैं, फिर भी कुछ लोग वस्तुओं को सही रूप में प्रतिंबिबित करने के बदले उन्हें केवल एकांगी या उथले ढंग से ही देखते हैं तथा न तो उनके अंतर–संबंधों को समझते हैं और न उनके आंतरिक नियमों को, और इस प्रकार उनका तरीका मनोगतवादी हो जाता है।
हमें न केवल किसी वस्तु के विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया के दौरान अंतरविरोधों की गति में उनके अंतर–संबंधों और उनके प्रत्येक पहलू की विशिष्टताओं पर ध्यान देना चाहिए, बल्कि विकास की प्रक्रिया में प्रत्येक मंजिल की भी अपनी विशिष्टताएं होती हैं, जिन पर हमें ध्यान देना चाहिए।
किसी वस्तु के विकास की प्रक्रिया में निहित मूल अंतरविरोध और इस मूल अंतरविरोध द्वारा निर्धारित उस प्रक्रिया की मूलवस्तु तब तक समाप्त नहीं होगी, जब तक कि वह प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती; किंतु किसी वस्तु के विकास की लंबी प्रक्रिया में प्रत्येक मंजिल की परिस्थितियां अक्सर दूसरी मंजिल से भिन्न होती हैं। ऐसा इसलिए होता है कि किसी वस्तु के विकास की प्रक्रिया में निहित मूल अंतरविरोध का स्वरूप और उस प्रक्रिया की मूलवस्तु यद्यपि नहीं बदलती, फिर भी विकास की लंबी प्रक्रिया की विभिन्न मंजिलों में मूल अंतरविरोध उत्तरोत्तर उग्र रूप धारण करता जाता है। इसके अलावा, मूल अंतरविरोध द्वारा निर्धारित या प्रभावित अनेक बड़े और छोटे अंतरविरोधों में से कुछ अंतरविरोध उग्र रूप धारण करते हैं, कुछ तो अस्थाई अथवा आंशिक रूप से हल हो जाते हैं या मंदे पड़ जाते हैं, और कुछ नए अंतरविरोध सामने आ जाते हैं; इसलिए यह प्रक्रिया भिन्न–भिन्न मंजिलों से गुजरती हुई प्रकट होती है। यदि लोग किसी वस्तु के विकास की प्रक्रिया में उसकी विभिन्न मंजिलों की तरफ ध्यान नहीं देते, तो वे उसके अंतरविरोधों को उचित ढंग से हल नहीं कर सकते।
उदाहरण के लिए, जब स्वच्छंद होड़ के युग के पूंजीवाद ने विकसित होकर साम्राज्यवाद का रूप धारण किया, तो मूल अंतरविरोध वाले दो वर्गों, अर्थात सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग के वर्ग–स्वरूप में, या ऐसे समाज की पूंजीवादी मूलवस्तु में कोई परिवर्तन नहीं आया; फिर भी, इन दोनों वर्गों के बीच के अंतरविरोध ने उग्र रूप धारण कर लिया, इजारेदार पूंजी और गैर–इजारेदार पूंजी के बीच के अंतरविरोध का उदय हुआ, उपनिवेशवादी देशों और उपनिवेशों के बीच के अंतरविरोध अर्थात उनके असमान विकास के कारण पैदा हुए अंतरविरोध, और अधिक उग्र हो गए तथा पूंजीवादी देशों के बीच के अंतरविरोध, खास तौर से उग्र रूप में प्रकट हुए, और इस प्रकार पूंजीवाद की विशेष मंजिल, साम्राज्यवाद की मंजिल का प्रादुर्भाव हुआ। लेनिनवाद साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के युग का मार्क्सवाद इसीलिए है, क्योंकि लेनिन और स्तालिन ने इन अंतरविरोधों की सही व्याख्या की है और उन्हें हल करने के लिए सर्वहारा क्रांति के सिद्धांत और कार्यनीति का सही निरूपण किया है।
चीन की पूंजीवादी–जनवादी क्रांति, जिसका सूत्रपात 1911 की क्रांति से हुआ था, की प्रक्रिया को ही लीजिए; इसकी भी कई खास मंजिलें हैं। खास तौर से पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व–काल में क्रांति की मंजिल और सर्वहारा नेतृत्व–काल में क्रांति की मंजिल क्रांति की दो अत्यंत भिन्न ऐतिहासिक मंजिलों का प्रतिनिधित्व करती हैं। दूसरे शब्दों में, सर्वहारा नेतृत्व ने क्रांति के रूप को मूल रूप से बदल दिया है, वर्ग–संबंधों की एक नई पांतबंदी की है, किसान क्रांति में जबरदस्त उभार पैदा कर दिया है, साम्राज्यवाद और सामंतवाद के विरुद्ध मुकम्मिल क्रांति का सूत्रपात किया है, जनवादी क्रांति से समाजवादी क्रांति में संक्रमण की संभावना को जन्म दिया है, वगैरह–वगैरह। यह सब कुछ उस काल में संभव नहीं था जब क्रांति का नेतृत्व पूंजीपति वर्ग के हाथों में था। यद्यपि सम्पूर्ण प्रक्रिया के मूल अंतरविरोध के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, अर्थात प्रक्रिया के साम्राज्यवाद–विराधी, सामंतवाद–विरोधी, जनवादी–क्रांतिकारी स्वरूप में (जिसका विपरीत तत्व अर्द्ध–औपनिवेशिक, अर्द्ध–सामंती स्वरूप है) कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, फिर भी बीस वर्ष से ज्यादा समय में यह प्रक्रिया विकास की कई मंजिलों से गुजरी है; इस काल के दौरान अनेक बड़ी घटनाएं घटी हैं-जैसे 1911 की क्रांति की असफलता और उत्तरी युद्ध–सरदारों के शासन की स्थापना, प्रथम राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे की स्थापना और 1924-27 की क्रांति, संयुक्त मोर्चे का विघटन और पूंजीपति वर्ग का प्रतिक्रांतिकारी शिविर में पलायन, नए युद्ध–सरदारों के बीच की लड़ाइयां, भूमि–क्रांति युद्ध, द्वितीय राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे की स्थापना और जापानी–आक्रमण–विरोधी युद्ध। इन मंजिलों की ये विशेषताएं हैं : कुछ अंतरविरोधों का अधिक उग्र रूप धारण करना (मिसाल के लिए, भूमि–क्रांति युद्ध और चार उत्तर–पूर्वी प्रांतों पर जापानी अतिक्रमण), कुछ अंतरविरोधों का आंशिक या अस्थाई रूप से हल हो जाना (मिसाल के लिए, उत्तरी युद्ध–सरदारों का खात्मा और हमारे द्वारा जमींदारों की जमीन का जब्त किया जाना), और कुछ अन्य अंतरविरोधों का फिर प्रकट हो जाना (मिसाल के लिए, नए युद्ध–सरदारों के बीच संघर्ष, हमारे हाथों से दक्षिण के क्रांतिकारी आधार–क्षेत्रों के निकल जाने पर जमींदारों द्वारा जमीन पर फिर से कब्जा किया जाना)।