मार्क्सवादियों का मत है कि केवल मनुष्य का सामाजिक व्यवहार ही बाह्य जगत के बारे में मानव–ज्ञान की सच्चाई की कसौटी है। वास्तव में मानव–ज्ञान को सिर्फ तभी सिद्ध किया जाता है जब सामाजिक व्यवहार (भौतिक उत्पादन, वर्ग–संघर्ष या वैज्ञानिक प्रयोग) की प्रक्रिया के दौरान मनुष्य प्रत्याशित परिणाम प्राप्त कर लेता है। यदि मनुष्य अपने काम में सफल होना चाहता है, अर्थात प्रत्याशित परिणाम प्राप्त करना चाहता है, तो उसे चाहिए कि वह अपने विचारों को वस्तुगत बाह्य जगत के नियमों के अनुरूप बनाए; अगर उसके विचार इन नियमों के अनुरूप नहीं बनेंगे, तो वह अपने व्यवहार में असफल हो जाएगा। जब वह असफल हो जाता है, तो अपनी असफलता से सबक सीखता है, अपने विचारों को सुधारकर उन्हें वाह्य जगत के नियमों के अनुरूप बना लेता है तथा इस प्रकार अपनी असफलता को सफलता में बदल सकता है; “असफलता सफलता की जननी है” और “ठोकर खाने से बुद्धि बढ़ती है” का यही अर्थ है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी ज्ञान–सिद्धांत व्यवहार को प्रथम स्थान देता है। उसका कहना है कि मानव–ज्ञान को व्यवहार से हरगिज अलग नहीं किया जा सकता। वह उन तमाम गलत सिद्धांतों को ठुकरा देता है जो व्यवहार के महत्व को अस्वीकार करते हैं या ज्ञान को व्यवहार से अलग करते हैं। जैसा कि लेनिन ने कहा है, “व्यवहार (सैद्धांतिक) ज्ञान से बढ़कर है, क्योंकि उसमें न सिर्फ सार्वभौमिकता का गुण होता है बल्कि प्रत्यक्ष वास्तविकता का गुण भी होता है।”(1) मार्क्सवादी दर्शन-द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद-की दो प्रमुख विशेषताएं हैं। पहली विशेषता है इसका वर्ग–स्वरूप : यह खुलेआम ऐलान करता है कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद सर्वहारा वर्ग की सेवा करता है। दूसरी विशेषता है इसकी व्यावहारिकता : यह इस बात पर जोर देता है कि सिद्धांत व्यवहार पर निर्भर है, इस बात पर जोर देता है कि सिद्धांत का आधार व्यवहार है और वह बदले में व्यवहार की ही सेवा करता है। किसी ज्ञान या सिद्धांत की सच्चाई का निर्णय हमारी मनोगत भावनाएं नहीं करतीं बल्कि सामाजिक व्यवहार के वस्तुगत परिणाम करते हैं। केवल सामाजिक व्यवहार ही सच्चाई की कसौटी हो सकता है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी ज्ञान–सिद्धांत में व्यवहार का दृष्टिकोण प्रमुख और बुनियादी दृष्टिकोण है।(2)
लेकिन आखिर व्यवहार से मानव–ज्ञान निकलता कैसे है और वह बदले में व्यवहार की सेवा कैसे करता है ? ज्ञान के विकास की प्रक्रिया पर दृष्टि डालते ही यह बात स्पष्ट हो जाती है।
व्यवहार की प्रक्रिया में, मनुष्य पहले विभिन्न वस्तुओं के रूप को ही देखता है, उनके अलग–अलग पहलुओं और उनके बाह्य संबंधों को ही देखता है। उदाहरण के लिए बाहर से कुछ लोग देखने के विचार से येनान आते हैं। पहले एक–दो दिनों में वे यहां की भौगोलिक स्थिति, सड़कों और घरों को देखते हैं; वे अनेक लोगों से मिलते हैं, दावतों, रात्रि समारोहों और सार्वजनिक सभाओं में शरीक होते हैं; वे तरह–तरह की बातचीत सुनते हैं और तरह–तरह के दस्तावेज पढ़ते हैं; ये सब वस्तुओं के रूप हैं, उनके अलग–अलग पहलू हैं और उनके बाह्य संबंध हैं। इसे ज्ञान की इंद्रियग्राहय मंजिल कहते हैं, यानी यह इंद्रिय–संवेदनों और संस्कारों की मंजिल है। दूसरे शब्दों में येनान की ये विभिन्न वस्तुएं, देखने वाले दल के सदस्यों की इंद्रियों को प्रभावित करती हैं, उनके संवेदनों को जन्म देती हैं और उनके दिमाग में बहुत से संस्कार छोड़ देती हैं, तथा साथ ही इन संस्कारों के बीच बाह्य संबंधों की एक मोटी रूपरेखा भी छोड़ देती हैं : यह ज्ञानप्राप्ति की पहली मंजिल है। इस मंजिल में मनुष्य अभी गंभीर धारणाएं नहीं बना सकता, न तर्कसंगत निष्कर्ष ही निकाल सकता है।
