व्यवहार के बारे में – माओ त्से–तुङ, जुलाई 1937

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अध्यात्मवादी विश्व–दृष्टिकोण के विपरीत, भौतिकवादी द्वन्द्ववाद के विश्व–दृष्टिकोण का कहना है कि किसी वस्तु के विकास को समझने के लिए उसका अध्ययन भीतर से, अन्य वस्तुओं के साथ उस वस्तु के संबंध से किया जाना चाहिए; दूसरे शब्दों में वस्तुओं के विकास को उनकी आंतरिक और आवश्यक आत्म–गति के रूप में देखना चाहिए, और यह कि प्रत्येक गतिमान वस्तु को और उसके इर्द–गिर्द की वस्तुओं को परस्पर संबंधित तथा एक–दूसरे को प्रभावित करती हुई वस्तुओं के रूप में देखना चाहिए। किसी वस्तु के विकास का मूल कारण उसके बाहर नहीं बल्कि उसके भीतर होता है; उसके अंदरूनी अंतरविरोध में निहित होता है। यह अंदरूनी अंतरविरोध हर वस्तु में निहित होता है तथा इसीलिए हर वस्तु गतिमान और विकासशील होती है। किसी वस्तु के भीतर मौजूद अंतरविरोध ही उसके विकास का मूल कारण होता है, जबकि उसके और अन्य वस्तुओं के बीच के अंतर–संबंध  और अंतर–प्रभाव उसके विकास के गौण कारण होते हैं। इस प्रकार भौतिकवादी द्वन्द्ववाद, अध्यात्मवादी यांत्रिक भौतिकवाद और भोंडे़ विकासवाद द्वारा प्रतिपादित बाह्य कारणों, या बाह्य प्रेरणा के सिद्धांत का जोरदार विरोध करता है। जाहिर है कि मात्र बाह्य कारणों से वस्तुओं में केवल यांत्रिक गति ही पैदा हो सकती है, अर्थात उनके पैमाने अथवा मात्रा में ही परिवर्तन हो सकता है, लेकिन उनसे इस बात का खुलासा नहीं हो सकता कि वस्तुओं में हजारों किस्म के गुणात्मक भेद क्यों होते हैं और क्यों एक वस्तु दूसरी वस्तु में बदल जाती है। वास्तव में किसी बाह्य शक्ति से प्रेरित वस्तुओं की यांत्रिक गति भी उनके आंतरिक अंतरविरोध के कारण ही उत्पन्न होती है। वनस्पतियों और जंतुओं की सहज वृद्धि और उनका परिमाणात्मक विकास भी मुख्यत: उनके आंतरिक अंतरविरोधों के कारण ही होता है। इसी प्रकार, सामाजिक विकास मुख्यतया बाह्य कारणों से नहीं बल्कि आंतरिक कारणों से होता है। बहुत से देशों की भौगोलिक और वायुमंडलीय परिस्थितियां लगभग एक समान होते हुए भी उनका विकास अत्यंत भिन्न और असमान रूप से होता है। यही नहीं, किसी देश की भौगोलिक और वायुमंडलीय परिस्थितियों में कोई परिवर्तन न होने पर भी उसके अंदर जबरदस्त सामाजिक परिवर्तन हो सकते हैं। साम्राज्यवादी रूस समाजवादी सोवियत संघ में बदल गया और सामंती जापान, जो द्वार बंद करके संसार से अलग–थलग था, साम्राज्यवादी जापान में बदल गया, जबकि इन दोनों देशों की भौगोलिक और वायुमंडलीय परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। चीन में, जो कि एक लंबे अरसे से सामंती व्यवस्था के चंगुल में रहा है, गत सौ वर्षों के दौरान बहुत भारी परिवर्तन हुए हैं और अब वह एक नए, मुक्त और स्वतंत्र चीन की दिशा में परिवर्तित हो रहा है; लेकिन चीन की भौगोलिक और वायुमंडलीय परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। समूची पृथ्वी तथा उसके प्रत्येक भाग की भौगोलिक और वायुमंडलीय परिस्थितियों में परिवर्तन अवश्य होते रहते हैं, किंतु समाज में होने वाले परिवर्तनों की तुलना में वे बहुत ही नगण्य हैं; भौगोलिक और वायुमंडलीय परिस्थितियों में होने वाले परिवर्तन जहां दसियों हजार सालों में व्यक्त होते हैं, वहां समाज में होने वाले परिवर्तन केवल हजारों, सैकड़ों, दसियों सालों में और यहां तक कि क्रांति के काल में कुछ ही सालों या महीनों में व्यक्त हो जाते हैं। भौतिकवादी द्वन्द्ववाद के दृष्टिकोण के अनुसार प्रकृति में परिवर्तनों का मुख्य कारण प्रकृति में मौजूद आंतरिक अंतरविरोधों का विकास होता है। समाज में परिवर्तनों का मुख्य कारण होता है समाज में मौजूद आंतरिक अंतरविरोधों का, अर्थात उत्पादक शक्तियों और उत्पादन–संबंधों के बीच के अंतरविरोध, वर्गों के बीच के अंतरविरोध तथा नए और पुराने के बीच के अंतरविरोध का विकास होना; इन अंतरविरोधों का विकास ही समाज को आगे बढ़ाता है, तथा पुराने समाज की जगह नए समाज की स्थापना की प्रक्रिया को गति प्रदान करता है। क्या भौतिकवादी द्वन्द्ववाद बाह्य कारणों की भूमिका को नहीं मानता ? नहीं, ऐसा कदापि नहीं है। भौतिकवादी द्वन्द्ववाद का मत है बाह्य कारण परिवर्तन के लिए महज परिस्थिति होते हैं,  जबकि आंतरिक कारण परिवर्तन का आधार होते हैं, तथा बाह्य कारण आंतरिक कारणों के जरिए ही क्रियाशील होते हैं। अनुकूल तापमान में अंडा चूजे में बदल जाता है, लेकिन ऐसा कोई तापमान नहीं होता जो एक पत्थर को चूजे में बदल दे, कारण अंडे और पत्थर का आधार अलग–अलग होता है। विभिन्न देशों की जनता के बीच निरंतर पारस्परिक प्रभाव पड़ता रहता है। पूंजीवाद के युग में, विशेषकर साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के युग में, विभिन्न देशों के बीच राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में पारस्परिक प्रभाव तथा अंतरक्रिया अत्यंत भारी होती है। अक्टूबर समाजवादी क्रांति ने न केवल रूस के इतिहास में बल्कि विश्व के इतिहास में भी एक नए युग का सूत्रपात किया। उसने विश्व के तमाम देशों के आंतरिक परिवर्तनों पर प्रभाव डाला; इसी तरह उसने चीन के आंतरिक परिवर्तनों को और भी गहरे रूप में प्रभावित किया। लेकिन ये परिवर्तन उन देशों के तथा चीन के विकास के आंतरिक नियमों से ही उत्पन्न हुए थे। युद्ध में एक सेना विजयी होती है और दूसरी पराजित; विजय और पराजय दोनों ही आंतरिक कारणों से निश्चित होती हैं। एक सेना विजयी इसलिए होती है कि या तो वह शक्तिशाली है या उसकी कमान सही है; दूसरी सेना पराजित इसलिए होती है कि या तो वह कमजोर है या उसकी कमान अयोग्य है; बाह्य कारण आंतरिक कारणों के जरिए ही क्रियाशील होते हैं। 1927 में चीन के बड़े पूंजीपतियों के वर्ग ने, स्वयं चीनी सर्वहारा वर्ग के भीतर (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में) मौजूद अवसरवाद का फायदा उठाकर सर्वहारा वर्ग को पराजित किया। जब हमने इस अवसरवाद को खत्म कर दिया, तो चीनी क्रांति फिर आगे बढ़ने लगी। बाद में हमारी पार्टी में दुस्साहसवाद के उदय के कारण, चीनी क्रांति को दोबारा दुश्मन के कठोर प्रहारों का शिकार होना पड़ा। जब हमने इस दुस्साहसवाद को खत्म किया, तब हमारा कार्य फिर से एक बार आगे बढ़ चला। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि क्रांति को विजय की मंजिल तक पहुंचाने के लिए, किसी राजनीतिक पार्टी  को खुद अपनी राजनीतिक कार्यदिशा के सही होने पर और अपने संगठन की मजबूती पर निर्भर होना चाहिए।

