इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि चाहे गति का रूप साधारण हो या संश्लिष्ट, चाहे वस्तुगत घटना हो या विचारगत, अंतरविरोध सार्वभौमिक रूप से तथा सभी प्रक्रियाओं में मौजूद रहता है। किंतु क्या अंतरविरोध हर प्रक्रिया की प्रारंभिक अवस्था में भी मौजूद रहता है ? क्या प्रत्येक वस्तु के विकास की प्रक्रिया में आरंभ से अंत तक अंतरविरोधों की गति बनी रहती है ?
सोवियत दार्शनिकों द्वारा देबोरिन–पंथ की आलोचना में लिखे गए लेखों से ज्ञात होता है कि देबोरिन–पंथ का दृष्टिकोण यह था कि अंतविरोध किसी प्रक्रिया के एकदम आरंभ में उत्पन्न नहीं होता, बल्कि उसके विकास की एक निश्चित अवस्था में ही प्रकट होता है। अगर बात ऐसी होती तो उस निश्चित अवस्था पर पहुंचने के पहले उस प्रक्रिया का विकास आंतरिक कारणों से नहीं बल्कि बाह्य कारणों से होता। इस प्रकार देबोरिन बाह्य कारणों और यांत्रिकता के अध्यात्मवादी सिद्धांत पर लौट जाते हैं। ठोस समस्याओं के विश्लेषण में इस दृष्टिकोण को लागू करके, देबोरिनपंथी इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि सोवियत संघ में वर्तमान परिस्थितियों में कुलकों और आम किसानों के बीच केवल भेद ही है, अंतरविरोध नहीं, और इस प्रकार वे बुखारिन के मत से पूर्णतया सहमत हो जाते हैं। फ्रांसीसी क्रांति का विश्लेषण करते हुए वे यह कहते हैं कि क्रांति के पहले थर्ड एस्टेट में, जिसमें मजदूर, किसान और पूंजीपति वर्ग शामिल थे, केवल भेद मौजूद थे, अंतरविरोध नहीं। देबोरिनपंथियों के ये विचार मार्क्सवाद–विरोधी विचार हैं। वे यह नहीं समझते कि दुनिया में मौजूद प्रत्येक भेद में पहले से ही एक अंतरविरोध मौजूद होता है, और यह कि भेद खुद ही अंतरविरोध है। मजदूरों और पूंजीपतियों के बीच इन दोनों वर्गों के अस्तित्व में आने के समय से ही अंतरविरोध रहा है, यद्यपि आरंभ में इस अंतरविरोध ने उग्र रूप धारण नहीं किया था। यहां तक कि सोवियत संघ की मौजूदा सामाजिक परिस्थितियों के अंतर्गत भी मजदूरों और किसानों के बीच भेद मौजूद है और यह भेद अंतरविरोध ही है, यद्यपि यह अंतरविरोध मजदूरों और पूंजीपतियों के बीच मौजूद अंतरविरोध से भिन्न है और यह उग्र रूप धारण कर शत्रुता या वर्ग–संघर्ष के रूप में परिवर्तित नहीं होगा; समाजवादी निर्माण के दौरान मजदूरों और किसानों ने सुदृढ़ संश्रय कायम कर लिया है और वे समाजवाद से कम्युनिज्म की दिशा में आगे बढ़ने की प्रक्रिया में इस अंतरविरोध को कदम–ब–कदम हल कर रहे हैं। सवाल अलग–अलग किस्म के अंतरविरोधों का है, न कि उनके होने या न होने का। अंतरविरोध सार्वभौमिक और निरपेक्ष होता है, वह सभी वस्तुओं के विकास की प्रक्रिया में मौजूद रहता है और सभी प्रक्रियाओं में शुरू से अंत तक बना रहता है।
किसी नई प्रक्रिया के उदय होने का क्या तात्पर्य है ? इसका तात्पर्य है कि जब कोई नई एकता तथा उसके संघटक विपरीत तत्व किसी पुरानी एकता और उसके संघटक विपरीत तत्वों का स्थान लेते हैं, तो पुरानी प्रक्रिया के स्थान पर एक नई प्रक्रिया का उदय होता है। पुरानी प्रक्रिया का अंत हो जाता है और नई प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। इस नई प्रक्रिया में नए अंतरविरोध होते हैं, और उसके अपने अंतरविरोधों के विकास का इतिहास शुरू हो जाता है।
जैसा कि लेनिन ने बताया था, मार्क्स ने अपनी पुस्तक “पूंजी” में अंतरविरोधों की उस गति का आदर्श विश्लेषण किया है जो वस्तुओं के विकास की प्रक्रिया में शुरू से अंत तक बनी रहती है। यह एक ऐसा तरीका है जिसे सभी वस्तुओं के विकास की प्रक्रिया के अध्ययन में लागू करना चाहिए। लेनिन ने खुद भी इस तरीके को सही ढंग से लागू किया था और अपनी सभी रचनाओं में इसे अपनाया था।
