वानर के नर बनने में श्रम की भूमिका – फ्रेडरिक एंगेल्स (1876)

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मनुष्य के हाथ श्रम की उपज हैं।

अर्थशास्त्रियों का दावा है कि श्रम समस्त संपदा का स्रोत है। वास्तव में वह स्रोत है, लेकिन प्रकृति के बाद। वही इसे वह सामग्री प्रदान करती है जिसे श्रम संपदा में परिवर्तित करता है। पर वह इस से भी कहीं बड़ी चीज है। वह समूचे मानव-अस्तित्व की प्रथम मौलिक शर्त है, और इस हद तक प्रथम मौलिक शर्त है कि एक अर्थ में हमें यह कहना होगा कि स्वयं मानव का सृजन भी श्रम ने ही किया। लाखों वर्ष पूर्व, पृथ्वी के इतिहास के भू-विज्ञानियों द्वारा तृतीय कहे जाने वाले महाकल्प की एक अवधि में, जिसे अभी ठीक निश्चित नहीं किया जा सकता है, पर जो संभवतः इस तृतीय महाकल्प का युगांत रहा होगा, कहीं ऊष्ण कटिबंध के किसी प्रदेश में -संभवत- एक विशाल महाद्वीप में जो अब हिंद महासागर में समा गया है -मानवाभ वानरों की विशेष रूप से अतिविकसित जाति रहा करती थी। डार्विन ने हमारे इन पूर्वजों का लगभग यथार्थ वर्णन किया है। उन का समूचा शरीर बालों से ढका रहता था, उन के दाढ़ी और नुकीले कान थे, और वे समूहों में पेड़ों पर रहा करते थे। संभवतः उन की जीवन-विधि, जिस में पेड़ों पर चढ़ते समय हाथों और पावों की क्रिया भिन्न होती है, का ही यह तात्कालिक परिणाम था कि समतल भूमि पर चलते समय वे हाथों का सहारा कम लेने लगे और अधिकाधिक सीधे खड़े हो कर चलने लगे। वानर से नर में संक्रमण का यह निर्णायक पग था।

सभी वर्तमान मानवाभ वानर सीधे खड़े हो सकते हैं और पैरों के बल चल सकते हैं, पर तभी जब सख्त जरूरत हो, और बड़े भोंडे ढंग से ही। उन के चलने का स्वाभाविक ढंग आधा खड़े हो कर चलना है, और उस में हाथों का इस्तेमाल शामिल होता है। इन में से अधिकतर मुट्ठी की गिरह को जमीन पर रखते हैं, और पैरों को खींच कर शरीर को लम्बी बाहों के बीच से झुलाते हैं, जिस तरह लंगड़े लोग बैसाखी के सहारे चलते हैं। सामान्यतः वानरों में हम आज भी चौपायों की तरह चलने से ले कर पांवो पर चलने के बीच की सभी क्रमिक मंजिलें देख सकते हैं। पर उन में से किसी के लिए भी पावों के सहारे चलना एक आरज़ी तदबीर से ज्यादा कुछ नहीं है। हमारे लोमश पूर्वजों में सीदी चाल के पहले नियम बन जाने और उस के बाद अपरिहार्य बन जाने का तात्पर्य यह है कि बीच के काल में हाथों के लिए लगातार नए नए काम निकलते गए होंगे। वानरों तक में हाथों और पांवो के उपयोग में एक विभाजन पाया जाता है। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है, चढ़ने में हाथों का उपयोग पैरों से भिन्न ढंग से किया जाता है। जैसा कि निम्न जातीय स्तनधारी जीवों में आगे के पंजे के इस्तेमाल के बारे में देखा जाता है, हाथ प्रथमतः आहार संग्रह, तता ग्रहण के काम आते हैं। बहुत से वानर वृक्षों में अपने लिए डेरा बनाने के लिए हाथों का इस्तेमाल करते हैं अथवा चिंपाजी की तरह वर्षा-धूप से रक्षा के लिए तरुशाखाओं के बीच छत सी बना लेते हैं। दुश्मन से बचाव के लिए वे अपने हाथों से डण्डा पकड़ते हैं या दुश्मनों पर फलों अथवा पत्थरों की वर्षा करते हैं। बंदी अवस्था में वे मनुष्यों के अनुकरण से सीखी गई सरल क्रियाएँ अपने हाथों से करते हैं। लेकिन ठीक यहीं हम देखते हैं कि मानवाभ से मानवाभ वानरों के अविकसित हाथ और लाखों वर्षों के श्रम द्वारा अति परिनिष्पन्न मानव हाथ सैंकड़ों ऐसी क्रियाएँ संपन्न कर सकते हैं जिन का अनुकरण किसी भी वानर के हाथ नहीं कर सकते। किसी भी वानर के हाथ पत्थर की भोंडी छुरी भी आज तक नहीं गढ़ सके हैं। अतः आरंभ में वे क्रियाएँ अत्यंत सरल रही होंगी, जिन के लिए हमारे पूर्वजों ने वानर से नर में संक्रमण के हजारों वर्षों में अपने हाथों को अनुकूलित करना धीरे-धीरे सीखा होगा। फिर भी निम्नतम प्राकृत मानव भी वे प्राकृत मानव भी जिन में हम अधिक पशुतुल्य अवस्था में प्रतिगमन तथा उस के साथ ही साथ शारीरिक अपह्रास का घटित होना मान ले सकते हैं, इन अंतर्वर्ती जीवों से कहीं श्रेष्ठ हैं। मानव हाथों द्वारा पत्थर की पहली छुरी बनाए जाने से पहले शायद एक ऐसी अवधि गुजरी होगी जिस की तुलना में ज्ञात ऐतिहासिक अवधि नगण्य सी लगती है। किन्तु निर्णयक पग उठाया जा चुका था। हाथ मुक्त हो गया था और अब से अधिकाधिक दक्षता एवं कुशलता प्राप्त कर सकता था। तथा इस प्रकार प्राप्त उच्चतर नमनीयता वंशागत हेती थी और पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती जाती थी। अतः हाथ केवल श्रमेन्द्रिय ही नहीं हैं, वह श्रम की उपज भी है। श्रम के द्वारा ही, नित नयी क्रियाओं के प्रति अनुकूलन के द्वारा ही, इस प्रकार उपार्जित पेशियों, स्नायुओं- और दीर्घतर अवधियों में हड्डियों-के विशेष विकास की वंशागतता के द्वारा ही, तथा इस वंशागत पटुता के नए, अधिकाधिक जटिल क्रियाओं मे नित पुनरावृत्त उपयोग के द्वारा ही मानव हाथ ने वह उच्च परिनिष्पन्नता प्राप्त की है जिस की बदौलत राफ़ायल की सी चित्रकारी, थोर्वाल्दसेन की सी मूर्तिकारी और पागनीनी का सा संगीत आविर्भूत हो सका। मनुष्य के वाक् और मस्तिष्क का विकास परन्तु हाथ अपने आप में ही अस्तित्वमान न था। वह तो एक पूरी अति जटिल शरीर-व्यवस्था का एक अंग मात्र था। और जिस चीज से हाथ लाभान्वित हुआ, उस से वह पूरा शरीर भी लाभान्वित हुआ जिस की हाथ खिदमत करता था। यह दो प्रकार से हुआ।

