फारस देश में एक रूमा नामक नगर था। उस नगर के बादशाह का नाम गरीक था। उस बादशाह को कुष्ठ रोग हो गया। इससे वह बड़े कष्ट में रहता था। राज्य के वैद्य-हकीमों ने भाँति-भाँति से उसका रोग दूर करने के उपाय किए किंतु उसे स्वास्थ्य लाभ नहीं हुआ। संयोगवश उस नगर में दूबाँ नामक एक हकीम का आगमन हुआ। वह चिकित्सा शास्त्र में अद्वितीय था, जड़ी-बूटियों की पहचान उससे अधिक किसी को भी नहीं थी। इसके अतिरिक्त वह प्रत्येक देश की भाषा तथा यूनानी, अरबी, फारसी इत्यादि अच्छी तरह जानता था।
जब उसे मालूम हुआ कि वहाँ के बादशाह को ऐसा भयंकर कुष्ठ रोग है जो किसी हकीम के इलाज से ठीक नहीं हुआ है, तो उसने नगर में अपने आगमन की सूचना उसके पास भिजवाई और उससे भेंट करने के लिए स्वयं ही प्रार्थना की। बादशाह ने अनुमति दे दी तो वह उसके सामने पहुँचा और विधिपूर्वक दंडवत प्रणाम करके कहा, ‘मैने सुना है कि नगर के सभी हकीम आप का इलाज कर चुके और कोई लाभ न हुआ। यदि आप आज्ञा करें तो मैं खाने या लगाने की दवा दिए बगैर ही आपका रोग दूर कर दूँ।’ बादशाह ने कहा, ‘मैं दवाओं से ऊब चुका हूँ। अगर तुम बगैर दवा के मुझे अच्छा करोगे तो मैं तुम्हें बहुत पारितोषिक दूँगा।’ दूबाँ ने कहा, ‘भगवान की दया से मैं आप को बगैर दवा के ठीक कर दूँगा। मैं कल ही से चिकित्सा आरंभ कर दूँगा।’
हकीम दूबाँ बादशाह से विदा होकर अपने निवास स्थान पर आया। उसी दिन उसने कोढ़ की दवाओं से निर्मित एक गेंद और उसी प्रकार एक लंबा बल्ला बनवाया और दूसरे दिन बादशाह को यह चीजें देकर कहा कि आप घुड़सवारी की गेंदबाजी (पोलो) खेलें और इस गेंद-बल्ले का प्रयोग करें। बादशाह उसके कहने के अनुसार खेल के मैदान में गया। हकीम ने कहा, ‘यह औषधियों का बना गेंद-बल्ला है। आप को जब पसीना आएगा तो येऔषधियाँ आप के शरीर में प्रवेश करने लगेंगी। जब आपको काफी पसीना आ जाए और औषधियाँ भली प्रकार आप के शरीर में प्रविष्ट हो जाएँ तो आप गर्म पानी से स्नान करें। फिर आपके शरीर में मेरे दिए हुए कई गुणकारी औषधियों के तेलों की मालिश होगी। मालिश के बाद आप सो जाएँ। मुझे विश्वास है कि दूसरे दिन उठकर आप स्वयं को नीरोग पाएँगे।’
बादशाह यह सुनकर घोड़े पर बैठा और अपने दरबारियों के साथ चौगान (पोलो) खेलने लगा वह एक तरफ से उनकी ओर बल्ले से गेंद फेंकता था और वे दूसरी ओर से उसकी तरफ गेंद फेंकते थे। कई घंटे तक इसी प्रकार खेल होता रहा। गर्मी के कारण बादशाह के सारे शरीर से पसीना टपकने लगा और हकीम की दी हुई गेंद और बल्ले की औषधियाँ उसके शरीर में प्रविष्ट हो गईं। इसके बाद बादशाह ने गर्म पानी से अच्छी तरह मल-मल कर स्नान किया। इसके बाद तेलों की मालिश और दूसरी सारी बातें जो वैद्य ने बताई थीं की गईं। सोने के बाद दूसरे दिन बादशाह उठा तो उसने अपने शरीर को ऐसा नीरोग पाया जैसे उसे कभी कुष्ठ हुआ ही नहीं था।
बादशाह को इस चामत्कारिक चिकित्सा से बड़ा आश्चर्य हुआ। वह हँसी-खुशी उत्तमोत्तम वस्त्रालंकार पहन कर दरबार में आ बैठा। दरबारी लोग मौजूद थे ही। कुछ ही देर में हकीम दूबाँ भी आया। उसने देखा कि बादशाह का अंग-अंग कुंदन की तरह दमक रहा है। अपनी चिकित्सा की सफलता पर उसने प्रभु को धन्यवाद दिया और समीप आकर दरबार की रीति के अनुसार सिंहासन को चुंबन दिया। बादशाह ने हकीम को बुलाकर अपने बगल में बिठाया और दरबार के लोगों के सन्मुख हकीम की अत्यधिक प्रशंसा की।
