यदि यह सच है, तो इसमें एकरूपता का, अथवा एकता का सर्वथा अभाव है। तब भला हम एकरूपता और एकता की बात कैसे कर सकते हैं ?
कारण यह है कि कोई भी परस्पर विरोधी पहलू अलगाव की स्थिति में नहीं रह सकता। बिना उस दूसरे पहलू के, जो उसका विरोधी है, हर पहलू अपने अस्तित्व की परिस्थितियां खो देता है। जरा कल्पना कीजिए, क्या वस्तुओं या मानव–मस्तिष्क की धारणाओं का कोई भी परस्पर विरोधी पहलू स्वतंत्र अस्तित्व कायम रख सकता है ? जीवन के बिना मृत्यु नहीं हो सकती; मृत्यु के बिना जीवन भी नहीं हो सकता। बिना “ऊपर” के कोई “नीचे” नहीं हो सकता; बिना “नीचे” के “ऊपर” भी नहीं हो सकता। बिना दुर्भाग्य के सौभाग्य नहीं हो सकता; बिना सौभाग्य के दुर्भाग्य भी नहीं हो सकता। बिना सुविधा के कठिनाई नहीं हो सकती; बिना कठिनाई के सुविधा भी नहीं हो सकती। बिना जमींदारों के असामी किसान नहीं हो सकते; बिना असामी किसानों के जमींदार भी नहीं हो सकते। बिना पूंजीपति वर्ग के सर्वहारा वर्ग नहीं हो सकता; बिना सर्वहारा वर्ग के पूंजीपति वर्ग भी नहीं हो सकता। साम्राज्यवाद द्वारा राष्ट्रों के उत्पीड़न के बिना उपनिवेश अथवा अर्द्ध–उपनिवेश नहीं हो सकते; बिना उपनिवेशों और अर्द्ध–उपनिवेशों के राष्ट्रों का साम्राज्यवादी उत्पीड़न भी नहीं हो सकता। सभी विपरीत तत्व ऐसे ही होते हैं : विशेष परिस्थिति में, वे एक तरफ तो एक दूसरे के विरोधी होते हैं और दूसरी तरफ अंतर–संबंधित, अंतर–प्रविष्ट, अंतर–व्याप्त और अंतर–निर्भर होते हैं; उनके इसी स्वरूप को एकरूपता कहा जाता है। विशेष परिस्थिति में, सभी परस्पर विरोधी पहलुओं का स्वरूप विषमता लिए होता है, इसलिए उन्हें अंतरविरोध कहा जाता है। लेकिन उनका स्वरूप एकरूपता भी लिए होता है, इसलिए वे अंतर–संबंधित होते हैं। जब लेनिन कहते है कि द्वन्द्ववाद इस बात का अध्ययन करता है कि “किस प्रकार विपरीत तत्व एकरूप हो सकते हैं”, तो उनका आशय वही होता है जो ऊपर बताया गया है। वे आखिर एकरूप कैसे हो सकते है ? क्योंकि इनमें से हर पहलू दूसरे पहलू के अस्तित्व के लिए एक शर्त है। एकरूपता का पहला अर्थ यही है।
पर क्या केवल इतना ही कहना काफी है कि परस्पर विरोधी पहलुओं में से हर पहलू दूसरे पहलू के अस्तित्व के लिए एक शर्त है, उनमें एकरूपता है और परिणामत: वे एक ही इकाई में सह–अस्तित्व की स्थिति में रह सकते हैं ? नहीं, इतना ही कहना काफी नहीं है। अपने अस्तित्व के लिए परस्पर विरोधी पहलुओं की अंतर–निर्भरता तक ही बात समाप्त नहीं हो जाती; इससे अधिक महत्वपूर्ण बात है परस्पर विरोधी पहलुओं का एक दूसरे में बदलना। तात्पर्य यह कि विशेष परिस्थिति में किसी वस्तु में निहित दोनों परस्पर विरोधी पहलू अपने विपरीत पहलू में बदल जाते हैं, अपने विपरीत पहलू की स्थिति में पहुँच जाते हैं। अंतरविरोध की एकरूपता का यह दूसरा अर्थ है।
आखिर यहां भी एकरूपता क्यों होती है ? बात यह है कि क्रांति के द्वारा सर्वहारा वर्ग, जो किसी समय एक शासित वर्ग था, अब शासक वर्ग बन जाता हे, जबकि पूंजीपति वर्ग, जो पहले शासक वर्ग था, अब शासित वर्ग बन जाता है और उस स्थिति में पहुँच जाता है जो पहले उसके विरोधी की थी। सोवियत संघ में तो ऐसा हो ही चुका है, बाकी तमाम दुनिया में भी ऐसा ही होगा। यदि विशेष परिस्थिति में विपरीत तत्वों के बीच अंतर–संबंध तथा एकरूपता न होती, तो ऐसा परिवर्तन कैसे हो सकता था ?
