बहुत पूरानी कहानी है. एक बार एक राजा के दरबार में एक आदमी आया. वह अपने बेटे को साथ लाया था. उसने बेटे को बडे ढंग से बडा किया था, बडे संस्कारो में ढाला था, बडा पढ़ाया लिखाया था.
सदा से उसकी यही आकांक्षा थी कि उसका एक बेटा कम से कम राजा के दरबार का हिस्सा हो जाए. उसने उसके लिए ही बडी मेहनत से उसे तैयार किया था. उसे बडा भरोसा था, क्योंकि उसने सभी परीक्षाएं भी उत्तीर्ण कर ली थी और जहां-जहां, उसे पढने-लिखने भेजा था, गुरूओं ने बडे प्रमाण-पत्र दिए थे और उसकी बडी प्रशंसा की थी. वह बडा बुध्दिमान युवक था. सुंदर था, दरबार के योग्य था. बाप को आशा थी की कभी वह बडा वजीर भी हो जाएगा.
राजा से आकर उसने कहा कि मेरे पांच बेटों में यह सबसे बडा ज्यादा सुंदर, सबसे ज्यादा स्वस्थ, सबसे ज्यादा बुध्दिमान है. यह आपके दरबार में शोभा पा सकता है, आप इसे एक मौका दें. और जो भी जाना जा सकता है, इसने जान लिया.
राजा ने सिर भी ऊपर न उठाया. और कहा, एक साल बाद लाओ. बाप ने सोचा शायद अभी कुछ कमी हैं, क्योंकी सम्राट ने सिर भी उठाकर न देखा. उसे एक साल के लिए और अध्ययन के लिए भेज दिया.
सालभर के बाद वह और अध्ययन करके लौटा, अब अध्यन को भी कुछ न बचा, वह आखिरी डिग्री ले आया-फिर लेकर पहुँचा. राजा ने उसकी तरफ देखा, लेकिन कहा, ठीक है, लेकिन उसकी क्या विशेषता है ? किस लिए तुम चाहते हो कि यह दरबार में रहें ?
तो उसके बाप ने कहा, इसे मैंने सूफियों के सत्संग में बडा किया है. सूफि-मत के संबंध में जितना बडा अब यह जानकार है, दूसरा खोजना मुश्किल है. यह आपका सूफी सलाहकार होगा. रहस्य धर्म को जानने वाला कोई दरबार में होना चाहिए, नहीं तो दरबार की शोभा नहीं है. सब हैं आपके दरबार में बडे कवि है, बडे पंडित है, बडे भाषावादी है लेकिन कोई सुफि नहीं.
राजा ने कहा ठीक है. एक साल बाद लाओ. एक साल बाद फिर लेकर उपस्थित हुआ. अब तो बाप भी थोडा डरने लगा की यह तो हर बार एक साल.
राजा ने कहा की ऐसा करो, तुम्हारी निष्ठा है, तुम सतत पीछे लगे हो, इसलिए मुझे भी लगता है कुछ करना जरुरी है. तुम हार नहीं गये हो, हताश नहीं हो गए हो. अब ऐसा करो, तुम (युवक को) जाओ और किसी सूफी को अपना गुरू मान लो, और किसी सूफी को खोज लो जो तुम्हें शिष्य मानने को तैयार हो. तुम्हारा गुरु मान लेना काफी नहीं है. कोई गुरु तुम्हें शिष्य भी मानने को तैयार हो. फिर सालभर बाद आ जाना.
अब युवक गया. एक गुरु के चरणों में बैठा. सालभर बाद बाप उसको लेने आया. वह गुरु के चरणों में बैठा था, उसने बाप कि तरफ देखा ही नहीं. बाप ने उसे हिलाया कि नासमझ, क्या कर रहा है? उठ साल बीत गया, फिर दरबार चलना है.
उसने बाप को कोई जवाब भी नहीं दिया. वह अपने गुरू के पैर दबा रहा था, वह पैर ही दबाता रहा. बाप ने कहा कि व्यर्थ गया, काम से गया, निकम्मा सिद्ध हो गया. इसीलिए हमने तुझे पहले किसी सूफी फकिर के पास नहीं भेजा था. हम सूफी पंडितो के पास भेजते रहे. यह राजा ने कहा की झंझट बता दि कि कोई गुरू जो तुझे शिष्य कि तरह स्वीकार करें.
तू सुनता क्यो नहीं? क्या तू पागल हो गया है कि बहरा हो गया है? मगर वह युवक चुप ही रहा. साल बीत गया, बाप दूखी होकरे घर को लौट गया राजा ने पुछवाया कि लडका आया क्यों नहीं ?
बाप ने कहा की सब व्यर्थ हो गया, निकम्मा साबित हो गया. क्षमा करें, मेरी भूल थी, मैंने पत्थर को हीरा समझा. लेकिन राजा ने अपने वजीरो से कहा कि तैयारी की जाए, उस आश्रम में जाना पडेगा.
राजा खुद आया. द्वार पर खडा हुआ. गुरु लडके को हाथ से पकडकर दरवाजे पर लाया और राजा से उसने कहा कि अब तुम्हारे यह योग्य है, क्योंकि पहले तो यह तुम्हारें पास जाता था, अब तुम इसके पास आए.
बाप की दृष्टि में यह निकम्मा हो गया, किसी काम का न रहा. लेकिन अब यह परमात्मा की दूनिया में काम का हो गया है. अगर यह राजी हो, और तुम ले जा सको, तो तुम्हारा दरबार शोभायमान होगा. यह तुम्हारें दरबार की ज्योति हो जाएगा.
कहते है, राजा ने बहुत हाथ-पैर जौडे, लेकिन वह युवक जाने को तैयार न हुआ – उस युवक ने कहा कि अब इन चरणो को छोडकर कहीं जाना नहीं है. मुझे मेरा दरबार मिल गया ।