जैसे–जैसे सामाजिक व्यवहार की प्रक्रिया चलती रहती है, वैसे–वैसे उन वस्तुओं की अनेक बार पुनरावृत्ति होती है जो व्यवहार की प्रक्रिया में मनुष्य के इंद्रिय–संवेदनों और संस्कारों को उत्पन्न करती हैं; इसके बाद मानव के मस्तिष्क के अंदर ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया में एक आकस्मिक परिर्वतन (छलांग) होता है जिसके परिणाम स्वरूप धारणाएं बनती हैं। धारणाएं वस्तुओं के रूप, उनके अलग–अलग पहलू या उसके बाह्य संबंध नहीं रह जातींय वे वस्तुओं के सारतत्व, उनकी समग्रता और उनके आंतरिक संबंधों को ग्रहण करती हैं। धारणाएं और इंद्रिय–संवेदन परिमाण की दृष्टि से ही नहीं बल्कि गुण की दृष्टि से भी भिन्न होते हैं। इससे आगे बढ़ने पर, निर्णय और तर्क की पद्धति को काम में लाते हुए, हम तर्कसंगत निष्कर्ष निकाल सकते हैं। “तीन राज्यों की कहानी” का यह वाक्य कि “अपने दिमाग पर जोर डालो, तो तुम्हें जरूर कोई न कोई तरकीब सूझ जाएगी”, अथवा रोजमर्रा की बातचीत में यह कहना कि “जरा सोच तो लेने दो”, ठीक ऐसा ही सिलसिला है जब मनुष्य निर्णय करने और तर्क करने के लिए अपने दिमाग की धारणाओं का इस्तेमाल करता है। यह ज्ञानप्राप्ति की दूसरी मंजिल है। जब हमारे यहां की हालत को देखने के लिए बाहर से आने वाले दल के सदस्य विभिन्न प्रकार की सामग्री इकट्ठी कर लेते हैं और इसके अलावा “उस पर सोच–विचार भी कर लेते हैं”, तब वे यह निर्णय कर सकते है कि “जापान–विरोधी राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चा बनाने की कम्युनिस्ट पार्टी की नीति मुकम्मिल, ईमानदारीपूर्ण और सच्ची है।” यह निर्णय करने के बाद, यदि वे राष्ट्रीय पुनरुद्धार के लिए सच्चे दिल से एकता कायम करना चाहते हैं, तो वे एक कदम और आगे बढ़कर यह निष्कर्ष निकालेंगे कि “जापान–विरोधी राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चा सफल हो सकता है”। किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने की पूरी प्रक्रिया में धारणा, निर्णय और तर्क की मंजिल अधिक महत्वपूर्ण मंजिल है; यह बुद्धिसंगत ज्ञान की मंजिल है। ज्ञान का वास्तविक कार्य है इंद्रिय–संवेदन द्वारा विचार तक पहुँचना, वस्तुगत चीजों के आंतरिक अंतरविरोधों, उनके नियमों तथा एक प्रक्रिया और दूसरी प्रक्रिया के आंतरिक संबंधों को कदम–ब–कदम समझ लेना, यानी तर्कसंगत ज्ञान तक पहुंच जाना। दूसरे शब्दों में यह कि तर्कसंगत ज्ञान इंद्रियग्राह्य ज्ञान से भिन्न इसलिए है कि इंद्रियग्राह्य ज्ञान वस्तुओं के अलग–अलग पहलुओं, रूपों और उनके बाह्य संबंधों के दायरे में ही रहता है, जबकि तर्कसंगतज्ञान एक भारी छलांग भरकर वस्तुओं की समग्रता, उनके सारतत्व और आंतरिक संबंधों तक पहुंच जाता है, तथा चारों ओर के जगत के आंतरिक अंतरविरोधों को प्रकट करता है। इसलिए तर्कसंगत ज्ञान में चारों ओर के जगत के विकास को समग्र रूप में, उसके सभी पहलुओं के आंतरिक संबंधों समेत, ग्रहण करने की सामर्थ्य होती है।