व्यवहार के बारे में (ज्ञान और व्यवहार, जानने और कर्म करने के आपसी संबंध के बारे में) – माओ त्से–तुङ, जुलाई 1937

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लेकिन ज्ञानप्राप्ति की क्रिया यहीं समाप्त नहीं हो जाती। अगर ज्ञानप्राप्ति की द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी क्रिया केवल बुद्धिसंगत ज्ञान पर ही रुक जाती है, तो समस्या का केवल आधा ही अंश निपटाया जा सकेगा। और जहां तक मार्क्सवादी दर्शन का संबंध है, उसके लिहाज से तो केवल वह आधा अंश ही निपटाया जाता है जो ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। मार्क्सवादी दर्शन के मतानुसार सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या यह नहीं है कि हम वस्तुगत जगत के नियमों को समझ लें और इस प्रकार विश्व की व्याख्या कर सकें, बल्कि यह है कि इन नियमों के ज्ञान को विश्व का रूपांतर करने के लिए गत्यात्मक रूप से लागू करें। मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अनुसार सिद्धांत महत्वपूर्ण होता है, और उसके महत्व को लेनिन ने इस वाक्य में पूरी तरह बता दिया है, “बिना क्रांतिकारी सिद्धांत के कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता।”(5) लेकिन मार्क्सवाद ठीक इसी कारण और केवल इसीलिए सिद्धांत पर जोर देता है क्योंकि वह कर्म का पथ–प्रदर्शन कर सकता है। भले ही हमारे पास सही सिद्धांत मौजूद हो, लेकिन अगर हम महज उसका जाप करते रहेंगे, उसे उठाकर ताक पर रख देंगे और उसे अमल में नहीं लाएंगे, तो उस सिद्धांत का, चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों न हो, कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। ज्ञान व्यवहार से शुरू होता है, और व्यवहार के जरिए प्राप्त होने वाले सैद्धांतिक ज्ञान को फिर व्यवहार के पास लौट जाना होता है। ज्ञान का गत्यात्मक धर्म न सिर्फ इंद्रियग्राह्य ज्ञान से बुद्धिसंगत ज्ञान तक गत्यात्मक छलांग भरने में प्रकट होता है बल्कि-और यह अधिक महत्वपूर्ण है -बुद्धिसंगत ज्ञान से क्रांतिकारी व्यवहार तक छलांग भरने में भी प्रकट होता है। जो ज्ञान संसार के नियमों को आत्मसात कर लेता है, उसे संसार को बदलने के व्यवहार की ओर फिर से निर्देशित करना चाहिए, उत्पादन के व्यवहार में, क्रांतिकारी वर्ग–संघर्ष और क्रांतिकारी राष्ट्रीय संघर्ष के व्यवहार में, तथा वैज्ञानिक प्रयोगों के व्यवहार में फिर एक बार लागू करना चाहिए। यह सिद्धांत को परखने और उसे विकसित करने की प्रक्रिया है, ज्ञानप्राप्ति की समूची प्रक्रिया का ही जारी रूप है। सिद्धांत वस्तुगत यथार्थ के अनुरूप है अथवा नहीं, यह समस्या इंद्रियग्राह्य ज्ञान से बुद्धिसंगत ज्ञान तक पहुंचने की ऊपर बताई गई क्रिया में न तो पूरी तरह हल होती है और न पूरी तरह हल हो सकती है। उसे पूरी तरह हल करने का एकमात्र तरीका यह है कि बुद्धिसंगत ज्ञान को सामाजिक व्यवहार की ओर फिर से निर्देशित किया जाए, सिद्धांत को व्यवहार में लागू किया जाए और यह देखा जाए कि उससे प्रत्याशित फल मिलता है या नहीं। प्राकृतिक विज्ञान के बहुत से सिद्धांत सत्य माने जाते हैं, केवल इसलिए नहीं कि प्रकृति–वैज्ञानिकों ने जब उन्हें निकाला था तब उन्हें सत्य समझा जाता था, बल्कि इसलिए भी कि बाद के वैज्ञानिक व्यवहार में उनकी सच्चाई परखी जा चुकी है। इसी तरह मार्क्सवाद–लेनिनवाद को भी सत्य समझा जाता है, केवल इसलिए नहीं कि मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और स्तालिन ने जब वैज्ञानिक पद्धति से उसका प्रतिपादन किया था तब उसे सत्य समझा जाता था, बल्कि इसलिए भी कि बाद के क्रांतिकारी वर्ग–संघर्ष और क्रांतिकारी राष्ट्रीय संघर्ष के व्यवहार में उसकी सच्चाई परखी जा चुकी है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद इसलिए एक सर्वव्यापी सत्य है, क्योंकि व्यवहार में उससे बचकर निकलना किसी के लिए भी संभव नहीं है। मानव–ज्ञान का इतिहास हमें बतलाता है कि बहुत से सिद्धांतों की सच्चाई अपूर्ण होती है और यह अपूर्णता व्यवहार की कसौटी से ही दूर की जाती है। बहुत से सिद्धांत गलत होते हैं और व्यवहार की कसौटी से ही उन्हें दुरुस्त किया जाता है। यही कारण है कि व्यवहार ही सत्य की कसौटी है और “जीवन के दृष्टिकोण को, व्यवहार के दृष्टिकोण को, ज्ञान–सिद्धांत में पहली और बुनियादी चीज होना चाहिए”(6)। स्तालिन ने ठीक ही कहा था, “सिद्धांत यदि क्रांतिकारी व्यवहार से संबद्ध न हो जाए, तो वह निरुद्देश्य हो जाता है-ठीक उसी तरह जैसे क्रांतिकारी सिद्धांत द्वारा पथ आलोकित न किए जाने पर व्यवहार अंधेरे में भटकता रहता है।’’(7)

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