यहां दो महत्वपूर्ण बातों पर जोर देना जरूरी है। पहली बात, जिसका पहले उल्लेख किया जा चुका है लेकिन जिसे यहां दोहराना आवश्यक है, यह है कि बुद्धिसंगत ज्ञान इंद्रियग्राह्य ज्ञान पर निर्भर है। जो कोई यह समझता है कि बुद्धिसंगत ज्ञान को इंद्रियग्राह्य ज्ञान से प्राप्त करना आवश्यक नहीं, वह एक आदर्शवादी है। दर्शन के इतिहास में एक तथाकथित “बुद्धिवादी” विचार–शाखा है जो केवल बुद्धि का औचित्य स्वीकार करती है और अनुभव का औचित्य नहीं मानती और जो केवल बुद्धि को विश्वसनीय और इंद्रियग्राह्य अनुभव को अविश्वसनीय मानती है; इस विचार–शाखा की गलती यह है कि वह चीजों को उल्टा करके देखती है। बुद्धिसंगत ज्ञान ठीक इसलिए विश्वसनीय होता है क्योंकि उसका स्रोत इंद्रिय–संवेदन में होता है। अन्यथा वह बिना स्रोत के पानी, या बिना जड़ के वृक्ष जैसी मनोगत रूप से स्वत: उत्पन्न होने वाली अविश्वसनीय वस्तु बन जाएगा। ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया में जहां तक क्रम का संबंध है, इंद्रियग्राह्य अनुभव पहले आता है; ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया में सामाजिक व्यवहार के महत्व पर हम ठीक इसलिए जोर देते हैं क्योंकि केवल सामाजिक व्यवहार ही मानव–ज्ञान को जन्म दे सकता है और वस्तुगत बाह्य जगत से इंद्रियग्राह्य अनुभव प्राप्त करने के पथ पर मानव को चला सकता है। यदि कोई अपनी आंखें मूंद ले, कान बंद कर ले और वस्तुगत बाह्य जगत से बिलकुल अलग हो जाए, तो उसे कोई ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। ज्ञान अनुभव से शुरू होता है-ज्ञान–सिद्धांत का भौतिकवाद यही है।
दूसरी बात यह है कि ज्ञान की गहराई को बढ़ाने की जरूरत होती है, ज्ञान को इंद्रियग्राह्य मंजिल से और आगे बढ़ाकर उसकी बुद्धिसंगत मंजिल तक पहुंचाने की जरूरत होती है-यही ज्ञान–सिद्धांत का द्वन्द्ववाद है।(4) यह सोचना कि ज्ञान निचली मंजिल पर यानी इंद्रियग्राह्य मंजिल पर रुक सकता है तथा इंद्रियग्राह्य ज्ञान ही विश्वसनीय है बुद्धिसंगत ज्ञान नहीं, इतिहास में “अनुभववाद” की गलती को दोहराना होगा। इस सिद्धांत की गलती यह है कि वह इस बात को नहीं देख पाता कि इंद्रिय–संवेदन की सामग्री वस्तुगत बाह्य जगत की कुछ वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित तो करती है (मैं यहां आदर्शवादी अनुभववाद की बात नहीं कर रहा जो अनुभव को तथाकथित आत्मनिरीक्षण तक सीमित कर देता है), फिर भी वह एकांगी और सतही होती है, वस्तुओं के अपूर्ण रूप को प्रतिबिंबित करती है और उनके सारतत्व को प्रतिबिंबित नहीं करती। किसी वस्तु के समूचे रूप को प्रतिबिंबित करने के लिए, उसके सारतत्व और उसमें निहित नियमों को प्रतिबिंबित करने के लिए, यह आवश्यक है कि चिंतन के जरिए इंद्रिय–संवेदन की समृद्ध सामग्री को पुनर्निमित किया जाए, स्थूल को छोड़कर सूक्ष्म को ग्रहण किया जाए, मिथ्या को हटाकर सत्य को कायम रखा जाए, एक बात से दूसरी बात तक और बाह्य रूप को पार करके अंतर्वस्तु तक पहुंचा जाए, ताकि धारणाओं और सिद्धांतों की व्यवस्था कायम की जा सके-यह आवश्यक है कि इंद्रियग्राह्य ज्ञान से बुद्धिसंगत ज्ञान तक छलांग भरी जाए। जो ज्ञान इस तरह से पुनर्निर्मित होता है, वह ज्यादा खोखला या ज्यादा अविश्वसनीय नहीं होता; इसके विपरीत, ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया में व्यवहार के आधार पर वैज्ञानिक पद्धति के जरिए जो कुछ भी पुनर्निर्मित होता है, वह, लेनिन के शब्दों में, वस्तुगत चीजों को अधिक गहराई, सच्चाई और पूर्णता से प्रतिबिंबित करता है। निकृष्ट “व्यावहारिक लोग” ये बातें नहीं समझ पाते, वे अनुभव की इज्जत करते हैं और सिद्धांत को नजरअंदाज करते हैं, तथा इसलिए समूची वस्तुगत प्रक्रिया को व्यापक रूप से नहीं देख पाते, उनमें स्पष्ट दिशा और दूरदृष्टि का अभाव होता है, तथा कभी–कभार की सफलता से और सच्चाई की झलकमात्र से आत्मतुष्ट हो जाते हैं। ऐसे लोगों पर यदि क्रांति का संचालन करने का भार हो, तो वे उसे अंधी गली में ले जाकर छोड़ देंगे।
बुद्धिसंगत ज्ञान इंद्रियग्राह्य ज्ञान पर निर्भर होता है और इंद्रियग्राह्य ज्ञान का बुद्धिसंगत ज्ञान के रूप में विकसित होना बाकी रहता है-यही द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी ज्ञान–सिद्धांत है। दर्शन–शास्त्र में न तो “बुद्धिवाद” ज्ञान की ऐतिहासिक या द्वन्द्वात्मक प्रकृति को समझता है और न “अनुभववाद”। इनमें से हरेक के अंदर यद्यपि सत्य का एक पहलू मौजूद रहता है (यहां मैं भौतिकवादी बुद्धिवाद और अनुभववाद की बात कर रहा हूं, आदर्शवादी बुद्धिवाद और अनुभववाद की नहीं), फिर भी ज्ञान–सिद्धांत के पूरे सिलसिले में ये दोनों ही विचार–शाखाएं गलत हैं। इंद्रियग्राह्य ज्ञान से बुद्धिसंगत ज्ञान की ओर चलने की ज्ञानप्राप्ति की द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी क्रिया ज्ञानप्राप्ति की एक छोटी प्रक्रिया (जैसे किसी एक वस्तु या काम को जानना) के साथ–साथ ज्ञानप्राप्ति की एक बड़ी प्रक्रिया (जैसे किसी पूरे समाज या किसी क्रांति को जानना) के बारे में भी सही साबित होती है।