बुर्जुआ जनवाद : संकीर्ण, पाखण्डपूर्ण, जाली और झूठा; अमीरों के लिए जनवाद और गरीबों के लिए झाँसा- लेनिन
”…केवल संसदीय-सांविधानिक राजतंत्रों में ही नहीं, बल्कि अधिक से अधिक जनवादी जनतंत्रों में भी बुर्जुआ संसदीय व्यवस्था का सच्चा सार कुछ वर्षों में एक बार यह फैसला करना ही है कि शासक वर्ग का कौन सदस्य संसद में जनता का दमन और उत्पीड़न करेगा।” (मार्क्स)
लेकिन अगर हमें राज्य के प्रश्न को लेना है, अगर इस क्षेत्र में सर्वहारा वर्ग के कार्यभारों की दृष्टि से संसदीय व्यवस्था पर राज्य की एक संस्था के रूप में विचार करना है, तो संसदीय व्यवस्था से निस्तार का रास्ता क्या है? किस तरह उसके बिना काम चलाया जा सकता है?
हमें बार-बार दोहराना चाहिए : कम्यून के अध्ययन पर आधारित मार्क्स की सीखों को इतनी पूरी तरह भुला दिया गया है कि संसदीय व्यवस्था की अराजकतावादी या प्रतिक्रियावादी आलोचना को छोड़कर और कोई भी आलोचना आज के ”सामाजिक-जनवादी” (पढ़िये : समाजवाद के आधुनिक गद्दार) की समझ में बिलकुल नहीं आती।
संसदीय व्यवस्था में निस्तार का रास्ता बेशक प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं और चुनाव के सिद्धान्त को ख़त्म कर देना नहीं, बल्कि प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं को गपबाज़ी के अड्डों से बदलकर ”कार्यशली” संस्थाएँ बना देना है। ”कम्यून संसदीय नहीं, बल्कि एक कार्यशील संगठन था, जो कार्यकारी और विधिकारी, दोनों कार्य साथ-साथ करता था।”
”संसदीय नहीं, बल्कि कार्यशील संगठन” – आज के संसदबाज़ों और सामाजिक-जनवाद के संसदीय पालतू कुत्तों के मुँह पर यह भरपूर तमाचा है! अमरीका से स्विट्ज़रलैंड तक, फ्रांस से इंग्लैण्ड, नार्वे आदि तक चाहे किसी संसदीय देश को ले लीजिये – इन देशों में ”राज्य” के असली काम की तामील पर्दे की ओट में की जाती है और उसे महकमे, दफ्तर और फौजी सदर-मुकाम करते हैं। संसदों को आज जनता” को बेवकूफ बनाने के विशेष उद्देश्य से बकवास करने के लिए छोड़ दिया जाता है।”
(लेनिन : राज्य और क्रान्ति)
”…बुर्जुआ समाज की भ्रष्ट तथा सड़ी-गली संसदीय व्यवस्था की जगह कम्यून ऐसी संस्थाएँ कायम करता है, जिनके अन्दर राय देने और बहस करने की स्वतंत्रता पतित होकर प्रवंचना नहीं बनती, क्योंकि संसद-सदस्यों को ख़ुद काम करना पड़ता है, अपने बनाये हुए कानूनों को ख़ुद ही लागू करना पड़ता है, उनके परिणामों की जीवन की कसौटी पर स्वयं परीक्षा करनी पड़ती है और अपने मतदाताओं के प्रति उन्हें प्रत्यक्ष रूप से ज़िम्मेदार होना पड़ता है। प्रतिनिधिमूलक संस्थाएँ बरकरार रहती हैं, लेकिन विशेष व्यवस्था के रूप में, कानून बनाने और कानून लागू करने के कामों के बीच विभाजन के रूप में, सदस्यों की विशेषाधिकार-पूर्ण स्थिति के रूप में संसदीय व्यवस्था यहाँ नहीं होती। प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं के बिना जनवाद की, सर्वहारा जनवाद की भी कल्पना हम नहीं कर सकते, लेकिन संसदीय व्यवस्था के बिना जनवाद की कल्पना हम कर सकते हैं और हमें करनी चाहिए, अगर बुर्जुआ समाज की आलोचना हमारे लिए कोरा शब्दजाल नहीं हैं, अगर बुर्जुआ वर्ग के प्रभुत्व के उलटने की हमारी इच्छा गम्भीर और सच्ची है, न कि मेंशेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों की तरह, शीडेमान, लेजियन, सेम्बा और वारडरवेल्डे जैसे लोगों की तरह मज़दूरों के वोट पकड़ने के लिए ”चुनाव” का नारा भर।”
(लेनिन : राज्य और क्रान्ति)
”…बुर्जुआ जनवाद, जो सर्वहारा वर्ग को शिक्षित-दीक्षित करने और उसे संघर्ष के लिए प्रशिक्षित करने के वास्ते मूल्यवान है, सदैव संकीर्ण, पाखण्डपूर्ण, जाली और झूठा होता है, वह सदा अमीरों के लिए जनवाद और गरीबों के लिए झाँसा होता है।
सर्वहारा जनवाद शोषकों को, बुर्जुआ वर्ग को कुचलता है और इस लिए वह पाखण्डपूर्ण नहीं है, स्वतंत्रता तथा जनवाद का उन्हें वचन नहीं देता, लेकिन मेहनतकशों को सच्चा जनवाद देता है। केवल सोवियत रूस ने सर्वहारा वर्ग तथा सारी विशाल मेहनतकश बहुसंख्या को किसी भी बुर्जुआ जनवादी जनतंत्र में अभूतपूर्व, असम्भव तथा अकल्पनीय स्वतंत्रता तथा जनवाद प्रदान किये। यह उसने, उदाहरण के लिए, बुर्जुआ जनों से महल और हवेलियाँ छीनकर (इसके बिना सभा करने की स्वतंत्रता पाखंड है), पूँजीपतियों से छापेख़ाने और कागज छीनकर (इसके बिना राष्ट्र की मेहनतकश बहुसंख्या के लिए प्रेस की स्वतंत्रता झूठ है), बुर्जुआ संसदीयता के स्थान पर उन सोवियतों के जनवादी संगठन की स्थापना करके किया, जो सर्वाधिक जनवादी बुर्जुआ संसद की तुलना में जनता के 1,000 गुना अधिक समीप, अधिक जनवादी है, इत्यादि।”
(लेनिन : सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काउत्सकी)