मज़दूरी की व्यवस्था में मज़दूर के शोषण का रहस्य

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यदि हम पहले श्रम के मूल्य को लेकर कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काट रहे थे, तो अब हम एक ऐसे अन्तरविरोध में फँसकर रह गये हैं, जिसका कोई समाधान नहीं है। हम श्रम के मूल्य की खोज करने निकले थे और हमें इतना मूल्य मिल गया कि हम उसका उपयोग नहीं कर सकते। मज़दूर के लिए बारह घण्टे के श्रम का मूल्य तीन मार्क है, पूँजीपति के लिए उसका मूल्य छह मार्क है, जिसमें से तीन मार्क वह मज़दूर को बतौर मज़दूरी के देता है और तीन अपनी जेब में रख लेता है। इस प्रकार, श्रम का एक मूल्य नहीं हुआ, दो मूल्य हुए हैं और तुर्रा यह कि दोनों मूल्य बिल्कुल ही अलग!

यदि मुद्रा में व्यक्त मूल्य को श्रम-काल में रूप में व्यक्त किया जाये, तो यह अन्तरविरोध और भी बेसिर-पैर का मालूम होता है। बारह घण्टे के श्रम से छह मार्क का नया मूल्य पैदा होता है। अतः तीन मार्क, यानी उस रक़म के बराबर मूल्य, जो मज़दूर को बारह घण्टे के श्रम के एवज में मिलता है, छह घण्टे में पैदा होता है। मतलब यह कि मज़दूर को बारह घण्टे के श्रम के लिए छह घण्टे के श्रम की उपज के बराबर मूल्य मिलता है। इसलिए, या तो श्रम के दो मूल्य हैं, एक दूसरे का दुगुना, या बारह बराबर है छह के! दोनों सूरतों में हम बिलकुल औंधी खोपड़ी वाली बात पाते हैं।

आप लाख हाथ-पैर मारिये, पर जब तक आप श्रम के क्रय-विक्रय और श्रम के मूल्य की बातें करते रहेंगे, तब तक आप इस गोरखधन्धे से नहीं निकल पायेंगे। अर्थशास्त्रियों के साथ यही बात हुई है। क्लासिकीय अर्थशास्त्र की अन्तिम शाखा, रिकार्डो की शाखा का प्रधानतः इसी अन्तरविरोध को हल न कर सकने के कारण दिवाला निकल गया। क्लासिकीय अर्थशास्त्र एक अन्धी गली में फँस गया था। इस अन्धी गली से निकलने का रास्ता कार्ल मार्क्स ने खोज निकाला।

जिसे अर्थशास्त्री “श्रम” के उत्पादन का ख़र्च समझते थे, वह श्रम का नहीं, बल्कि ख़ुद जीते-जागते मज़दूर के उत्पादन का ख़र्च है। और यह मज़दूर पूँजीपति के हाथों जो चीज़ बेचता है, वह उसका श्रम नहीं है। मार्क्स ने कहा था: “जैसे ही उसका (मज़दूर का–सं.) श्रम सचमुच आरम्भ होता है, वैसे ही वह मज़दूर की सम्पत्ति नहीं रह जाता और इसलिए तब मज़दूर उसे नहीं बेच सकता। ज़्यादा से ज़्यादा, वह केवल भविष्य का अपना श्रम बेच सकता है, यानी वह एक निश्चित समय में काम की एक विशेष मात्र पूरा करने का बीड़ा उठा सकता है। परन्तु ऐसा करने में वह अपना श्रम नहीं बेचता (बेचने से पहले श्रम करना ज़रूरी है),  बल्कि एक निश्चित समय के लिए (जहाँ समयानुसार मज़दूरी मिलती है) या एक निश्चित मात्र में माल तैयार करने के लिए (जहाँ कार्यानुसार मज़दूरी मिलती है) वह श्रम-शक्ति को एक निश्चित रक़म के बदले में पूँजीपति के हाथों में सौंप देता है: वह अपनी श्रम-शक्ति को बेचता है, या किराये पर उठाता है। परन्तु यह श्रम-शक्ति उसके शरीर में बसी हुई है और उससे अलग नहीं की जा सकती। इसलिए श्रम-शक्ति के उत्पादन का ख़र्च वही है, जो ख़ुद मज़दूर के उत्पादन का ख़र्च है। अर्थशास्त्री जिसे श्रम के उत्पादन का ख़र्च कहते थे, वह वास्तव में मज़दूर के और उसके साथ-साथ उसकी श्रम-शक्ति का उत्पादन का ख़र्च है। और इसलिए श्रम-शक्ति के उत्पादन के ख़र्च से हम श्रम-शक्ति के मूल्य की ओर लौट सकते हैं और यह निर्धारित कर सकते हैं कि विशेष गुणसम्पन्न श्रम-शक्ति के उत्पादन में सामाजिक दृष्टि से कितना श्रम आवश्यक होगा, जैसा कि श्रम-शक्ति के क्रय-विक्रय वाले अध्याय में मार्क्स ने किया है (‘पूँजी’, खण्ड 1, भाग 2, छठा अध्याय)।