‘‘पूंजी” नामक अपनी रचना में मार्क्स पहले पूंजीवादी (तिजारती माल वाले) समाज के सबसे सरल, सबसे साधारण और बुनियादी, सबसे अधिक प्रचलित और रोजमर्रा के संबंध का विश्लेषण करते हैं, एक ऐसे संबंध का जो करोड़ों बार देखने में आता है, यानी माल का विनिमय। इस अति–साधारण घटना (पूंजीवादी समाज की इस “कोशिका”) में यह विश्लेषण आधुनिक समाज के सभी अंतरविरोधों को (या सभी अंतरविरोधों के बीजों को) व्यक्त कर देता है। बाद की व्याख्या हमें इन अंतरविरोधों के और इस समाज के, जो अपने अलग–अलग अंशों की (समष्टि) है, शुरू से अंत तक के विकास (वृद्धि तथा गति दोनों ही) से अवगत कराती है।
लेनिन ने आगे कहा : “द्वन्द्ववाद की व्याख्या (या अध्ययन) का भी सामान्यतया यही तरीका होना चाहिए।”[9]
चीनी कम्युनिस्टों को यह तरीका सीख लेना चाहिए; केवल तभी वे चीनी क्रांति के इतिहास और उसकी वर्तमान स्थिति का सही विश्लेषण कर सकेंगे तथा उसके भविष्य के बारे में अनुमान लगा सकेंगे।
- अंतरविरोध की विशिष्टता
अंतरविरोध सभी वस्तुओं के विकास की प्रक्रिया में मौजूद है; यह प्रत्येक वस्तु के विकास की प्रक्रिया में शुरू से अंत तक बना रहता है। यही अंतरविरोध की सार्वभौमिकता और निरपेक्षता है, जिसकी हमने ऊपर चर्चा की है। अब हम अंतरविरोध की विशिष्टता और सापेक्षता की चर्चा करेंगे।
इस समस्या को कई पहलुओं से देखना–परखना होगा।
पहली बात तो यह है कि पदार्थ की गति के प्रत्येक रूप में मौजूद अंतरविरोध की अपनी विशिष्टता होती है। पदार्थ के बारे में मानव का ज्ञान पदार्थ की गति के रूपों का ज्ञान है, कारण यह कि विश्व में गतिमान पदार्थ के अलावा और कुछ नहीं है और पदार्थ की गति निश्चित रूप से कोई न कोई रूप धारण कर लेती है। पदार्थ की गति के प्रत्येक रूप पर विचार करते समय हमें उसके उन तत्वों को ध्यान में रखना होगा जो उसमें तथा गति के अन्य रूपों में समान रूप से मौजूद रहते हैं। लेकिन जो बात विशेष रूप से महत्वपूर्ण है तथा जो वस्तुओं के बारे में हमारे ज्ञान के आधार को नियोजित करती है, वह यह है कि हमें पदार्थ की गति की विशिष्टता को ध्यान में रखना होगा, अर्थात गति के एक रूप और अन्य रूपों के बीच के गुणात्मक भेद को ध्यान में रखना होगा। इस बात को ध्यान में रखकर ही हम वस्तुओं में भेद कर सकते हैं। गति के किसी भी रूप के भीतर उसका अपना विशिष्ट अंतरविरोध निहित होता है। यह विशिष्ट अंतरविरोध ही किसी वस्तु की विशिष्ट मूलवस्तु को निर्धारित करता है जिससे वह वस्तु अन्य सभी वस्तुओं से भिन्न होती है। यही दुनिया की अनगिनत किस्म की वस्तुओं के एक दूसरे से भिन्न होने का आंतरिक कारण या यों कहा जाए उसका आधार है। प्रकृति में गति के अनेक रूप विद्यमान है : यांत्रिक गति, ध्वनि, प्रकाश, ताप, विद्युत, विघटन, संघटन आदि। ये सभी रूप एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। लेकिन मूलवस्तु की दृष्टि से ये एक दूसरे से भिन्न होते हैं। गति के प्रत्येक रूप में मौजूद विशिष्ट मूलवस्तु उसके अपने विशिष्ट अंतरविरोध द्वारा निर्धारित होती है। यह बात केवल प्रकृति पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक और विचारगत घटनाओं पर भी लागू होती है। समाज के प्रत्येक रूप और चिंतन के प्रत्येक रूप का अपना विशिष्ट अंतरविरोध होता है और उसकी अपनी विशिष्ट मूलवस्तु होती है।