क्वोमिंताङ, जिसने चीन के आधुनिक इतिहास की एक निश्चित मंजिल में किसी हद तक सकारात्मक भूमिका अदा की थी, अपने स्वाभाविक वर्ग–चरित्र तथा साम्राज्यवाद के लोभ के कारण (ये परिस्थितियां ही थीं) 1927 से एक प्रतिक्रांतिकारी पार्टी बन गई है; लेकिन चीन और जापान के बीच के अंतरविरोध के तेज हो जाने और कम्युनिस्ट पार्टी की संयुक्त मोर्चे की नीति के कारण (ये परिस्थितयां ही थीं) उसे जापानी आक्रमण का प्रतिरोध स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा। परस्पर विरोधी वस्तुएं एक दूसरे में बदल जाती हैं, और उनमें एक प्रकार की एकरूपता विद्यमान रहती है।
हमने जिस भूमि–क्रांति को सम्पन्न किया है, वह एक ऐसी प्रक्रिया बन चुकी है और फिर से बन जाएगी, जिसमें जमीन का मालिक जमींदार वर्ग एक ऐसा वर्ग बन जाता है जिसके हाथों से जमीन छिन चुकी है, जबकि किसान, जो कभी अपनी जमीन से वंचित थे, थोड़ी जमीन के मालिक बन जाते है। एक विशेष परिस्थिति में साधन–सम्पन्नता और साधन–हीनता, नफा और नुकसान, अंतर–संबंधित होते है; दोनों पक्षों में एकरूपता होती है। समाजवाद की परिस्थिति में किसानों की निजी मिलकियत की व्यवस्था समाजवादी कृषि की सार्वजनिक मिलकियत में बदल जाती है; सोवियत संघ में ऐसा हो चुका है और बाकी सारी दुनिया में भी ऐसा ही होगा। निजी सम्पत्ति और सार्वजनिक सम्पत्ति के बीच की खाई के दो किनारों को मिलाने वाला एक सेतु होता है, जिसे दर्शन–शास्त्र में एकरूपता, या एक दूसरे में रूपांतर, अथवा अंतर–व्याप्ति कहते हैं।
सर्वहारा अधिनायकत्व को अथवा जनता के अधिनायकत्व को मजबूत बनाना वास्तव में ऐसे अधिनायकत्व को खत्म करने और सभी राज्य–व्यवस्थाओं का अंत करने की उच्चतर मंजिल की ओर बढ़ने के लिए परिस्थितियां तैयार करना है। कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करना और उसका विकास करना वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य सभी राजनीतिक पार्टियों को खत्म करने के लिए परिस्थितियां तैयार करना है। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में क्रांतिकारी सेना बनाना और क्रांतिकारी युद्ध चलाना वास्तव में युद्ध को सदा के लिए मिटा देने की परिस्थितियां तैयार करना है। ये सभी विपरीत तत्व साथ ही साथ एक दूसरे के पूरक भी हैं।