द्वन्द्ववादी विश्व–दृष्टिकोण का उदय चीन और यूरोप दोनों ही जगहों पर प्राचीन काल में ही हो चुका था। किंतु प्राचीन द्वन्द्ववाद का स्वरूप बहुत कुछ स्वयंस्फूर्त और सरल था; उस समय की सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों में वह एक सैद्धांतिक व्यवस्था का रूप नहीं ले सका और इसलिए विश्व की पूरी तरह व्याख्या नहीं कर सका और बाद में उसका स्थान अध्यात्मवाद ने ले लिया। प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक हेगेल ने, जिसका जीवन काल अठारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक था, द्वन्द्ववाद के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान किया; पर उसका द्वन्द्ववाद आदर्शवादी द्वन्द्ववाद था। सर्वहारा आंदोलन के महान कर्मवीर मार्क्स और एंगेल्स ने जब मानव–ज्ञान के इतिहास की सकारात्मक उपलब्धियों का संश्लेषण कर लिया, विशेषकर हेगेल के द्वन्द्ववाद के युक्तिसंगत तत्वों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाकर उन्हें ग्रहण कर लिया और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद व ऐतिहासिक भौतिकवाद के महान सिद्धांत की रचना की, तभी मानव–ज्ञान के इतिहास में एक अभूतपूर्व महान क्रांति हुई। लेनिन और स्तालिन ने इस महान सिद्धांत को और अधिक विकसित किया। जब यह सिद्धांत चीन में पहुंचा, तो उसने चीनी विचार–जगत में जबरदस्त परिवर्तन ला दिया।

