मज़दूर का अलगाव – कार्ल मार्क्स (1844)

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(आर्थिक नियमों के अनुसार मज़दूर का अलगाव इस तरह से प्रकट होता है : मज़दूर जितना अधिक उत्पादन करता है, उसके पास उपभोग करने के लिए उतना ही कम रहता है, वह जितना अधिक मूल्य पैदा करता है, वह ख़ुद उतना ही अधिक मूल्यहीन और महत्वहीन होता जाता है, उसका उत्पादन जितना ही अधिक सुन्दर-सुगठित होता है, मज़दूर उतना ही कुरूप-बेडौल बनता जाता है, उसकी बनायी वस्तुएँ जितनी अधिक सभ्य होती जाती हैं, मज़दूर उतना ही अधिक बर्बर होता जाता है। उसका श्रम जितना अधिक शक्तिशाली होता जाता है, मज़दूर उतना ही अधिक शक्तिहीन होता जाता है, उसका श्रम जितना ही कुशल होता जाता है, मज़दूर उतना ही कम कुशल होता जाता है और वह उतना ही अधिक प्रकृति का दास बन जाता है।)

राजनीतिक अर्थशास्त्र मज़दूर (श्रम) और उत्पादन के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध पर ध्यान न देकर श्रम की प्रकृति में अन्तर्निहित अलगाव को छिपाता है। यह सच है कि श्रम अमीरों के लिए शानदार चीज़ें पैदा करता है — लेकिन मज़दूर के लिए यह अभाव पैदा करता है। यह महल पैदा करता है — लेकिन मज़दूर के लिए सिर्फ़ गन्दी झोपड़ियाँ। यह सुन्दरता पैदा करता है — लेकिन मज़दूर के लिए कुरूपता। यह श्रम की जगह मशीनें ले आता है, लेकिन यह मज़दूरों के एक हिस्से को वापस बर्बर किस्म के श्रम में धकेल देता है और दूसरे हिस्से को एक मशीन में तब्दील कर देता है। यह बुद्धिमत्ता पैदा करता है — लेकिन मज़दूर के लिए, मूर्खता और मन्दबुद्धि।

श्रम का उसके उत्पादों के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध मज़दूर का उसके उत्पादन की वस्तुओं के साथ सम्बन्ध होता है। साधनों के मालिक का उत्पादन की वस्तुओं के साथ और ख़ुद उत्पादन के साथ सम्बन्ध इस पहले सम्बन्ध का ही परिणाम है और उसकी पुष्टि करता है। हम इस पहलू पर बाद में विचार करेंगे। तो, जब हम पूछते हैं कि श्रम का सारभूत सम्बन्ध क्या है, तब हम उत्पादन के साथ मज़दूर के सम्बन्ध के बारे में पूछ रहे होते हैं।

अब तक हम मज़दूर के अलगाव, उसके बेगानेपन के सिर्फ़ एक पहलू पर, यानी मज़दूर के श्रम के उत्पादों से उसके सम्बन्ध पर विचार कर रहे थे। लेकिन यह अलगाव केवल परिणाम में ही नहीं बल्कि ख़ुद उत्पादन की क्रिया में, उत्पादक क्रियाकलाप में भी प्रकट होता है। अगर मज़दूर उत्पादन की क्रिया में ही ख़ुद को अपनेआप से अलग नहीं कर रहा होता, तो वह अपने श्रम की पैदावार को एक अजनबी के रूप में कैसे देखता? आख़िरकार, पैदावार तो उत्पादन की क्रिया का एक सारांश ही है। तब अगर श्रम की पैदावार बेगानापन है, तो स्वयं उत्पादन को सक्रिय बेगानापन होना चाहिए, क्रियाकलाप का बेगानापन, बेगानेपन का क्रियाकलाप। श्रम की वस्तु का अलगाव, सारांश रूप में श्रम के क्रियाकलाप का अलगाव, उसका बेगानापन ही है।

तो फिर, श्रम का बेगानापन है क्या?