जैसा कि हर कोई जानता है, युद्ध और शांति अपने को एक दूसरे में रूपांतरित कर लेते हैं। युद्ध शांति में बदल जाता है; उदाहरण के लिए, प्रथम विश्वयुद्ध युद्धोत्तरकालीन शांति में बदल गया था; चीन का गृहयुद्ध भी अब बंद हो गया है और उसकी जगह आंतरिक शांति कायम हो गई है। शांति युद्ध में रूपांतरित हो जाती है; उदाहरण के लिए, 1927 का क्वोमिंताङ–कम्युनिस्ट सहयोग युद्ध में बदल गया था, और आज की शांतिपूर्ण विश्व–परिस्थिति भी द्वितीय विश्वयुद्ध में बदल सकती है। ऐसा क्यों होता है ? इसलिए कि वर्ग–समाज में युद्ध और शांति जैसी परस्पर विरोधी वस्तुएं एक विशेष परिस्थिति में एकरूपता लिए हुए होती हैं।
सभी परस्पर विरोधी वस्तुएं अंतर–संबंधित होती हैं, और वे न केवल एक विशेष परिस्थिति में एक ही इकाई में सह–अस्तित्व की स्थिति में रहती हैं, बल्कि एक अन्य विशेष परिस्थिति में एक दूसरे में बदल भी जाती हैं-विपरीत तत्वों की एकरूपता का पूर्ण अर्थ यही होता है। लेनिन का ठीक यही मतलब था जब उन्होंने लिखा था, “किस प्रकार वे एकरूप बनते हैं (किस प्रकार वे परिवर्तित होकर एकरूप बनते हैं)-किन परिस्थितियों में वे एक दूसरे में बदलते हुए एकरूप बन जाते हैं।”
क्या कारण है कि “मानव–मस्तिष्क को इन विपरीत तत्वों को मृत और जड़ वस्तुओं के रूप में नहीं, बल्कि सजीव, परिस्थितिबद्ध, परिवर्तनशील, एक दूसरे में बदल जाने वाली वस्तुओं के रूप में देखना चाहिए” ? कारण यह है कि वस्तुगत पदार्थों में ठीक ऐसे ही होते हैं। सच बात यह है कि वस्तुगत पदार्थ असल में परस्पर विरोधी पहलुओं की एकता या एकरूपता कभी भी मृत और जड़ चीज नहीं होती, बल्कि सजीव, परिस्थितिबद्ध, परिवर्तनशील, अस्थाई और सापेक्ष चीज होती है; सभी परस्पर विरोधी पहलू, एक विशेष परिस्थिति में, अपने विपरीत पहलुओं में बदल जाते हैं। यही बात जब मानव–मस्तिष्क में प्रतिबिंबित होती है, तो वह मार्क्सवाद के भौतिकवादी द्वन्द्ववाद का विश्व–दृष्टिकोण बन जाती है। केवल प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग, चाहे वे वर्तमान के हों या अतीत के, और उनकी चाकरी करने वाले अध्यात्मवादी ही, विपरीत तत्वों को सजीव, परिस्थितिबद्ध, परिवर्तनशील और एक दूसरे में बदल जाने वाली वस्तुओं के रूप में नहीं देखते, बल्कि मृत और जड़ मानते हैं, तथा आम जनता को धोखा देने के लिए इस गलत दृष्टिकोण का प्रचार करते हैं, और इस तरह अपने शासन को कायम रखने की कोशिश करते हैं। कम्युनिस्टों का कर्तव्य है कि वे प्रतिक्रियावादियों और अध्यात्मवादियों के गलत विचारों का भण्डाफोड़ कर दें, वस्तुओं में निहित द्वन्द्वात्मकता का प्रचार करें, और इस प्रकार वस्तुओं के रूपांतर की रफ्तार बढ़ाएं तथा क्रांति के उद्देश्य को प्राप्त करें।