बादशाह ने अपनी कृपा की उस पर और भी वृष्टि की। उसे अपने ही साथ भोजन कराया। संध्याकालीन दरबार समाप्त होने पर जब मुसाहिब और दरबारी विदा हो गए तो उसने एक बहुत ही कीमती खिलअत (पारितोषक राजवस्त्र) और साठ हजार रुपए इनाम में दिए। इसके बाद भी वह दिन-प्रतिदिन हकीम की प्रतिष्ठा बढ़ाता जाता था। वह सोचता था कि हकीम ने जितना उपकार मुझ पर किया है उसे देखते हुए मैंने इसके साथ कुछ भी नहीं किया। इसीलिए वह प्रतिदिन कुछ न कुछ इनाम-इकराम उसे देने लगा।
बादशाह का मंत्री हकीम की इस प्रतिष्ठा और उस पर बादशाह की ऐसी अनुकंपा देखकर जल उठा। वह कई दिन तक सोचता रहा कि हकीम को बादशाह की निगाहों से कैसे गिराऊँ। एक दिन एकांत में उसने बादशाह से निवेदन किया कि मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ, अगर आप अप्रसन्न न हों। बादशाह ने अनुमति दे दी तो मंत्री ने कहा, ‘आप उस हकीम को इतनी मान-प्रतिष्ठा दे रहे हैं यह बात ठीक नहीं है। दरबार के लोग और मुसाहिब भी इस बात को गलत समझते हैं कि एक विदेशी को, जिसके बारे में यहाँ किसी को कुछ पता नहीं है, इतना मान-सम्मान देना और विश्वासपात्र बनाना अनुचित है। वास्तविकता यह है कि हकीम दूबाँ महाधूर्त है। वह आपके शत्रुओं का भेजा हुआ है जो चाहते हैं वह छल क द्वारा आपको मार डाले।’
बादशाह ने जवाब दिया, ‘मंत्री, तुम्हें हो क्या गया है जो ऐसी निर्मूल बातें कर रहे हो और हकीम को दोषी ठहरा रहे हो?’ मंत्री ने कहा, ‘सरकार मैं बगैर सोचे-समझे यह बात नहीं कह रहा हूँ। मैंने अच्छी तरह पता लगा लिया है कि यह मनुष्य विश्वसनीय नहीं है। आपको उचित है कि आप हकीम की ओर से सावधान हो जाएँ। मैं फिर जोर देकर निवेदन करता हूँ कि दूबाँ अपने देश से वही इरादा ले कर आया है अर्थात वह छल से आप की हत्या करना चाहता है।’
बादशाह ने कहा, ‘मंत्री, हकीम दूबाँ हरगिज ऐसा आदमी नहीं है जैसा तुम कहते हो। तुमने स्वयं ही देखा है कि मेरा रोग किसी और हकीम से ठीक न हो सका और दूबाँ ने उसे एक दिन में ही ठीक कर दिया। ऐसी चिकित्सा को चमत्कार के अलावा क्या कहा जा सकता है? अगर वह मुझे मारना चाहता तो ऐसे कठिन रोग से मुझे छुटकारा क्यों दिलाता? उसके बारे में ऐसे विचार रखना बड़ी नीचता है। मैं अब उसका वेतन तीन हजार रुपए मासिक कर रहा हूँ। विद्वानों का कहना है कि सत्पुरुष वही होते हैं जो अपने साथ किए गए किंचित्मात्र उपकार को आजीवन न भूलें। उसने तो मेरा इतना उपकार किया है कि अगर मैं उसे थोड़ा इनाम और मान-सम्मान दे दिया तो तुम उससे जलने क्यों लगे। तुम यह न समझो कि तुम्हारी निंदा के कारण मैं उसका उपकार करना छोड़ दूँगा। इस समय मुझे वह कहानी याद आ रही है जिसमें बादशाह सिंदबाद के वजीर ने शहजादे को प्राणदंड देने से रोका था।’ मंत्री ने कहा, ‘वह कहानी क्या है? मैं भी उसे सुनना चाहता हूँ।’
बादशाह गरीक ने कहा, ‘बादशाह सिंदबाद की सास किसी कारण सिंदबाद के बेटे से नाराज थी। उसने छलपूर्वक शहजादे पर ऐसा भयंकर अभियोग लगाया कि बादशाह ने शहजादे को प्राण-दंड देने का आदेश दे दिया। सिंदबाद के वजीर ने उससे निवेदन किया कि महाराज, इस आदेश को जल्दी में न दें। जल्दी का काम शैतान का होता है। सभी धर्मशास्त्रों ने अच्छी तरह समझे बूझे-बगैर किसी काम को करने से मना किया है। कहीं ऐसा न हो कि आप का उस भले आदमी जैसा हाल हो जिसने जल्दबाजी में अपने विश्वासपात्र तोते को मार दिया और बाद में हमेशा पछताता रहा। बादशाह के कहने से वजीर ने भद्र पुरुष और उसके तोते की कहानी इस तरह सुनाई।’