संबोधि-प्राप्ति के पाँचवे वर्ष में बुद्ध वैशाली के कूटागारसाला में विहार कर रहे थे। तभी वहाँ एक दिन उन्होंने अपने पिता को मृत्यु-शय्या पर पड़ने का सुचना प्राप्ति हुई । उनके पिता अर्हत् की योग्यता प्राप्त कर चुके थे। अत: वह समय उनके पिता को धम्म-देसना देने के लिए उपयुक्त था। इसके अतिरिक्त बुद्ध कपिलवस्तु के शाक्य और कोलनगर (व्याधपज्ज) के कोलों के बीच शांति-वार्ता को मध्यस्थता भी करना चाहते थे क्योंकि दोनों ही वंशों में रोहिणी नदी के जल-विवाद को लेकर भयंकर संग्राम छिड़ गया था।
तत: बुद्ध यात्रा करते हुए कपिलवस्तु पहुँचे । पिता को धर्म-उपदेश दिये जिसे सुनकर सुद्धोदन अर्हत् बनकर मृत्यु को प्रप्त हुए।
सुद्धोदन की मृत्यु के पश्चात् बुद्ध ने शाक्यों और कोलियों के बीच मध्यस्थता की । दोनों ने उनकी बातें सुनी और समझी जिससे दो मित्रवत् पड़ोसी राज्यों के बीच होने वाला संग्राम टल गया । हजारों लोगों के प्राण बच गये और युद्ध से होने वाले अनेक दुष्परिणाम भी। दोनों ही राष्ट्रों के अनेक लोगों ने बुद्ध, धम्म और संघ की शरण ली । बुद्ध ने भी दोनों राज्यों का आतिथ्य स्वीकार कर कुछ दिन कपिलवस्तु तथा कुछ दिन कोलिय नगर में रुक कर उन्हें अपना धन्यवाद ज्ञापित किया।