अच्छा, जब मज़दूर अपनी श्रम-शक्ति पूँजीपति के हाथों बेच देता है, यानी जब वह उसे पहले से तय की हुई मज़दूरी–समयानुसार अथवा कार्यानुसार–के एवज़ में पूँजीपति के हवाले करता है, तब क्या होता है? पूँजीपति मज़दूर को अपने वर्कशॉप या कारख़ाने के अन्दर ले जाता है, जहाँ काम के लिए ज़रूरी सभी चीज़ें–कच्चा माल, सहायक सामान (कोयला, रंग, आदि), औज़ार, मशीनें–पहले से मौजूद हैं। यहाँ मज़दूर खटना शुरू करता है। उसकी दिनभर की मज़दूरी तीन मार्क हो सकती है, जैसा कि हमने ऊपर माना था–और इस सम्बन्ध में इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि वह तीन मार्क समयानुसार मज़दूरी के रूप में कमाता है या कार्यानुसार मज़दूरी के रूप में। यहाँ हम फि़र यह मान कर चलते हैं कि बारह घण्टे में मज़दूर अपने श्रम से प्रयुक्त कच्चे माल में छह मार्क का नया मूल्य जोड़ देता है, जिस नये मूल्य को पूँजीपति तैयार माल को बेच कर वसूल करता है। उसमें से वह मज़दूर को उसके तीन मार्क दे देता है और बचे हुए तीन मार्क अपने पास रख लेता है। अब मज़दूर यदि बारह घण्टे में छह मार्क का मूल्य पैदा करता है, तो वह छह घण्टे में तीन मार्क का मूल्य पैदा करता है। इसलिए अपनी मज़दूरी के तीन मार्क का तुल्य मूल्य तो उसने पूँजीपति को तभी चुका दिया, जब वह उसके लिए छह घण्टे काम कर चुका। छह घण्टे के काम के बाद दोनों का हिसाब चुकता हो गया; अब उनका एक दूसरे पर एक पैसा भी बाकी नहीं रहा।

“ज़रा ठहरो!” अब पूँजीपति चिल्ला उठता है, “मैंने मज़दूर को पूरे दिन, यानी बारह घण्टे के लिए काम पर रखा है और छह घण्टे के माने होते हैं सिर्फ़ आधा दिन। इसलिए, जब तक बाक़ी छह घण्टे भी पूरे न हो जायें, तब तक काम करते जाओ! उसके बाद ही हमारा-तुम्हारा हिसाब चुकता होगा!” और सचमुच मज़दूर को उस क़रार को निभाना पड़ता है, जो उसने “स्वेच्छापूर्वक” किया है और जिसके अनुसार वह वादा कर चुका है कि वह छह घण्टे के श्रम की लागत की चीज़ पाने के एवज़ मे पूरे बारह घण्टे तक काम करेगा।

कार्यानुसार मज़दूरी के साथ यही बात है। मान लीजिये कि हमारा यह मज़दूर बारह घण्टे में किसी माल के बारह अदद तैयार करता है। उनमें से हर अदद में लगे हुए कच्चे माल में और मशीनों, आदि की घिसाई में दो मार्क ख़र्च होते हैं और हरेक अदद ढाई मार्क में बिकता है। तब, पहले की शर्तों के आधार पर, पूँजीपति मज़दूर को हर अदद के लिए पचीस फ़ेनिन देगा। इस दर पर बारह अदद के लिए मज़दूर को तीन मार्क मिलेंगे, जिनको कमाने के लिए मज़दूर को बारह घण्टे काम करना पड़ता है। पूँजीपति को बारह अदद के लिए तीस मार्क मिलेंगे। उनमें से चौबीस मार्क कच्चे माल और मशीनों, आदि की घिसाई की मद के लिए निकाल दीजिये। तब बचते हैं छह मार्क, जिनमें से वह तीन मार्क मज़दूर को बतौर मज़दूरी के दे देता है और तीन मार्क अपनी जेब में डाल लेता है। बात बिल्कुल वही है, जो ऊपर कही गयी थी। यहाँ भी मज़दूर अपने लिए, यानी अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य उत्पन्न करने के लिए, छह घण्टे (बारह घण्टों में प्रत्येक में से आधा घण्टा) काम करता है और छह घण्टे पूँजीपति के लिए काम करता है।

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