यह द्वन्द्वात्मक विश्व–दृष्टिकोण हमें मुख्य रूप में यह सिखाता है कि विभिन्न वस्तुओं में मौजूद अंतरविरोधों की गति का निरीक्षण और विश्लेषण कुशलता से किया जाना चाहिए, और ऐसे विश्लेषण के आधार पर अंतरविरोधों को हल करने के तरीकों का पता लगाया जाना चाहिए। इसलिए, यह हमारे लिए अत्यधिक महत्व की बात है कि हम वस्तुओं में अंतरविरोध के नियम को ठोस रूप से समझ लें।

  1. अंतरविरोध की सार्वभौमिकता

अपनी व्याख्या को सहज बनाने के लिए, मैं यहां पहले अंतरविरोध की सार्वभौमिकता की चर्चा करूंगा, और उसके बाद अंतरविरोध की विशिष्टता पर विचार करूंगा। इसकी वजह यह है कि अंतरविरोध की सार्वभौमिकता की व्याख्या संक्षेप में की जा सकती है, क्योंकि मार्क्सवाद के महान निर्माताओं और उसको आगे बढ़ाने वालों-मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन-ने जब से भौतिकवादी द्वन्द्ववाद के विश्व–दृष्टिकोण की खोज की और मानव–इतिहास तथा प्राकृतिक इतिहस के विश्लेषण के अनेक पहलुओं पर तथा समाज और प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों के अनेक पहलुओं पर भौतिकवादी द्वन्द्ववाद को बड़ी सफलता के साथ लागू किया (जैसे सोवियत संघ में), तभी से अनेक लोगों ने अंतरविरोध की सार्वभौमिकता को स्वीकार किया है; किंतु अंतरविरोध की विशिष्टता के बारे में बहुत से साथियों के विचार, विशेषकर कठमुल्लावादियों के विचार अब भी साफ नहीं हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि अंतरविरोध की विशिष्टता में ही अंतरविरोध की सार्वभौमिकता निहित है। वे यह भी नहीं समझ पाते कि हमारे सामने उपस्थित ठोस वस्तुओं में निहित अंतरविरोध की विशिष्टता का अध्ययन क्रांतिकारी व्यवहार को आगे बढ़ाने में मार्गदर्शन करने के लिए कितना अधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए, अंतरविरोध की विशिष्टता के अध्ययन पर जोर देना तथा उसकी काफी विस्तार के साथ व्याख्या करना बहुत जरूरी है। इस कारण, वस्तुओं में निहित अंतरविरोध के नियम का विश्लेषण करते समय हम पहले अंतरविरोध की सार्वभौमिकता का विश्लेषण करेंगे, फिर अंतरविरोध की विशिष्टता के विश्लेषण पर विशेष जोर देंगे और अंत में अंतरविरोध की सार्वभौमिकता पर फिर लौट आएंगे।

अंतरविरोध की सार्वभौमिकता या निरपेक्षता के दो अर्थ हैं। एक तो यह कि अंतरविरोध सभी वस्तुओं के विकास की प्रक्रिया में मौजूद रहता है और दूसरा यह कि प्रत्येक वस्तु के विकास की प्रक्रिया में अंतरविरोधों की गति आरंभ से अंत तक कायम रहती है।

एंगेल्स ने कहा था : “गति स्वयं एक अंतरविरोध है।”[5] लेनिन ने विपरीत तत्वों की एकता के नियम की परिभाषा इस प्रकार की थी कि वह “प्रकृति (जिसमें मस्तिष्क और समाज भी शामिल हैं) की सभी घटनाओं और प्रक्रियाओं में अंतरविरोधपूर्ण, एक दूसरे को बहिष्कृत करने वाली, विपरीत प्रवृतियों को मानना (खोज निकालना)”[6] है। क्या ये विचार सही हैं ? हां, सही हैं। तमाम वस्तुओं में निहित अंतरविरोधपूर्ण पहलुओं की अंतर–निर्भरता तथा उनके बीच का संघर्ष ही उन वस्तुओं के जीवन को निर्धारित करते हैं तथा उनके विकास को आगे बढ़ाते हैं। ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसमें अंतरविरोध निहित न हो; अंतरविरोध के बिना विश्व ही न रहेगा।