पहली बात यह कि शरीर उस नियम के परिणामस्वरूप लाभान्वित हुआ जिसे डार्विन विकास के अंतःसंबंध का नियम कहते थे। इस नियम के अनुसार किसी जीव के अलग-अलग अंगों के विशेष रूप से उन से असंबद्ध अन्य अंगों के कतिपय रूपों के साथ आवश्यक तौर पर जुड़े हुए होते हैं। जैसे, उन सभी पशुओं में, जिन में कोशिका केंद्रकों के बिना लाल रक्त कोशिकाएँ होती हैं और जिन में सिर का पृष्ठ भाग दुहरी संधि (अस्थिकंद) के द्वारा प्रथम कशेरूक के साथ जुड़ा होता है, निरपवाद रूप में अपने बच्चों को स्तनपान कराने के लिए दुग्ध ग्रंथियाँ भी होती हैं। इसी तरह जिन स्तनधारी जीवों में अलग-अलग खुर पाया जाता है। कतिपय रूपों में परिवर्तन के साथ शरीर के अन्य भागों में भी परिवर्तन होते हैं, यद्यपि इस सह-संबंध की हम कोई व्याख्या नहीं कर सकते। नीली आँखों वाली बिल्कुल सफेद बिल्लियाँ सदा, प्रायः बहरी होती हैं। मानव हाथ के शनैः शनैः अधिकाधिक परिनिष्पन्न होने और उसी अनुपात में पैरों को सीधी चाल के लिए अनुकूलित होने की, इस अंतः सबंध के नियम की बदौलत, निस्संदिग्ध रुप से शरीर के अन्य भागों में प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई, पर इस क्रिया की अभी इतनी कम जाँच पड़ताल की गई है कि हम यहाँ तथ्य को सामान्य शब्दों में प्रस्तुत करने से अधिक कुछ नहीं कर सकते। इस से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है शेष शरीर पर हाथ के विकास की प्रत्यक्ष दृश्यमान प्रतिक्रिया। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, हमारे पूर्वज, मानवाभ वानर, यूथचारी थे। प्रकट है कि सब से अधिक सामाजिक पशु-मनुष्य-का व्युत्पत्ति संबंध किन्हीं अयूथचारी निकटतम पूर्वजों से स्थापित करने की चेष्टा असम्भव है। हात के विकास के साथ, श्रम के साथ आरंभ होने वाली प्रकृति पर विजय ने प्रत्येक अग्रगति के साथ मानव के क्षितिज को व्यापक बनाया। मनुष्य को प्राकृतिक वस्तुओं के नए नए और अब तक अज्ञात गुणधर्मों का लगातार पता लगता जा रहा था। दूसरी ओर, श्रम के विकास ने पारस्परिक सहायता, सम्मिलित कार्यकलाप के उदाहरणों को बढ़ा कर और प्रत्येक व्यक्ति के लिए इस सम्मिलित कार्य कलाप की लाभप्रदता स्पष्ट कर के समाज के सदस्यों को एक दूसरे के निकटतर लाने में आवश्यक रूप से मदद दी। संक्षेप में, विकसित होते मानव उस बिंदु पर पहुँचे जहाँ उन्हें एक दुसरे से कुछ कहने की जरूरत महसूस होने लगी। इस वाक्-प्रेरणा से धीरे-धीरे पर निश्चित रूप से काया पलट हुआ, जिस से कि लगातार और भी विकसित मूर्च्छना पैदा हो, और मुख के प्रत्यंग एक-एक कर नयी-नयी संहित ध्वनियों का उच्चारण करना धीरे-धीरे सीखते गए।

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