सबसे पहले, तथ्य यह है कि श्रम मज़दूर के लिए पराया होता है, यानी यह उसके सहज स्वभाव का हिस्सा नहीं होता, इसलिए वह अपने को स्वीकार नहीं करता बल्कि ख़ुद को नकारता है, सन्तुष्ट नहीं बल्कि नाख़ुश रहता है, अपनी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा का विकास नहीं करता बल्कि अपने शरीर को गला डालता है और दिमाग़ को नष्ट कर लेता है। इसलिए मज़दूर केवल अपने काम से बाहर रहने पर अपने आप को महसूस करता है। जब वह काम नहीं करता है तब सहज महसूस करता है और जब वह काम करता है तब सहज नहीं महसूस करता। इसलिए उसका श्रम स्वैच्छिक नहीं, बल्कि दबाव में किया गया होता है, यह जबरिया श्रम होता है। इसलिए यह किसी ज़रूरत की पूर्ति नहीं होता, यह महज़ उसके लिए परायी कुछ ज़रूरतों को पूरा करने का एक साधन होता है। इसका बेगाना चरित्र इस तथ्य से साफ़ ज़ाहिर होता है कि जैसे ही कोई शारीरिक या अन्य बाध्यता नहीं रह जाती, श्रम से इस तरह दूरी बरती जाती है जैसे वह कोई महामारी हो। पराया श्रम, ऐसा श्रम जिसमें मनुष्य ख़ुद को बेगाना कर लेता है, अपने को क़ुर्बान करने वाला, गला डालने वाला श्रम होता है। अन्त में, मज़दूर के लिए श्रम का पराया चरित्र इस तथ्य में प्रकट होता है कि यह श्रम उसका अपना नहीं होता, बल्कि किसी और का होता है, कि इस पर उसका हक़ नहीं होता, इस श्रम के रूप में अपनेआप पर उसका नहीं, बल्कि दूसरे का हक़ होता है। जैसे धर्म में मनुष्य की कल्पना, मनुष्य के मस्तिष्क और हृदय की स्वत:स्फूर्त गतिविधि, उससे स्वतंत्र होकर व्यक्ति पर क्रिया करती है यानी कि एक परायी, दैवी अथवा शैतानी गतिविधि के रूप में क्रिया करती है — इसलिए मज़दूर का क्रियाकलाप उसका स्वत:स्फूर्त क्रियाकलाप नहीं होता। इस पर किसी दूसरे का अधिकार होता है; इसमें वह अपने को ही खो देता है।

इसलिए, इसके परिणामस्वरूप, मनुष्य (मज़दूर) केवल अपनी पशुवत क्रियाओं — ख़ाने, पीने, बच्चे पैदा करने, या ज्यादा से ज्यादा अपनी रिहाइश और कपड़े पहनने आदि में अपने को आज़ादी से काम करते हुए महसूस करता है; और अपनी मानवीय क्रियाओं में वह अपने को एक पशु से ज्यादा कुछ नहीं महसूस करता। जो पशुवत है वह मानवीय हो जाता है और जो कुछ मानवीय है वह पशुवत बन जाता है।

निश्चित रूप से, खाना, पीना, बच्चे पैदा करना आदि भी वास्तविक मानवीय क्रियाएँ हैं लेकिन अमूर्त तौर पर, अन्य सभी मानवीय क्रियाकलाप के दायरे से अलग करके देखने पर, और एकमात्र तथा अन्तिम लक्ष्यों में बदल देने पर, वे पशुवत क्रियाएँ होती हैं।

हमने मनुष्य की व्यावहारिक गतिविधि, श्रम, के अलगाव की क्रिया के दो पहलुओं पर विचार किया है। (1) श्रम के उत्पाद के साथ मज़दूर का ऐसा सम्बन्ध जिसमें उत्पाद उसके ऊपर नियंत्रण करने वाली एक बेगानी शक्ति होती है। साथ ही, यह सम्बन्ध ऐन्द्रिक बाहरी जगत के साथ, प्रकृति की वस्तुओं के साथ भी उसका सम्बन्ध होता है, एक ऐसे पराये जगत के रूप में जो शत्रुतापूर्ण ढंग से उसका विरोधी है। (2) श्रम प्रक्रिया के भीतर उत्पादन की क्रिया के साथ श्रम का सम्बन्ध। यह सम्बन्ध एक ऐसी गतिविधि के रूप में अपनी ख़ुद की गतिविधि के साथ मज़दूर का सम्बन्ध है जो एक परायी गतिविधि है जिस पर उसका कोई हक़ नहीं है; इसमें गतिविधि का मतलब है दुख-तकलीफ़, ताक़त का मतलब है कमज़ोरी, सृजन का मतलब है पुंसत्वहीन होना, मज़दूर की अपनी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा का नाश होना, उसके निजी जीवन — क्योंकि गतिविधि ही तो जीवन है — का एक ऐसी गतिविधि में बदल जाना जो उसके ख़िलाफ़ है, उससे स्वतंत्र है और जिस पर उसका अधिकार नहीं है। यहाँ हमारे सामने है अपनेआप से अलगाव, जैसे पहले हमने देखा था वस्तु का अलगाव।

(‘1844 की पाण्डुलिपियाँ’ से)

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