अंतरविरोध गति के साधारण रूपों (मिसाल के लिए यांत्रिक गति) का आधार है और गति के संश्लिष्ट रूपों का आधार तो वह और भी अधिक है।

एंगेल्स ने अंतरविरोध की सार्वभौमिकता की इन शब्दों में व्याख्या की है :

यदि साधारण यांत्रिक स्थानांतरण में अंतरविरोध निहित है, तो यह बात पदार्थ की गति के उच्चतर रूपों के लिए, विशेषकर प्राणी–जीवन और उसके विकास के लिए और भी अधिक सच है। …जीवन प्रथमत: ठीक इसी बात में निहित है कि एक सजीव वस्तु प्रत्येक क्षण स्वयं वही वस्तु रहते हुए भी कुछ और वस्तु होती है। इसलिए जीवन भी एक अंतरविरोध है जो खुद वस्तुओं और प्रक्रियाओं में मौजूद होता है, और जो लगातार अपने आप उत्पन्न और हल होता रहता है; और ज्यों ही यह अंतरविरोध खत्म हो जाता है, त्यों ही जीवन का भी अंत हो जाता है और मृत्यु का आगमन होता है। इसी तरह हमने यह भी देखा कि विचार के क्षेत्र में भी हम अंतरविरोधों से बच नहीं सकते, और उदाहरण के लिए यह कि मानव जाति की ज्ञानप्राप्ति की स्वभावजन्य असीम क्षमता और मनुष्य द्वारा, जो अपनी बाह्य परिस्थितियों से सीमित होता है और जिसकी बौद्धिक क्षमता भी सीमित होती है, उसकी वास्तविक प्राप्ति के बीच के अंतरविरोध का समाधान-कम से कम व्यावहारिक रूप में, हमारे लिए-एक के बाद दूसरी पीढ़ी के अंतहीन आवर्तन के रूप में, अंतहीन प्रगति के रूप में होता है।

…उच्च गणित–शास्त्र का एक बुनियादी नियम…अंतरविरोध ही है।…पर निम्न गणित–शास्त्र में अंतरविरोधों की भरमार है।[7]

लेनिन ने अंतरविरोध की सार्वभौमिकता की निम्नलिखित मिसालें दी थी:

गणित–शास्त्र में : + और  –– ; अवकलन (डिफरेंशियल) और समाकलन (इन्टिगरल)।

यंत्र–विज्ञान में : क्रिया और प्रतिक्रिया।

भौतिक विज्ञान में : धनात्मक विद्युत और ऋणात्मक विद्युत।

रसायन विज्ञान में : परमाणुओं का संघटन और विघटन ।

सामाजिक विज्ञान में : वर्ग–संघर्ष।[8]

युद्ध में, हमला और बचाव, आगे बढ़ना और पीछे हटना, जीत और हार सभी अंतरविरोधपूर्ण घटनाएं हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं हो सकता। ये दोनों पहलू आपस में संघर्ष भी करते हैं तथा एक दूसरे पर निर्भर भी रहते हैं, यही युद्ध को सम्पूर्ण बनाते हैं, युद्ध के विकास को आगे बढ़ाते हैं तथा युद्ध की समस्याओं को हल करते हैं।

मानव की धारणाओं में पाए जाने वाले प्रत्येक भेद को वस्तुगत अंततरविरोध के प्रतिबिंब के रूप में देखना चाहिए। वस्तुगत अंतरविरोध मनोगत चिंतन में प्रतिबिंबित होते हैं, यही प्रक्रिया धारणाओं के अंतरविरोधों की गति की रचना करती है, और अंतरविरोधों की यह गति चिंतन के विकास को आगे बढ़ाती है तथा मानव के चिंतन में उठने वाली समस्याओं को निरंतर हल करती जाती है।

पार्टी के भीतर, विभिन्न विचारों के बीच विरोध और संघर्ष लगातार चलता रहता है; यह पार्टी के भीतर समाज के विभिन्न वर्गों के बीच के अंतरविरोधों तथा नए और पुराने के बीच के अंतरविरोधों को प्रतिबिंबित करता है। अगर पार्टी के भीतर अंतरविरोध न हों और उन्हें हल करने के लिए विचारधारात्मक संघर्ष न चलाए जाएं, तो पार्टी की जिंदगी खत्म हो जाएगी।

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